क्या जनता के नेहरू को दिल्ली निगल गई?

1950-60 के दशक में दिल्ली ने अपने जैसा एक नेहरू बना लिया. यह 1920-30 के दशक के नेहरू से भिन्न था. समय के साथ वो नेहरू जनता की नज़र से ओझल होते गए जिसने अवध के किसान आंदोलन में संघर्ष किया था.

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(फोटो साभार: Nehru Memorial Library)

1950-60 के दशक में दिल्ली ने अपने जैसा एक नेहरू बना लिया. यह 1920-30 के दशक के नेहरू से भिन्न था. समय के साथ वो नेहरू जनता की नज़र से ओझल होते गए जिसने अवध के किसान आंदोलन में संघर्ष किया था.

(फोटो साभार: Nehru Memorial Library)
(फोटो साभार: Nehru Memorial Library)

(यह लेख मूल रूप से 14 नवंबर 2017 को प्रकाशित हुआ था.)

यह 2013 का साल था जब मैं टैगोर टाउन स्थित प्रोफेसर अमर सिंह (1932-2017) के घर गया था. मुझे बैसवारी अवधी पर बात करनी थी और उसके लिए प्रोफेसर से बेहतर कोई नाम सूझ नहीं रहा था.

बैसवारे में पैदा हुए प्रोफेसर अमर सिंह अंग्रेजी, हिंदी साहित्य और इलाहाबाद के बौद्धिक इतिहास के चलते-फिरते ज्ञानकोष माने जाते थे. उनके पास आज़ादी के आंदोलन के ढेर सारे किस्से थे.

हमने उनसे निवेदन किया कि आज़ादी के आंदोलन के बारे में कुछ बैसवारी में बोलें. उन्होंने जो कहा उसका खड़ी बोली हिंदी में कुछ इस तरह का तर्जुमा होगा:

जब मैं सोलह-सत्रह साल का था तब भारत स्वतंत्र हुआ. हम लोगों ने सोचा कि अब धन का सुख और शरीर का सुख दोनों मिलेगा. गांवों में स्कूल और अस्पतालों की बाढ़ आ गई थी और नेहरूजी कल-कारखानों को लगाने के लिए बहुत उत्सुक भी थे.

हम कई लड़के पढ़ने जाते थे, दूसरे गांव में स्कूल था तो वहां के हेडमास्टरजी ने आंखों में आंसू भरकर कहा कि गांधीजी की हत्या हो गई है. जब गांधीजी की हत्या हुई तो मैं मेरठ में था. मैं बहुत रोया था और मन में कई दिनों तक उदासी छायी रही.

पीढ़ी जवाहरलाल की

अमर सिंह उस पीढ़ी के लोगों में थे जिन्होंने आज़ादी के बाद के पहले आम चुनाव में वोट डाला था और देश को लेकर देखे गए नेहरू के सपनों में अपना साझा भविष्य देखा था. आज चौदह नवंबर है. आज के ही दिन 1889 में इलाहाबाद में नेहरू का जन्म हुआ था.

वे एक खाते-पीते बैरिस्टर के घर में पैदा हुए थे, शिक्षा हैरो और कैम्ब्रिज में हुई. उनकी अंग्रेजी भी अच्छी थी लेकिन वह वकील बनने के लिए नहीं बने थे. हां, उनकी बैरिस्टरी की पढ़ाई का फायदा यह रहा कि अपनी पीढ़ी के अन्य लोगों की तरह नेहरू में आजीवन एक न्यायिक विवेक और समझ मौजूद रही.

जैसा हर शहर के लोगों को लगता है कि वह लोगों को बनाता है, इलाहाबाद के बहुत सारे लोगों को आज भी लगता है कि इस शहर ने नेहरू को नेहरू बनाया. 1922-23 के दौरान उन्होंने इस शहर से अपनी राजनीति की शुरुआत की थी.

इस शहर में तब अंग्रेज, खानदानी मुस्लिम और बंगाली बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका रहता था. यहां 1857 के विद्रोह की अनुगूंजें थीं और बगल के प्रतापगढ़ और रायबरेली में किसानों के विद्रोह शुरू हो रहे थे. लेकिन यह कहानी की शुरुआत भर है. नेहरू इससे आगे जाने वाले थे.

उन्होंने अपने न्यायिक विवेक पर सबसे पहले महात्मा गांधी को कसा और पाया कि उनके साथ एक लंबी दूरी तय की जा सकती है. अपने साथी सुभाषचंद्र बोस के साथ वे कभी-कभार महात्मा गांधी से नाराज भी हो जाते थे और तेज रफ्तार पकड़ लेते थे.

1927 में सुभाषचंद्र बोस के साथ कांग्रेस के महासचिव चुने गए थे. मात्र दो वर्षों के बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष की हैसियत से रावी नदी के तट पर कह रहे थे कि भारत को अब पूर्ण स्वतंत्रता से कम कोई भी चीज नहीं चाहिए.

