मीडिया सत्ता को असहज नहीं करना चाहती, वह नहीं चाहती कि देश की असल तस्वीर पर बात हो

मीडिया से सवाल पूछने की बात करना बेकार है क्योंकि वह सवाल पूछना भूल चुकी है.

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मीडिया से सवाल पूछने की बात करना बेकार है क्योंकि वह सवाल पूछना भूल चुकी है. वह उसी रास्ते पर है जो उसे सत्ता और सत्ताधारी दल इशारे में बता रहे हैं.

Media Protests Coverage
किसान मुक्ति संसद में जाते किसान (बाएं), भारतीय मजदूर संघ का हालिया प्रदर्शन (दाएं)

भारतीय पत्रकारिता करीब सत्तर फीसदी हिंदुस्तान से किस तरह का व्यवहार कर रही है, इसका ताजा उदाहरण हाल की कुछ घटनाओं से देखा जा सकता है. देश की राजधानी में घटी इन घटनाओं और उस पर मुख्यधारा की पत्रकारिता के उदासीन रवैये को देखकर लगा कि पत्रकारिता सत्ता को असहज नहीं करना चाहती है. वह नहीं चाहती कि देश की असल तस्वीर पर बात हो.

इस तस्वीर पर बात करते हुए सत्ता से सवाल किए जाएं. यही कारण है कि वह इन वास्तविक मसलों को दरकिनार कर सत्ता और उससे संबद्ध दल द्वारा प्रायोजित वंदे मातरम् के अनावश्यक विवाद को हवा देती है.

पद्मावती फिल्म जैसे फिजूल के विषय को हफ्ता-दर-हफ्ता खींचती है. विरोध के नाम पर मवालियों को हीरो बनाती है और स्टूडियो में तलवार तक लहरवाती है.

राजधानी में इस नवंबर में कई सड़क के आंदोलन हुए. सबसे पहले दो दिवसीय (20 व 21 नवंबर) किसान मुक्ति संसद की बात.

देश के विभिन्न राज्यों से आए 180 किसान संगठनों ने अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति के बैनर तले संसद मार्ग पर किसान मुक्ति संसद लगायी. रामलीला मैदान, अम्बेडकर भवन, रकाबगंज गुरुद्वारा एवं रेलवे स्टेशनों से किसान नारे लगाते हुए संसद में पहुंचे. उनके हाथों में विभिन्न भाषाओं वाले पोस्टर और बैनर थे, जो उनके इस जुटान के वृहद स्वरूप की चुगली कर रहे थे.

उनकी संसद का मुख्य नारा था, ‘किसान मर रहा है, शासक सो रहा है.’ संसद की शुरुआत मंदसौर में पुलिस गोलीबारी में शहीद हुए किसानों, आत्महत्या करने वाले किसानों व यवतमाल में कीटनाशक के कारण मारे गए किसानों को श्रद्धांजलि देने के साथ हुयी.

साथ ही नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुआ मेधा पाटकर ने आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की 545 महिला किसानों की संसद लगायी. भरे गले से मेधा पाटकर ने कहा, ‘आज देश के लिए ऐतिहासिक क्षण है कि जब महिलाएं अपनी संसद बिठाकर अपने सवालों पर बात कर रही हैं.’

वहां मौजूद हर किसी के लिए यह दृश्य सिहरा देने वाला था, लेकिन राजनीति और पत्रकारिता के लिए शायद ऐसे दृश्य मायने नहीं रखते.

किसान नेता वीएम सिंह के संयोजकत्व में जुटे किसानों की मांग थी कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं. उसी आयोग की सिफारिश के अनुसार फसलों की कीमत उत्पादन लागत से 50 फीसदी अधिक दिलायी जाए. सभी तरह के ऋण एक साथ माफ किए जाएं.

19 राज्यों के किसान दस हजार किलोमीटर की किसान मुक्ति यात्रा पूरी कर 20 नवंबर को दिल्ली पहुंचे थे. राजधानी आने से पहले वे अपने राज्यों में धरना-प्रदर्शन कर सरकार को चेतावनी दे चुके थे, लेकिन उनकी मांगों पर गौर नहीं किया गया.

