भारतीय सिनेमा को मानव रूप दिया जाए तो वह वी. शांताराम की तरह होगा

जन्मदिन विशेष: वी. शांताराम उन गिने-चुने प्रमुख फिल्मकारों में से हैं जिन्होंने देश के सांस्कृतिक जीवन में सिनेमा को विशिष्ट स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

/

जन्मदिन विशेष: वी. शांताराम उन गिने-चुने प्रमुख फिल्मकारों में से हैं जिन्होंने देश के सांस्कृतिक जीवन में सिनेमा को विशिष्ट स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

V Shantaram Via Youtube
वी. शांताराम. (18 नवंबर 1901 – 30 अक्टूबर 1990) (फोटो साभार: यूट्यूब)

ख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने वी. शांताराम (1901-1990) के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि अगर भारतीय सिनेमा को मानवीय आकार दिया जाए, तो वह शांताराम की तरह प्रतीत होगा.

वे उन गिने-चुने प्रमुख फिल्मकारों में से हैं जिन्होंने देश के सांस्कृतिक जीवन में सिनेमा को विशिष्ट स्थान दिलाने में महती भूमिका निभाई.

इसके साथ ही शांताराम सिनेमा को एक जटिल और बहु-स्तरीय उद्योग के तौर पर स्थापित करने में भी अग्रणी रहे.

वी. शांताराम के बारे में बात करना सिर्फ एक बेहद कामयाब और कद्दावर शख्सियत के बारे में बात करना नहीं है. उनके निजी और पेशेवर जीवन तथा उनके समकालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिवेश का ताना-बाना गहरे से परस्पर जुड़ा हुआ है.

बीती सदी की दूसरी दहाई में शुरू हुई हमारी सिनेमाई यात्रा मूक फिल्मों के दौर से गुज़रती हुई जब बोलती फिल्मों के शुरुआती सालों तक पहुंचती है, तब तक उसने अपना रचनात्मक और सांस्कृतिक स्वरूप पा लिया था तथा वह एक औद्योगिक आयोजन के रूप में स्थापित हो चुकी थी.

कलकत्ता (अब कोलकाता) में न्यू थियेटर्स और बंबई (अब मुंबई) में बॉम्बे टॉकीज के साथ पूना (अब पुणे) में प्रभात फिल्म कंपनी जैसे स्टूडियो 1930 के दशक के आते-आते सिनेमा की नींव पक्की कर अब उस पर विशाल इमारत खड़ी रहे थे.

वी. शांताराम प्रभात फिल्म कंपनी के संस्थापकों में से थे और उसके सबसे कामयाब निर्देशक भी. दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके तुरंत बाद जब स्टूडियो सिस्टम बिखर रहा था और स्वतंत्र निर्माता-निर्देशक स्थापित होने लगे थे, उस प्रक्रिया में भी राजकमल कला मंदिर के अपने अलग बैनर के साथ वी. शांताराम अगली पंक्ति में रहे.

यह उपलब्धि इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि स्टूडियो सिस्टम के महारथी नए माहौल में अपने पैर जमा नहीं रख सके और किनारे होते गए.

जब हमारी पहली फिल्म प्रदर्शित हुई, तब शांताराम किशोर थे और जब उनका देहांत हुआ, हमारा सिनेमा डिजिटल तकनीक की दरवाज़े पर खड़ा था.

बहुत कम उम्र में कोल्हापुर में वे बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फिल्म कंपनी में शामिल हुए और 1929 में इस कंपनी के कुछ सहकर्मियों के साथ उन्होंने उसी शहर में प्रभात फिल्म कंपनी बनाई.

तब तक शांताराम एक अच्छे निर्देशक के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुके थे. इन दोनों कंपनियों की कार्य-संस्कृति ऐसी थी कि हर व्यक्ति को हर विभाग में काम करना पड़ता था तथा इस प्रक्रिया में उन्हें सिनेमा का व्यापक ज्ञान और कौशल हासिल हो जाता था.