देश में उस दौर में बहुत कुछ घट रहा था. दुनिया बदल रही थी. साम्राज्यवादी शासन अपने को मजबूत कर रहा था तो यूरोप में फासीवाद उभार पर था. नेहरू इसे समझ रहे थे. उन्हें मुसोलिनी और उसके साथियों का भविष्य पता था.

उन्हें स्पष्ट लग रहा था कि भारत को अपनी राह खुद चुननी होगी जो इस फासीवाद और साम्राज्यवाद से जुदा होगी. वे आजीवन उस राह पर चलने के लिए प्रतिबद्ध रहे.

(फोटो साभार: Nehru Memorial Library)
(फोटो साभार: Nehru Memorial Library)

लेखक राजनेता

वे चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और उन्होंने अपने जीवन के ग्यारह बरस जेल में पुस्तकें लिखते हुए बिताए. 1934 में उन्होंने अपनी बड़ी हो रही बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी के लिए ’ग्लिम्प्सेज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ लिखी.

1936 में अपनी आत्मकथा ‘एन ऑटोबायोग्राफी’ और 1946 में एक बनते हुए देश भारत के सभ्यतागत अनुभवों को समेटते हुए ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिखी.

यह बात हल्के-फुल्के ढंग से कही जाती है लेकिन यह गंभीर बात भी है कि नेहरू अगर भारत के प्रधानमंत्री न बनते तो एक उम्दा साहित्यकार बनते. यह अनायास नहीं था कि वे यह जानते थे कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को सीधे तौर पर आर्थिक मदद देने से कवि आहत हो जाएंगे तो इसके लिए उन्होंने महादेवी वर्मा के पास आर्थिक सहायता पहुंचाने का प्रबंध किया जिससे वे निराला की मदद कर सकें.

ऐसा वह नेहरू ही कर सकता था जो अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में टैगोर, कालिदास, कबीर, सूरदास, अमीर खुसरो, और महाभारत और रामायण के कवियों पर सैकड़ों पृष्ठ बहुत ही सम्मान से लिखता है. यह वही नेहरू कर सकता था जिसे उपनिषद और गीता में अंतर पता था.

इतिहासकार प्रोफेसर लालबहादुर वर्मा कहते हैं कि नेहरू ने उस बुलंदी को प्राप्त करने की कोशिश की जिसे एक सभ्यता के रूप में भारत प्राप्त करना चाहता था. नेहरू के बाद उनके संगी-साथी इस लक्ष्य को प्राप्त करने में लगातार चूके हैं. भारत को जहां होना था, वह अब उधर नहीं जा रहा है.

पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति ने दुनिया में नए उपनिवेशों की खोज को प्रोत्साहन दिया. नए देश खोजे गए और उन्हें गुलाम बनाया गया. अफ्रीका, एशिया और अमेरिका को गुलाम बनाया गया और कहा गया कि वे अंधविश्वासी हैं. उनमें वैज्ञानिक चेतना नहीं है, वे लोकतंत्र की रौशनी से बहुत दूर खड़े हैं.

मुल्कों को उपनिवेश बनाने के औचित्य खोजे गए. भारत की आज़ादी की लड़ाई ने न केवल उपनिवेशवाद के औचित्य पर सवाल उठाया बल्कि उसके पैरोकारों द्वारा बोले गए झूठ को भी ध्वस्त कर दिया. इसमें नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ की भूमिका थी.

हालांकि जब इसका प्रकाशन हुआ तो उसके कुछ ही महीनों बाद भारत को आज़ादी मिल गई थी लेकिन तीसरी दुनिया के उन मुल्कों में यह किताब काफी लोकप्रिय हुई जहां अभी तक फ्रेंच या अंग्रेजों का शासन था.

‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में नेहरू सबसे बेहतर वही होते हैं, जब वे इतिहासकार के रूप में होते हैं. फिर भी वे काफी विनम्र रहते हैं और अपने पाठक को तनिक भी आभास नही होने देते हैं कि वे इतिहास बता रहे हैं. नेहरू ने लिखित तौर पर उपनिवेशवाद के तमाम झूठों के बखिया उधेड़ दी.

नियति से मिलाप

जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. उन्होंने उस भारत की कल्पना की जो वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हो, जिसमें बराबरी हो, जिसे लोकतांत्रिक तरीके से चलाया जाए और जिसकी दुनिया के मुल्कों में अपनी स्वतंत्र पहचान हो.

उन्होंने सामुदायिक जीवन पद्धति से खेती किसानी को प्रोत्साहन देने का प्रयास किया. देश को भुखमरी से निजात दिलाने की कोशिश की और सिंचाई के लिए नहरों और बड़े बांधों की कल्पना की.