इतना ही नहीं उनके प्रदर्शनों को लगभग सभी राज्यों में कुचलने का काम किया गया. उन्हें लाठी और गोली का निशाना बनाया गया. इसमें अनेक किसान शहीद हो गए.

यह उस मध्य प्रदेश में भी हुआ, जिसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को मोदी सरकार ने जिम्मेदारी दे रखी है कि 2022 तक किसानों को उनकी उपज लागत की डेढ़ गुना कीमत कैसे दी जाए, का तरीका खोज निकालें.

खैर! बहुत दिनों बाद दिल्ली में बड़े पैमाने पर जुटे किसानों की संसद के साथ राजधानी के प्रमुख अखबारों ने कैसा सुलूक किया, यह देखने के लिए दो दिन के अखबारों की पड़ताल की गयी.

इस पड़ताल में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका, नवभारत टाइम्स व जनसत्ता जैसे हिन्दी के अखबार शामिल किए गए तो अंग्रेजी के टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स व द इंडियन एक्सप्रेस को शामिल किया गया.

दिल्ली के संसद मार्ग पर देश भर के 184 किसान संगठनों की ओर से दो दिवसीय किसान मुक्ति संसद लगाई गई. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)
दिल्ली के संसद मार्ग पर देश भर के 184 किसान संगठनों की ओर से दो दिवसीय किसान मुक्ति संसद लगाई गई थी. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

अखबारों की छानबीन से मालूम हुआ कि हिन्दी में अमर उजाला व राजस्थान पत्रिका ने कुछ लाज रखी वहीं शेष अखबारों ने रस्म अदायगी का काम किया.

अमर उजाला ने 21 नवंबर के संस्करण में दो कॉलम की फोटो के साथ तीन कॉलम की खबर पहले पेज पर प्रकाशित की. इसके साथ ही अंदर पेज नंबर चार पर दो फोटो के साथ पांच कॉलम में लीड खबर प्रमुखता के साथ छापी.

इसी अखबार ने अगले दिन के संस्करण में पेज चार पर तीन कॉलम फोटो के साथ चार कॉलम की खबर दी है तो संपादकीय पेज पर कुमार प्रशान्त का ‘खेतिहर समाज की त्रासदी’ शीर्षक से लेख भी प्रकाशित किया है, जिसके केंद्र में किसान मुक्ति संसद है.

इस तरह अखबार ने किसानों के इस आयोजन को ठीक से रेखांकित किया है, लेकिन पहले दिन के कवरेज में किसानों की मांगें उठाने के साथ ही उसका जोर इस बात पर भी रहा कि किसानों के रामलीला मैदान से संसद मार्ग के लिए निकले मार्च से पूरी ट्रैफिक व्यवस्था चरमरा गयी. सप्ताह का पहला कार्य दिवस था सो ऑफिस जाने वालों को घंटों जाम का सामना करना पड़ा.

राजस्थान पत्रिका ने पहले दिन पेज नंबर 14 पर दो कॉलम फोटो के साथ चार कॉलम की सामग्री किसान मुक्ति संसद के नाम की तो अगले दिन पेज 12 पर किसानों के इस ऐलान को महत्व दिया है कि ‘चुनाव में नेताओं को गांवों में घुसने नहीं देंगे.’

पत्रिका ने इस दिन अपना संपादकीय (भरोसे का मारा अन्नदाता!) भी किसानों के नाम किया है. इन दो अखबारों के अलावा हिन्दी के अधिकतर अखबारों ने किसान मुक्ति संसद को लेकर या तो खानापूर्ति की या फिर मामले को दूसरा मोड़ देने का प्रयास किया.

जनसत्ता और नवभारत टाइम्स ने पहले दिन क्रमशः फोटो के साथ पांच कॉलम व चार कॉलम की खबर प्रकाशित की तो अगले दिन उसे गायब कर दिया.

वहीं दैनिक भास्कर ने पहले दिन खबर को ब्लैकआउट कर दिया तो दूसरे दिन पेज चार पर दो कॉलम में खानापूर्ति करने वाली खबर दी.