बाद में उनकी कंपनी पुणे आ गई. साल 1942 में उन्होंने प्रभात से नाता तोड़ लिया और अपनी कंपनी बनाई. श्याम बेनेगल यह भी कहते हैं कि अगर आप भारतीय सिनेमा का इतिहास जानना चाहते हैं, तो शांताराम की आत्मकथा पढ़ लें.

यह भी एक विडंबना ही है कि इस महान फिल्मकार के ऊपर अभी तक कोई ठोस अध्ययन नहीं हुआ है. वर्ष 1987 में मराठी और हिंदी में छपी उनकी आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद तक नहीं हो सका है.

यह किताब भी आसानी से मिलती नहीं है और शायद सिर्फ़ शांताराम ट्रस्ट के पास ही इसकी कुछ प्रतियां हैं. हाल में उनकी बेटी मधुरा पंडित जसराज ने अंग्रेज़ी में एक किताब लिखकर इस कमी को कुछ हद तक पूरा करने का प्रयास किया है.

भारतीय इतिहास के अध्ययन के साथ एक बड़ी कमजोरी यह है कि उसे हम आम तौर पर एक महाआख्यान की तरह पढ़ते-पढ़ाते हैं.

इस प्रक्रिया में भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों में विमर्श के रूझानों और उनकी परंपराओं की अवहेलना होती रहती है. लोकवृत्त (पब्लिक स्फेयर) को एकवचन में देखने की जगह उसकी बहुलता को रेखांकित करना ज़रूरी है. यह राष्ट्र-निर्माण के प्रयासों का विशिष्ट हिस्सा होना चाहिए.

भारतीय सिनेमा का हिसाब-किताब भी बहुल है तथा उसकी औद्योगिक और सांस्कृतिक जटिलताओं को समझने के लिए उसका अध्ययन विभिन्न स्तरों पर किया जाना चाहिए.

वी. शांताराम तथा प्रभात फिल्म कंपनी और राजकमल कला मंदिर के इतिहास के अध्ययन से बॉम्बे सिनेमा को बनाने-संवारने में मराठी संस्कृति और राजनीति के योगदान को रेखांकित किया जा सकता है.

जब शांताराम ने सिनेमा से जुड़े, उस समय 19वीं सदी के मध्य से ही प्रचलित जाति, धर्म और सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर ज्योतिबा फूले की रचनाएं बहुत प्रभावी हो चुकी थीं.
https://www.youtube.com/watch?v=C2tDlljMuwg

कोल्हापुर में छत्रपति साहू जी महाराज सामाजिक न्याय के लिए अनेक कार्यक्रम चला रहे थे. उल्लेखनीय है कि छत्रपति ने कोल्हापुर में सिनेमा को बढ़ावा देने के लिए हरसंभव सहायता दी.

सिनेमा और सामाजिक न्याय की इस परंपरा का जुड़ाव को समझने के लिए दो तथ्य बहुत हैं. महाराष्ट्र फिल्म कंपनी के बाबूराव पेंटर ने ही ज्योतिबा फूले की पहली प्रतिमा बनाई थी और छत्रपति ने बाबा साहेब आंबेडकर को स्कॉलरशिप दी थी.

मराठी लोकवृत्त में तब मराठा राष्ट्रवाद के पुरोधा और ब्राह्मणवादी सिद्धांतकार राजाराम शास्त्री भागवत के विचार भी प्रभावशाली थे.

न्यायाधीश एमजी रानाडे और आरजी भंडारकर द्वारा स्थापित प्रार्थना समाज भक्त-कवि तुकाराम समेत अन्य संतों के विचारों का प्रचार कर रहा था.

इन्होंने संस्कृत के स्थान पर मराठी भाषा को बढ़ावा देने का भी प्रयास किया. वीआर शिंदे की पत्रिका में रुढ़िवादी ब्राह्मणों और ईसाई मिशनरियों के बीच वाद-विवाद होता था. और चिपलुंकर, तिलक और अहिताग्नि राजवाड़े जैसे दमदार रुढ़िवादी भी थे.