नेहरू ने दिल्ली के पुराने किले के खंडहरों में मार्च 1947 में 28 एशियाई देशों की कांफ्रेस बुलाई. उन्होंने गुट निरपेक्ष आंदोलन की अगुआई की. उन्होंने भारत को एक मुकम्मल देश बनाने के लिए अपनी जान लड़ा दी. तकनीक और विज्ञान को बढ़ावा दिया.

युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक लिखते हैं कि नेहरू के मन में विज्ञान के प्रति रुचि जगाने का श्रेय उनके आयरिश-फ्रांसीसी मूल के शिक्षक फर्डिनांड ब्रुक्स को जाता है. ब्रुक्स ने 1901-04 के दौरान नेहरू का परिचय साहित्य और विज्ञान की दुनिया से कराया. घर में ही ब्रुक्स और नेहरू ने एक छोटी-सी प्रयोगशाला भी स्थापित की, जहां वे दोनों विज्ञान से जुड़े रोचक प्रयोग करते थे.

आगे भी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़ते हुए नेहरू ने नेचुरल साइंस को ही अपने विषय के रूप में चुना. वास्तव में नेहरू ने आधुनिक विज्ञान को अफ्रीका और एशिया के नव-स्वतंत्र देशों के लिए उम्मीद की एक किरण के रूप में देखा था.

नेहरू ने आज़ादी के बाद विज्ञान को समर्पित संस्थाओं मसलन आईआईटी, सीएसआईआर, एटॉमिक एनर्जी कमीशन आदि के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.

नेहरू के अभिजात्य का मिथक

नेहरू निश्चित ही अपना मूल्यांकन अपने कामकाज के आधार पर करना चाहते लेकिन उनका मूल्यांकन उन लोककथाओं के आधार पर किया गया जो उनके जीवन में ही फैल गई थीं. ऐसी कथाओं को जान-बूझकर फैलाया गया. इससे एक बड़े तबके का हित साधता था.

उसने नेहरू का परिचय ऐसे व्यक्ति के रूप में दिया जैसा वह तबका खुद था (ऐसे व्यक्ति आज भी दिल्ली में आप देख सकते हैं). इसमें नेहरू के उन प्रशंसकों का भी हाथ था जो थोड़ी बहुत अंग्रेजी पढ़ गए थे और दिल्ली की जी-हुजूरी वाली दुनिया में काफी खुश रहते थे.

वह नेहरू जनता की नजर से ओझल होते गए जिसने अवध के किसान आंदोलन में संघर्ष किया था, इसमें वे नेहरू भी नहीं थे जिन्हें साइमन कमीशन के भारतव्यापी विरोध में लखनऊ में लाठियों से बुरी तरह पीटा गया था. इसमें जेल जाने वाला नेहरू भी नहीं था.

1950-60 के दशक में दिल्ली ने अपने जैसा एक नेहरू बना लिया था. यह नेहरू 1920-30 के दशक के नेहरू से भिन्न था. इसे बदनाम करना काफी आसान हो जाता था. जनता के नेहरू को दिल्ली निगल गयी.

2017 में हमारे बीच किस नेहरू की छवि प्रसारित की जा रही है, इसे जानना चाहिए. नेहरू के बारे में मेरे पिताजी प्रायः बात करते रहते थे.

उन्होंने थोड़ी सी पढ़ाई की थी और खेती-किसानी करते थे. देश के बहुत ढेर सारे किसानों की तरह उनके पास झूठे-सच्चे किस्से होते थे. उनमें से यह अलग करना काफी मुश्किल होता था कि कौन सा किस्सा सच है और कौन सा झूठा. कभी-कभी यह दोनों का घालमेल भी होता था.

27 मई 1964 को उनकी शादी थी. उसी दिन ‘जवाहिरलाल’ की मृत्यु हो गई. वे बताते कि किस प्रकार 27 मई 1964 की रात में सारी बारात ने खाना नहीं खाया था.

बाद में मैं जब थोड़ा और बड़ा हुआ तो पता चला कि इस बात को उन्होंने बढ़ा-चढ़ाकर बताया था लेकिन इतनी बात तो सच थी कि नेहरू की मृत्यु के बाद उनकी पीढ़ी के लोगों के मुख के अंदर जल्दी निवाला नहीं गया था.

एक दूसरा किस्सा वे यह भी बताते थे कि जब देश आजाद हो रहा तो किसी ज्योतिषी ने उनसे कहा कि अमुक तारीख को देश की आज़ादी की घोषणा होगी तो देश के लिए सब कुछ भला होगा. नेहरू ने उस ज्योतिषी को डांटकर भगा दिया.

नेहरू को अपने देश की जनता में अगाध विश्वास था. भला वे ज्योतिषी की सलाह को क्यों तवज्जो देते? (बाद के राजनेता ज्योतिषियों की सलाह लेने लेगे, वह भी खुलेआम!)

नेहरू के जाने के लगभग चालीस बरसों के बाद देश के किसान उनकी वैज्ञानिक चेतना को इसी प्रकार याद कर रहे थे.

(रमाशंकर सिंह स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.)

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