दैनिक जागरण और हिंदुस्तान ने तो हद पार कर दी. दोनों अखबारों ने पहले दिन संसद को ब्लैकआउट कर दिया तो दूसरे दिन उनकी कवरेज में मुख्य खबर के साथ इस बात पर जोर अधिक रहा कि किसानों के आने से किस तरह दिल्ली की रफ्तार पर ब्रेक लग गया?

लोग कैसे घंटों जाम में फ़ंसे रहे? पुलिस ने लोगों को सूचना तक नहीं दी. एडवायजरी तक नहीं जारी की.

ऐसी अनेक बातों को उठाकर अखबारों ने किसानों की मुख्य समस्याओं से लोगों को भटकाने का काम किया. वैसे पत्रकारिता में यह एक ट्रेंड बन गया है कि पहली बार तो 70 फीसदी वाले हिंदुस्तान (गांव और किसान) की समस्याओं को उठाओ नहीं और अगर कभी उठाओ भी तो उसे ऐसा मोड़ दो कि पीडि़त ही खलनायक बन जाए.

इस बात को और अधिक पुख्ता करने के लिए नवंबर 2009 की एक घटना का उल्लेख करना आवश्यक है, जो देश की राजधानी में प्रदर्शन करने आए गन्ना किसानों से जुड़ी है.

तब राष्ट्रीय मीडिया खासकर अंग्रेजी अखबारों और टीवी न्यूज चैनलों ने उनके साथ ‘अश्लील’ व्यवहार किया.

तब भारतीय जनसंचार संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान ने लिखा था, ‘दिल्ली के सबसे बड़े अखबार होने का दावा करने वाले दोनों अंग्रेजी अखबारों (टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स) ने अपने कवरेज में इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया कि कैसे किसानों की इस भीड़ ने दिल्ली में जाम लगा दिया और इससे दिल्ली वालों को कितनी तकलीफ हुई? यह भी कि किसानों की यह भीड़ कितनी अनुशासनहीन थी और उसने किस तरह से शहरियों के साथ बदतमीजी की, शहर को गंदा किया और तोड़फोड़ करके चले गए. गोया किसान न हों बल्कि तैमूरलंग की सेना ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया हो.’

उस समय तो अंग्रेजी के अखबारों ने इस तरह की खबर प्रकाशित कर दी थी, लेकिन मौजूदा समय में तो वह किसानों की खबर को तवज्जो ही नहीं देते.

अंग्रेजी के अखबारों की बात की जाए तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले दिन की संसद को तवज्जो नहीं दिया तो दूसरे दिन को दो कॉलम में समेट दिया.

वहीं हिंदुस्तान टाइम्स ने खबर तो दूर किसान संसद की सूचना तक देने की जहमत नहीं उठायी.

इस कड़ी में द इंडियन एक्सप्रेस ने पहले दिन अवश्य लाज रखी. उसने दो बड़ी खबरों और फोटो के साथ पेज नंबर तीन पर पैकेज प्रकाशित किया.

वैसे अंग्रेजी के अधिकतर अखबार किसानों के मसले को कभी प्रमुखता नहीं देते. उनका मानना है कि उनके अखबारों का प्रसार गांवों में नहीं है यानी किसान उनका अखबार नहीं पढ़ते. ऐसे में वह किसानों से जुड़ी खबर प्रकाशित कर क्यों अपना स्पेस जाया करें.

जब हिन्दी के अखबार गांव व खेती-किसानी को लेकर उदासीन बने हुए हैं तो इस संबंध में अंग्रेजी के अखबारों की बात करना ही बेमानी है.

17 नवंबर को दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ का प्रदर्शन (फोटो: प्रशांत कनौजिया/द वायर)
17 नवंबर को दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ का प्रदर्शन (फोटो: प्रशांत कनौजिया/द वायर)

किसान मुक्ति संसद के अलावा 17 नवंबर को भारतीय मजदूर संघ ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में संसद मार्ग पर प्रदर्शन किया. देश के अलग-अलग शहरों से आए इन मजदूरों का कहना था कि सरकार की गलत नीतियों के कारण मजदूर असुरक्षित हो गए हैं. लोगों की नौकरियां छिन गयी हैं. रोजगार के नए अवसर हासिल नहीं हो रहे हैं.

