राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के स्वामित्व संबंधी विवाद में विहिप की क्या भूमिका है?

विधि विशेषज्ञों की मानें तो अब जो स्थिति है, उसमें चाहे विवाद कोर्ट के बाहर सुलझ जाए या फैसला हिंदुओं के पक्ष में आ जाए, मंदिर निर्माण में विहिप की कोई भूमिका मुमकिन नहीं है.

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(फोटो: पीटीआई)

विधि विशेषज्ञों और जानकारों की मानें तो अब जो स्थिति है, उसमें चाहे विवाद न्यायालय के बाहर सुलझ जाए अथवा फैसला हिंदुओं के पक्ष में आ जाए, मंदिर निर्माण में विहिप की कोई भूमिका मुमकिन ही नहीं है.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के स्वामित्व संबंधी विवाद की निर्णायक सुनवाई के लिए पांच दिसंबर की तारीख तय किए जाने के बाद से ही विश्व हिंदू परिषद (विहिप) किसी न किसी बहाने मामले को फिर से गरमाने और अपने कार्यकर्ताओं/कारसेवकों में ‘पुराना उत्साह’ जगाने की कोशिशों में लगी हुई है.

इस सिलसिले में कभी वह अपने समर्थक मीडिया की मदद से अपनी राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण कार्यशाला में पत्थरतराशी के काम में तेजी और पत्थरों की नई खेपें लाए जाने की खबरें प्रायोजित करती है, कभी मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आम सहमति बनाने के झूठ-मूठ के प्रयत्नों की.

लेकिन विधि विशेषज्ञों और जानकारों की मानें तो अब जो स्थिति है, उसमें चाहे विवाद न्यायालय के बाहर सुलझ जाये अथवा फैसला हिंदुओं के पक्ष में आ जाए, मंदिर निर्माण में विहिप की कोई भूमिका मुमकिन ही नहीं है.

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा जनवरी, 1993 में लाया गया अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण अध्यादेश तो, जो तीन अप्रैल, 1993 को कानून बन गया, इसकी साफ-साफ मनाही करता है.

इस कानून के रहते नरेंद्र मोदी सरकार चाहे भी तो अधिग्रहीत भूमि, जिसके बगैर ‘वहीं’ मन्दिर निर्माण की सौगंध पूरी ही नहीं हो सकती, विश्व हिंदू परिषद को नहीं दे सकती और जहां तक इस कानून को बदलकर मंदिर निर्माण का कथित कानून बनाने की विहिप की पुरानी मांग की बात है, विहिप को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के रुख और दोनों के बीच के अंतर्विरोधों के कारण फिलहाल यह बदलाव संभव नहीं दिखता.

बात को ठीक से समझने के लिए जरा तफसील में जाना पड़ेगा.

सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ 1994 में ही यह व्यवस्था दे चुकी है कि अधिग्रहीत भूमि पर केंद्र सरकार के अधिकार असीमित और सम्पूर्ण हैं. लेकिन चूंकि संविधान देश को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करता है, उक्त स्वामित्व विवाद के निपटारे के बाद भी वह उस पर खुद किसी धर्मस्थल का निर्माण नहीं कर सकती.

जाहिर है कि इसके लिए उसे अधिग्रहीत भूमि ‘किसी और’ को हस्तांतरित करनी पडे़गी. अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून में इसके लिए स्पष्ट प्रावधान हैं: कानून की धारा छह (1) में कहा गया है कि सरकार उक्त भूमि संबंधी अपने अधिकार किसी ऐसे अधिकरण, निकाय या न्यास को ही हस्तांतरित कर सकती है, जिसका गठन उक्त अधिग्रहण कानून पारित होने के दिन यानी तीन अप्रैल, 1993 को या उसके बाद किया गया हो.

इस हस्तांतरण को वह किसी भी हालत में छुप-छुपाकर अंजाम नहीं दे सकती क्योंकि कानूनन उसे हस्तांतरण को बाकायदा अधिसूचित करना और गजट में प्रकाशित करना होगा.

हस्तातंरण से पहले यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जिस अधिकरण, निकाय या न्यास को हस्तांतरण किया जा रहा है, वह सरकार द्वारा इस संबंध में तय किए गए नियमों व शर्तों को मानने को राजी है. उसके राजीनामे से सरकार की संतुष्टि भी हस्तांतरण का एक कारक होगा.

जानकारों के अनुसार यह प्रावधान इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है कि सरकार कानूनन यह सुनिश्चित करने को बाध्य है कि अधिग्रहीत भूमि का उपयोग अधिग्रहण कानून में घोषित अधिग्रहण के उद्देश्यों के अनुसार ही हो.

इनमें सबसे बड़ा उद्देश्य है दो समुदायों में लंबे अरसे से चले आ रहे विवाद का समापन और सौहार्द की स्थापना. इसी उद्देश्य से अधिग्रहीत भूमि पर दोनों धर्मों के पूजास्थलों के अलावा संग्रहालय, वाचनालय और जनसुविधाओं के निर्माण का उद्देश्य घोषित किया गया है.

कानून की धारा 6 में यह भी प्रावधानित है कि कोई भी हस्तांतरण उसे अधिसूचित किए जाने की या उसके बाद की तारीख से ही लागू किया जा सकता है, पूर्ववर्ती प्रभाव से नहीं.

इसी धारा की उपधारा दो में कहा गया है कि हस्तांतरण के बाद संबंधित भूमि संबंधी वे सारे अधिकार, जो अभी केंद्र सरकार के हैं, हस्तांतरण के लाभार्थी अधिकारण, निकाय या न्यास के हो जायेंगे.

अधिग्रहण संबंधी कानून को वैध ठहराते हुए 1994 में ही सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि अब केवल उस स्थल का मालिकाना हक तय किया जाना है, जहां छह दिसंबर, 1992 से पूर्व विवादित मस्जिद स्थित थी.

इस तरह अब मात्र भूमि के एक छोटे से टुकड़े का मुकदमा बचा है और जीतने वाले पक्ष को अपने पूजा स्थल के निर्माण के लिए अगल-बगल की अधिग्रहीत भूमि संबंधित कानून के प्रावधानों व शर्तों के मुताबिक ही मिल सकती है.

विश्व हिंदू परिषद का दुर्भाग्य कि वह इनमें से ज्यादातर शर्तें पूरी नहीं करती. अधिग्रहण कानून पारित होने के बाद गठित होने संबंधी शर्त को तो एकदम से नहीं.

उसने बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर निर्माण को लेकर देश की सड़कों, संसद और विधानसभाओं में जितनी भी बदअमनी, नफरत या खूंरेजी फैलाई हो, स्वामित्व का जो विवाद अब निचली अदालतों से होते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा है, उसमें वह किसी भी स्तर पर सीधी पक्षकार नहीं रही.

उसका विवाद से इतना ही नाता है कि 1989 के लोकसभा चुनाव से पहले उसके एक नेता और सेवानिवृत्त जज देवकीनंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में फैजाबाद की अदालत में पांचवां दावा दायर कर रखा है.

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बाबरी मस्जिद (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

उनके दावे में यह स्वीकार करते हुए कि 22-23 दिसंबर, 1949 की रात राम चबूतरे की मूर्तियां मस्जिद के अंदर रखी गईं, दावा किया गया है कि वह स्थान व भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक भी हैं.

उनके दावे में यह भी कहते हुए कि राम जन्मभूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है, न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया है. अपने जीवनकाल में विहिप से सर्वेसर्वा अशोक सिंघल इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी थे.

इस रूप में विश्व हिंदू परिषद की स्थिति ज्यादा से ज्यादा परोक्ष पक्षकार जैसी ही है. अयोध्या की हनुमानगढ़ी से जुड़े न्यास के सदस्य धर्मदास इसी बात को लक्ष्य करके अभी भी कह रहे हैं कि विहिप का तो विवाद कोई पक्ष ही नहीं है- वह न तीन में है, न तेरह में, न धुनने में और न चुराने में.

उनका तर्क है कि कोई श्रद्धालु किसी मंदिर के निर्माण में सहयोग करके उसके प्रबंधन का अधिकारी नहीं हो जाता.

प्रसंगवश, विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पूर्व इस मामले में कोर्ट आदेश के पालन की बात कही थी, पर बाद में संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करने और कहने लगी कि उसके मुताबिक कोई भी अदालत आस्था के सवाल पर फैसला नहीं कर सकती.

अलबत्ता, यह बात उसने कभी किसी अदालत के समक्ष नहीं कही. निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद अदालत की लड़ाई में एक दूसरे के विरोधी हैं.

ऐसे में विहिप के विकल्पों पर विचार करें तो उनमें पहला यह है कि वह ईमानदारी से मान ले कि विवाद को लेकर लंबे वक्त तक आसमान सिर पर उठाये रखने के बाद अब (जब बाबरी मस्जिद के ध्वंस को पच्चीस साल होने को आये हैं और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे राष्ट्रीय शर्म की संज्ञा देने के बाद भी देश की नदियों में ढेर सारा पानी बह चुका है) उसकी भूमिका पूरी तरह समाप्त हो गई है.

लेकिन वह इतनी ईमानदारी बरतेगी, उसका चित और पट दोनों अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिशों वाला इतिहास इसकी गवाही नहीं देता.

दूसरा विकल्प अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून की धारा 6 में संशोधन का है, जिसके लिए उसे देश की ससंद या कम से कम नरेंद्र मोदी सरकार को राजी करना होगा.

उसका तीसरा विकल्प नए संगठन का मुखौटा धारण कर लोगों के सामने आने का है और किसी को भी यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उसके पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है.

उसकी ओर से इन दिनों अयोध्या में मुसलमानों के नाम पर केएस सुदर्शन के कार्यकाल में दिसंबर 2002 में गठित आनुषांगिक संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की गतिविधियों को तो बढ़ावा दिया ही जा रहा है, श्रीराम मंदिर निर्माण सहयोग मंच और मुस्लिम कारसेवक मंच जैसे संगठनों को भी आगे किया जा रहा है.

इनके मुस्लिम चेहरों की आड़ में खेल यह साबित करने का है कि अब मुसलमान भी विवादित स्थल पर अपना दावा छोड़ने व राममंदिर निर्माण के काम में सहयोग करने को राजी हो गये हैं और ‘सौहार्द’ की जीत हो गई है.

विवाद का इतिहास बताता है कि संघ परिवार की ऐसी ही भेड़चालों के कारण ही उसके खात्मे के लिए अब तक संबंधित पक्षों में हुई एक के बाद एक कई वार्ताओं में कोई निष्कर्ष नही निकल सका है.

एक समय मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी, तो राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट से इस बाबत अपनी राय देने को कहा था.

लेकिन 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर कोई राय देने से इनकार कर दिया कि अयोध्या एक तूफान है जो गुजर जायेगा, लेकिन उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा और सम्मान से समझौता नहीं किया जा सकता.

तब राय देने से इनकार करते हुए कोर्ट ने कहा था कि ऐसा करके वह भारत के राष्ट्रपति का अनादर नहीं कर रहा. वह उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखता है और उनकी जगजाहिर धर्मनिरपेक्ष साख के प्रति सम्मान व्यक्त करता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं)

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