ये सभी मराठी राष्ट्रीयता, भाषा और संस्कृति के हिमायती थे. छत्रपति शिवाजी को ये सभी मराठा आदर्श के रूप में स्थापित कर चुके थे.

गांधी और सावरकर भी राष्ट्रीय मंच पर अवतरित हो चुके थे. शांताराम ने तीनों कंपनियों में रहते हुए जो फिल्में बनाईं और जिनमें उन्होंने परदे के बाहर-भीतर योगदान दिया, उन सबमें मराठी लोकवृत्त और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न स्वरों की अनुगूंज को सुना जा सकता है.

राजनीति के साथ उस समय तक मराठी रंगमंच, जिसे संगीत नाटक कहा जाता है, एक स्थापित संस्था बन चुका था. दशावतार और तमाशे के साथ आधुनिक थियेटर भी अपने शबाब पर था.

सीता स्वयंवर, शकुंतला और शारदा जैसे नाटक लोकप्रिय और असरकारी थे. इनके असर का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि शारदा के पहले मंचन के 30 साल बाद जब कम उम्र की बच्चियों की शादी बड़े उम्र के लोगों के साथ करने की परंपरा पर क़ानूनी रोक लगी, तो उस क़ानून का नाम शारदा एक्ट रखा गया.

ये सब बातें इसलिए उल्लेखनीय हैं क्योंकि शांताराम और प्रभात कंपनी ने इन सभी विषयों पर फिल्में बनाईं, जो नाटकों में लोकप्रिय हो रही थीं.

अगर श्रीपाद कृष्णा कोल्हटकर को छोड़ दें, तो मराठी रंगमंच पर पारसी थियेटर का असर न के बराबर था. शांता गोखले ने लिखा है कि ऐसा इसलिए था कि मराठी लोग साझे सवालों, परंपराओं और आकांक्षाओं के साथ एक-दूसरे से जुड़े हुए थे.

उन्होंने रेखांकित किया है कि समाज में बदलाव हो रहा था और मराठी रंगमंच इस बदलाव का एक हिस्सा था. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि शांताराम अपने वृहत सिनेमाई करिअर में विषयों और नरेटिव स्टाइल के लिए बार-बार इस परंपरा की ओर लौटते रहे. यह तथ्य प्रभात को न्यू थियेटर्स और बॉम्बे टॉकीज़ से कथानक और शिल्प के स्तर पर अलग करता है.

यह बड़े अफ़सोस की बात है कि महाराष्ट्र फिल्म कंपनी और प्रभात की बनाईं मूक फिल्में अब उपलब्ध नहीं हैं जिनमें 1925 में बनी सावकारी पाश  भी शामिल है.

इस फिल्म से शांताराम ने अभिनेता के रूप में पहली भूमिका निभाई थी. महाजनी चंगुल से तबाह किसानों की दुर्दशा पर आधारित इस फिल्म को खूब लोकप्रियता मिली थी और इसके यथार्थवादी शिल्प के लिए भी बहुत सराहा गया था.

वर्ष 1931 में शांताराम ने पहली बोलती फिल्म अयोध्याचे राजा  बनाई. यह फिल्म मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं में थी. मराठी संवेदनशीलता के साथ राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने की महत्वाकांक्षा भी इसमें दिखाई देती है.

प्रभात में शांताराम और उनके सहयोगियों की महत्वाकांक्षा के स्तर का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अगले ही साल उन्होंने सैरंध्री  नामक रंगीन फिल्म बना दी जिसके सिलसिले में शांताराम ने जर्मनी की यात्रा की थी.

हालांकि यह प्रयोग सफल न हो सका और फिल्म प्रिंट की अच्छी गुणवत्ता न होने के कारण इसे रोक लिया गया, पर जर्मन-प्रवास के दौरान शांताराम ने सिनेमा में एक्सप्रेशनिज़्म (एक्सट्रीम क्लोज अप, अंधेरे-उजाले और छाया का इस्तेमाल आदि इसके तत्व हैं) का जलवा देखा और बाद की उनकी कई फिल्मों में इस कला-रूप का शानदार प्रयोग दिखाई पड़ता है.