इसी कड़ी में 11 नवंबर को विभिन्न राज्यों से आई आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों, आशा कार्यकर्ताओं व मिड-डे-मील बनाने वाली महिलाओं ने संसद मार्ग पर डेरा डाला.

उनका कहना था कि वे सरकार की योजनाओं को जमीन पर लागू करने का काम करती हैं, लेकिन सरकार वर्षों से उनकी अनदेखी कर रही है. हमारी माली हालत खराब है. हमारा वेतन बढ़ाया जाए. कर्मचारियों को दी जाने वाली सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएं.

विभिन्न राज्यों से बड़े पैमाने पर आईं महिलाएं दिन भर अपनी लोक संस्कृति के जरिए विरोध जताती रहीं. मोदी हाय-हाय. हम अपना अधिकार मांगते-नहीं किसी से भीख मांगते, जैसे नारे लगाती रहीं.

इसी तरह 9 नवंबर को दिल्ली में ही दस ट्रेड यूनियन के हजारों कर्मचारी मोदी सरकार की आर्थिक और श्रम सुधार नीतियों का विरोध कर चुके हैं, लेकिन ये सभी देशव्यापी विरोध प्रदर्शन मुख्यधारा की पत्रकारिता से गायब रहे.

इनको कवर करने का मतलब था- सत्ता पर सवाल उठाना. उसकी नीतियों पर सवाल उठाना. ऐसे मसलों से बचने के लिए पत्रकारिता ने सबसे अच्छा तरीका निकाला है कि न वह ऐसे मसलों को उठाएगी और न सत्ता से उसे सवाल करना पड़ेगा.

दोनों मिलकर पाठक/दर्शकों को गुडी-गुडी सपने दिखाते रहेंगे. यह बात अलग है कि वह सपने शायद ही कभी पूरे हों.

ऐसे ही सपने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी (अब प्रधानमंत्री) ने  किसानों को दिखाए थे.

उन्होंने किसानों को लुभाते और भरमाते हुए वादा किया था कि उनकी सरकार बनी तो वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेंगे.

फसल लागत की डेढ़ गुना कीमत देंगे. देश की 70 फीसदी आबादी से यह एक तरह का सौदा था. उस आबादी ने इस लुभावने नारे को गंभीरता से लिया. उसने अपने वोटों से मोदी और भाजपा की झोली भर दी. वह सत्ता में आ गए.

सत्ता में आए उन्हें साढ़े तीन साल से अधिक हो गए हैं. अब तो केंद्र के साथ अधिकांश राज्यों में भी भाजपा व उनके सहयोगी दलों की सरकारें सत्तासीन हैं. इसके बावजूद वह अपने लोक लुभावन वादों को पूरा नहीं कर रहे हैं.

किसानों को अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करना पड़ रहा है. असल में मोदी का किसानों से किया गया वायदा महज भरमाने के लिए था.

यही कारण है कि वह सरकार में आने के बाद कहने लगे कि 2022 तक किसानों को दोगुना लाभ दिलाएंगे. सवाल उठता है कि मोदी सरकार को जनता ने 2019 तक के लिए चुना है, ऐसे में वह 2022 तक कैसे अपना वादा पूरा करेंगे.

हालांकि यह बात जगजाहिर है कि वह 2024 तक देश के प्रधानमंत्री बने रहने का सपना पाले हैं. इसका वह इजहार भी कर चुके हैं. लेकिन इसकी क्या गारंटी कि जनता उन्हें 2019 में एक बार फिर सत्ता सौंप देगी?

असल में ऐसा करके वह किसानों को भरमा रहे हैं और इस भरमाने में मीडिया उनका पूरा साथ दे रहा है. वह मोदी सरकार से यह सवाल नहीं पूछ रहा कि सत्ता में आने पर पूरा करने का वादा 2022 तक आखिर कैसे बढ़ा दिया गया?

