मोदी सरकार राफेल सौदे पर उठने वाले सवालों का जवाब देने से क्यों कतरा रही है?

सरकार को राफेल सौदे पर उठ रहे अहम सवालों के तर्कपूर्ण जवाब देने चाहिए, क्योंकि यह अरबों डॉलर के सार्वजनिक धन से जुड़ा हुआ मसला है.

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सरकार को राफेल सौदे पर उठ रहे अहम सवालों के तर्कपूर्ण जवाब देने चाहिए, क्योंकि यह अरबों डॉलर के सार्वजनिक धन से जुड़ा हुआ मसला है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: रॉयटर्स)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: रॉयटर्स)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में फ्रांस के अपने आधिकारिक दौरे के दौरान 36 राफेल फाइटर विमानों की खरीद की घोषणा करने के लिए जिस तरह से कई जरूरी सांस्थानिक प्रक्रियाओं को दरकिनार किया, उस पर एक बार फिर से सवाल उठने लगे हैं.

अगर हम मोदी के अप्रैल, 2015 के दौरे से पहले के घटनाक्रमों को देखें, तो वे हैरान करने की हद तक पारदर्शिता की कमी की ओर इशारा करते हैं.

इसमें सबसे अहम सवाल प्रधानमंत्री द्वारा पहले के राफेल सौदे को रद्द करने और उसे नया रूप देने के बड़े फैसले के इर्द-गिर्द घूमता है. यह राष्ट्रीय सुरक्षा और सरकारी खजाने से काफी नजदीकी तौर पर जुड़ा हुआ मामला है. सवाल है कि प्रधानमंत्री ने जरूरी मंजूरी और मंत्रालयों के बीच आपसी बातचीत के बगैर इतना बड़ा फैसला कैसे कर लिया?

एक सवाल यह भी है कि आखिर रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले सप्ताह यह भ्रामक दावा क्यों किया कि (इस खरीद में) सभी समुचित प्रक्रियाओं का पालन किया गया था?

जैसा कि रक्षा पत्रकारों ने ध्यान दिलाया है, भूतपूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को भी मोदी के फ्रांस दौरे से कुछ दिन पहले ही 36 राफेल जेटों की खरीद के बारे में हड़बड़ी में सूचना दी गई थी. इसके बाद उन पर एक ऐसे फैसले का सार्वजनिक तौर पर बचाव करने की जिम्मेदारी आ गई, ‘जो न उनकी समझ में आया था, न जिस पर वे सहमत थे.’

अब जरा, मोदी द्वारा फ्रांस से उड़ने को तैयार स्थिति वाले 36 विमानों की घोषणा से जुड़े हालातों पर गौर कीजिए. प्रधानमंत्री की यात्रा से महज एक दिन पहले औपचारिक प्रेस वार्ता में विदेश सचिव एस जयशंकर ने कहा था:

‘जहां तक राफेल की बात है, मेरी समझ है कि फ्रेंच कंपनी, हमारे रक्षा मंत्रालय, और इसमें शामिल एचएएल (हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड) के बीच बातचीत चल रही है. ये सतत चलने वाली, तकनीकी और सूक्ष्मतम ब्यौरों को ध्यान में रखकर की जाने वाली बातचीत है. हम नेतृत्व के स्तर के दौरों को चले आ रहे रक्षा सौदों की तफसीलों के साथ नहीं मिलाते हैं. वह बिल्कुल अलग स्तर का मामला है. नेतृत्व के स्तर के दौरों में बड़े परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखा जाता है और यह बात रक्षा क्षेत्र में भी लागू होती है.’

यह दिखाता है कि विदेश मंत्रालय के वरिष्ठतम नौकरशाह को भी इस घोषणा के बारे में जानकारी नहीं थी. जबकि यह उम्मीद की जाती है कि उन्हें एक विदेशी मुल्क में प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों के बारे में स्पष्ट जानकारी होगी.

दूसरे शब्दों में कहें, तो इस मामले में आधिकारिक पक्ष पिछली यूपीए-2 सरकार द्वारा किए गए सौदे का ही विस्तार नजर आ रहा था. इस सौदे के तहत फ्रेंच कंपनी से ज्यादा बड़ी खरीद की बात थी, जिसमें सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) भी भारतीय निर्माता साझीदार के तौर पर शामिल थी.

जयशंकर के बयान से यह भी प्रकट होता है कि 8 अप्रैल, 2015 तक एचएएल आधिकारिक तौर पर उस सौदे का हिस्सा थी.

दूसरे शब्दों में कहें, तो ऐसा लगेगा कि सरकार ने शुरुआती रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (आरएफपी) के नतीजे और सेवा शर्तों पर आधारित बातचीतों से तब तक अपना पल्ला नहीं झाड़ा था.

एक दूसरा सबूत भी है, जो यह बताता है कि दसॉल्ट के सीईओ और चेयरमैन एरिक ट्रैपियर को भी सौदे के आकार को छोटा करके 36 विमानों का कर देने और इस सौदे से एचएएल को बाहर करने और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के बेहद अहम प्रावधान को हटाने के मोदी के फैसले की जानकारी नहीं थी.

अजांस फ्रांस प्रेस रिपोर्ट (जिसका प्रकाशन, 27 मार्च, 2015 को इंडियन डिफेंस न्यूज में हुआ था) में ट्रैपियर के हवाले से कहा गया है कि राफेल फाइटर जेट के लिए भारतीय सौदे को पूरा करने में समय लग रहा है, लेकिन 126 राफेल जेटों की खरीद का सौदा अब ‘95 प्रतिशत पूरा’ हो गया है.

दसॉल्ट द्वारा 25 मार्च, 2015 को, यानी मोदी के फ्रांस दौरे और सौदे के आकार को कम करने की घोषणा के महज दो सप्ताह पहले प्रकाशित एक वीडियो भी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है. इस वीडियो में, जिसे दसॉल्ट द्वारा वरिष्ठ वायुसेना अधिकारियों और फ्रांस में भारतीय राजदूत की मौजूदगी में दो अपग्रेडेड मिराज-2000 सौंपने के मौके पर फिल्माया गया था.

ट्रैपियर को यह कहते सुना जा सकता है कि दसॉल्ट का एचएएल के साथ काफी पुराना संबंध है और यह संबंध 126 राफेल जेटों के सौदे के पूरा होने के साथ और मजबूत होगा और वे इसको लेकर काफी उत्सुक हैं. हम यह गर्व के साथ कहते हैं कि दसॉल्ट आरएफपी की सभी शर्तों का पालन करते हुए खुश है.

उन्होंने कहा था, ‘हम प्रतियोगिता के नियमों के तहत रहने के लिए रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (आरएफपी) के अनुरूप काम कर रहे हैं और मुझे यह पक्का यकीन है कि यह करार जल्दी ही पूरा हो जाएगा और इस पर दस्तखत हो जाएगा.’

अगर, अरबों डॉलर के सौदे के लिए बातचीत 2012 से तीन वर्षों में ‘95 फीसदी पूरी’ हो चुकी थी, और दसॉल्ट आरएफपी की सेवाशर्तों का पालन करते हुए सौदे को अंतिम रूप दिए जाने को लेकर उत्सुकता से इंतजार कर रही थी, तो सवाल पैदा होता है कि मोदी को आखिर उस सौदे को पूरी तरह से रद्द करने की प्रेरणा कहां से मिली होगी?

भारत में विपक्षी दलों की मानें, तो इसका एक मुमकिन कारण यह है कि इसने कुल मिलाकर भारत के निजी क्षेत्र को और खासकर अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को फायदा पहुंचाने का काम किया.

गौरतलब है कि 36 तैयार विमानों की खरीद के लिए रिलायंस डिफेंस, दसॉल्ट की महत्वपूर्ण ज्वायंट वेंचर पार्टनर बन गई.

पिछले कुछ हफ्तों में, भाजपा नेताओं, केंद्रीय मंत्रियों, उनके समर्थकों और कई दक्षिणपंथी रक्षा विशेषज्ञों ने आरएफपी को रद्द करने के कारणों की लंबी सूची दी है. उनके द्वारा यह बात बार-बार दोहराई गई है कि मोदी को यह फैसला (राफेल सौदे की) बातचीत के विफल हो जाने के कारण लेना पड़ा.

लेकिन इनमें से किसी ने भी मोदी द्वारा, प्रासंगिक कैबिनेट समितियों की मंजूरी के बगैर और अपने ही कैबिनेट सहयोगियों और वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों- खासकर रक्षामंत्री और वित्त मंत्री की शक्तियों का अतिक्रमण करते हुए, एकतरफा घोषणा करने की वैधता को लेकर उठने वाले सवालों का जवाब नहीं दिया.

इससे भी अहम यह है कि मोदी का बचाव करने वालों में से कोई भी भारत के विदेश सचिव की 8 अप्रैल की प्रेस वार्ता के बाद सौदे की बातचीत के ‘विफल’ हो जाने का कारण नहीं बता पाया, जबकि इस प्रेस वार्ता में भारत के विदेश सचिव ने कहा था कि भारत सरकार, दसॉल्ट और एचएएल के बीच बातचीत चल रही है.

और सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात ये है कि ट्रैपियर और दसॉल्ट यानी वह कंपनी, जिसके साथ बातचीत चल रही थी, उनको भी इस वार्ता के असफल हो जाने के बारे में जानकारी नहीं थी.

इन अहम सवालों से भटकाने वाली चालबाजियों की जगह सरकार को इनका तर्कपूर्ण जवाब देना चाहिए, खासकर इसलिए क्योंकि यह अरबों डॉलर के सार्वजनिक धन से जुड़ा हुआ मसला है.

सबसे महत्वपूर्ण बात, प्रधानमंत्री के लिए ये जरूरी है कि वे आरएफपी को रद्द करने और एचएएल को इस सौदे से बाहर करने का एक जायज कारण बताएं (क्योंकि जैसा कि कइयों ने बताया है- नया सौदा न सिर्फ प्रति यूनिट के हिसाब से ज्यादा महंगा था, बल्कि यह भारतीय वायुसेना की जरूरतों को पूरा करने मे भी नाकाम रहा). साथ ही उन्हें इतने नाटकीय और एकतरफा तरीके से पुराने सौदे से पलटने का भी कारण बताना चाहिए.

(रवि नायर से ट्विटर आईडी @t_d_h_nair पर संपर्क किया जा सकता है.)

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