V Shantaram2 Via Youtube
(फोटो साभार: यूट्यूब)

अमृत मंथन (1934), धर्मात्मा (1935), दुनिया न माने (1937), अपना देश (1949) और दो आंखें बारह हाथ (1957) इस प्रयोग के विशिष्ट उदाहरण हैं.

क्षेत्रीय संवेदना के साथ अंतरराष्ट्रीय कला-रूपों को लेकर राष्ट्रीय सिनेमा के निर्माण का यह अद्भुत मामला था.

आजादी के बाद पहले दो दशकों की उनकी रंगीन फिल्मों को ‘लोकप्रियता की ललक से प्रेरित’, ‘पितृसत्तात्मक और स्त्री-द्वेषी’, ‘मानसिक मैथुन’, ‘यूटोपियन आधुनिकता की सेवा में परंपरा का मनमाना प्रयोग’ जैसी घोर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है.

इसके बावजूद सिनेमा उद्योग के भीतर और बाहर उनके सम्मान में कमी नहीं आई और वे पूरे फिल्म जगत के ‘अण्णा साहेब’ बने रहे. वे उन कुछेक फिल्मकारों में से थे जिन्होंने 1955 में ही रंगीन फिल्म बना ली थी.

सिनेमा के परदे पर रंग का आना सिनेमाई इतिहास की एक ख़ास परिघटना है और इसके साथ ही स्टूडियो के अंदर सेट बनाकर फिल्माने की रवायत टूटने लगी और कैमरा अब लोकेशन पर जाने लगा.

लेकिन, शांताराम की रंगीन फिल्मों का अधिकांश स्टूडियो में ही फिल्माया गया है. इस मामले में भी वे अपने समकालीनों से भिन्न हैं.

व्यापक सफलता के कारण आजाद भारत में सिनेमा उद्योग की रूप-रेखा तैयार करने में वी. शांताराम को अगुवा बनने की जिम्मेदारी निभानी पड़ी.

नेहरू सरकार द्वारा गठित फिल्म इंक्वायरी कमेटी में उन्होंने सिनेमा उद्योग का प्रतिनिधित्व किया. इस कमेटी ने 1951 में अपनी रिपोर्ट दी थी.

फिल्म उद्योग की आपसी झंझटों में वे मध्यस्थता करते थे और उनकी बात टालने का साहस किसी में नहीं था. उनके स्टूडियो का दरवाजा नए लोगों के लिए हमेशा खुला रहता था.

फिल्म उद्योग की विभिन्न संस्थाओं के वे लगातार अध्यक्ष और संरक्षक रहे. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने फिल्म डिवीजन के साथ भी काम किया था.

साल 1954 में सरकार ने उन्हें इस संस्था का सम्मानित प्रमुख निर्माता बनाया. आजादी के बाद राशनिंग के कारण फिल्मकारों को निर्धारित मात्रा में रीलें मिलती थीं.

वर्ष 1959 में इसे तय करने वाली संस्था रॉ स्टॉक स्टीयरिंग कमेटी के वे अध्यक्ष बनाए गए. शांताराम 1960 से 1970 तक सेंसर बोर्ड में भी रहे थे.

शांताराम की उपलब्धियों और उनके महत्व का आकलन ठीक से तभी हो सकता है, जब हम उनकी फिल्मों के साथ-साथ सिनेमाई इतिहास में उनके योगदान को हर आयाम से समझने का प्रयास करें.

इतिहास को उसकी पूर्णता में देखे बिना हमें वर्तमान की सही दृष्टि नहीं मिल सकती है और न ही हम भविष्य को आकार दे पाने में सक्षम होंगे.

वी. शांताराम हमारे आधुनिक सांस्कृतिक इतिहास की प्रमुख कड़ी हैं. उन्हें जानना-समझना हमारे लिए ज़रूरी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq