पुरातात्विक स्थलों के लिए एसिड रेन है दिल्ली की प्रदूषित हवा

प्रदूषण के कारण ताज महल की रंगत फीकी पड़ने की वैज्ञानिक पुष्टि होने के बाद यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण के कुप्रभावों से पुरातात्विक स्थल अछूते नहीं हैं.

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दिल्ली का लाल किला, क़ुतुब मीनार, जामा मस्जिद (फोटो: पीटीआई)

प्रदूषण के कारण ताज महल की रंगत फीकी पड़ने की वैज्ञानिक पुष्टि होने के बाद यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण के कुप्रभावों से पुरातात्विक स्थल अछूते नहीं हैं.

दिल्ली का लाल किला, क़ुतुब मीनार, जामा मस्जिद (फोटो: पीटीआई)
दिल्ली का लाल किला, क़ुतुब मीनार, जामा मस्जिद (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: दमघोंटू हवाओं की वजह से गैस चैंबर में तब्दील हुई दिल्ली की हवा में घुले प्रदूषक तत्व विरासत स्थलों की दरो-दीवारों पर अम्लीय वर्षा (एसिड रेन) जैसा असर छोड़ रहे हैं.

पिछले कुछ सालों में दिल्ली के तमाम विरासत स्थलों के संरक्षण कार्य के दौरान ऐतिहासिक इमारतों पर प्रदूषण के असर की बात सामने आई है. भारतीय कला, संस्कृति एवं पुरातात्विक स्थलों के संरक्षण से जुड़ी संस्था इंटेक द्वारा ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण कार्य के दौरान इन पर प्रदूषण के दोहरे प्रभाव की पुष्टि हुई है.

संरक्षण कार्य की परियोजना से जुड़े इंटेक के एक अधिकारी के मुताबिक पुरातात्विक महत्व की संरक्षित इमारतों पर दूषित हवा में घुले रासायनिक तत्वों का सीधा असर इनकी रंगत धूमिल होने के रूप में दिखाई देता है. दूसरा असर, इन इमारतों में लगे पत्थरों पर रासायनिक तत्वों की लंबे समय तक मौजूदगी, इनके कमजोर पड़ने के कारण के रूप में सामने आया है.

साल 2009 में राष्ट्रमंडल खेल आयोजन के दौरान इंटेक को दिल्ली सरकार के पुरातत्व विभाग के क्षेत्राधिकार वाले 24 विरासत स्थलों का संरक्षण कार्य सौंपा गया था. पहले चरण में इंटेक द्वारा 11 इमारतों के संरक्षण कार्य के दौरान कश्मीरी गेट के पास मौजूद म्यूटिनी मेमोरियल की दीवारों की सफाई के समय निकले काले रंग के पदार्थ में प्रदूषक तत्वों की मौजूदगी पाए जाने के बाद प्रदूषण का असर दिखा.

इंटेक के सलाहकार विशेषज्ञ एजी के मेनन ने बताया कि प्रदूषण के कारण ताज महल की रंगत फीकी पड़ने की वैज्ञानिक पुष्टि होने के बाद यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण के कुप्रभावों से पुरातात्विक स्थल अछूते नहीं हैं.

संरक्षण कार्य के दौरान इंटेक की दिल्ली इकाई के संयोजक रहे मेनन ने कहा कि दिल्ली में अधिकांश पुरातात्विक इमारतें लाल पत्थर से बनी हैं, इसलिए हवा में घुले सल्फर तत्व इन इमारतों पर बारिश के पानी के साथ रासायनिक क्रिया कर अम्लीय वर्षा जैसा असर छोड़ते हैं.

मेनन ने इस दिशा में विस्तृत वैज्ञानिक शोध की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि ऐतिहासिक स्थलों को इस समस्या से बचाने के लिए उपयुक्त उपाय खोजना समय की जरूरत है.

अध्ययन से जुड़े इंटेक के विशेषज्ञों की मानें तो अभी यह तय नहीं किया जा सका है कि प्रदूषण के कारण प्राचीन इमारतों के पत्थरों के कमजोर होने की गति क्या है और इससे इमारत की उम्र पर कितना असर पड़ता है.

परियोजना के पहले और दूसरे चरण में शामिल की गई प्रत्येक ऐतिहासिक इमारत में इस पहलू पर गौर करने पर इनके पत्थरों की रंगत में कमी और क्षरण की बात सामने आई है.

इमारतों की सफाई में इस्तेमाल किए गए तरल पदार्थ के साथ दीवारों से निकले काले रंग के पदार्थ की रासायनिक जांच में सल्फर तत्वों की मौजूदगी पत्थर की चमक और रंगत को धूमिल करने तथा पत्थर का क्षरण इसे कमजोर कर इमारत की उम्र को कम करने का कारण बन रहा है.

दूषित हवा में मौजूद सल्फर डाई आक्साइड और सल्फयूरिक अम्ल सहित सल्फर समूह के अन्य तत्व, लाल पत्थर से बनी इमारतों को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाते हैं.

दूषित तत्व हवा के साथ इन पत्थरों की खुरदुरी सतह पर आसानी से ठहर जाते हैं और फिर बारिश होने पर पानी के साथ रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप पत्थर में क्षरण शुरू कर देते हैं, जो इमारत की उम्र को कम करने वाला साबित हो सकता है. साथ ही पानी के संपर्क में आने पर ये तत्व पत्थर की सतह पर स्थायी जगह भी बना लेते हैं.

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की दिल्ली इकाई के पूर्व प्रमुख के के मोहम्मद ने ताज महल पर प्रदूषण के असर से संबंधित अध्ययन के हवाले से कहा कि इस समस्या से ऐतिहासिक स्थलों को बचाने का एकमात्र तात्कालिक उपाय इनकी नियमित सफाई करना है. जिससे इनकी बाहरी और भीतरी दीवारों पर हवा में घुले दूषित तत्वों को ठहरने से रोका जा सके.

इंटेक की इस परियोजना के दौरान जिन ऐतिहासिक इमारतों में प्रदूषण का स्पष्ट असर देखा गया, उनमें लगभग 150 साल पुराने म्यूटिनी मेमोरियल के अलावा बदरपुर दरवाजा, महरौली पुरातत्व पार्क में मौजूद कुली खान के मकबरे सहित दो अन्य मकबरों, महरौली गांव में स्थित झरना और लाडो सराय, जेएल नेहरू स्टेडियम तथा नेशनल स्टेडियम में मौजूद एक एक गुमनाम विरासत स्थल शामिल हैं.

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