साथ ही जनता ने अगर 2019 में उन्हें दोबारा नहीं चुना तो वह यह वादा कैसे पूरा करेंगे?

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11 नवंबर को विभिन्न राज्यों से आई आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों, आशा कार्यकर्ताओं व मिड-डे-मील बनाने वाली महिलाओं ने संसद मार्ग पर डेरा डाला (फोटो: पीटीआई)

किसानों के मसले व उनसे जुड़े सवालों की बात हो रही है तो एक और तथ्य जानना आवश्यक है कि मोदी सरकार कृषि वाहन ट्रैक्टर-ट्रॉली को पहली बार कृषि वाहन की श्रेणी से निकालकर व्यावसायिक श्रेणी में डालने जा रही है.

इससे किसानों पर दोहरी मार पड़ेगी. सरकार का यह फैसला लागू होने के बाद ट्रैक्टर खरीदने पर किसानों को वही सब टैक्स देने होंगे जो किसी व्यावसायिक वाहन को खरीदने पर देने होते हैं.

हर बैरियर पर उसे ट्रक के बराबर टोल टैक्स देना होगा. भविष्य में जो कानून व्यावसायिक वाहनों पर लगते हैं वही ट्रैक्टर पर भी लागू होंगे.

ऐसे में खेती पर कम होते लाभ के बीच सरकार का यह फरमान किसानों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है और यह सब टोल माफिया और सरकार की मिलीभगत के कारण हो रहा है.

असल में सरकारों से लेकर खाते-पीते लोग तक सभी किसानों को खलनायक मानते हैं. उससे उसी तरह का व्यवहार करते हैं.

पिछले दिनों दिल्ली से लेकर पड़ोसी राज्यों को जब धुंध ने घेरा और लोगों को सांस लेने में असुविधा होने लगी तो सभी पराली जलाने को लेकर किसानों पर टूट पड़े.

अखबारों के पन्नों पर पराली जलने लगी. टीवी न्यूज चैनलों में भी पराली जलने की लपटें उठने लगीं. कुछ एंकरों के मुंह तक उसकी लपटें पहुंच गयीं. निश्चित रूप से धुंध की एक वजह पराली का जलना है, लेकिन धुंध के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार किसान हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है.

राजनीति से लेकर मीडिया तक में इस खतरनाक मौसम के लिए वाहनों की बेतहाशा बढ़ती भीड़ को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता है. बड़ी-बड़ी डीजल की गाडि़यों में अकेले फर्राटा भरते खाते-पीये-अघाये लोगों की ओर किसी ने इशारा नहीं किया.

इतना ही नहीं सार्वजनिक परिवहन को दुरुस्त करने और सड़कों पर कारों की भीड़ कम करने की बात कहीं नहीं दिखी. दिखा क्या कि धुंध के लिए किसान को जिम्मेदार ठहराओ. उसे जेल भेजो. काम खत्म. अपनी सुख-सुविधाओं में कहीं से भी कटौती न करो.

खैर! यहां मीडिया का सवाल पूछने की बात करना बेकार है क्योंकि वह सवाल पूछना भूल चुकी है. वह कमोबेश उसी रास्ते पर चल रही है जो उसे सत्ता और सत्ताधारी दल इशारे में बता रहे हैं.

उसे इशारा मिलता है कि वंदे मातरम् पर शोर मचवाना है तो न्यूज चैनलों के स्टूडियो से लेकर अखबारों तक वंदे मातरम् का शोर दिखायी देने लगता है.

उसे इशारा मिलता है कि अब पद्मावती पर उपद्रव कराना है सो देखते ही देखते दिल्ली से लेकर देश के अधिकांश राज्यों में पद्मावती-पद्मावती का खेल शुरू हो जाता है.

देश की जनता भी इसी शोर-शराबे में उलझ जाती है.

उसका इस बात की ओर ध्यान ही नहीं जाता कि संसद का सत्र क्यों बढ़ाया जा रहा है? किसानों के मसले क्या हैं? वह क्यों सड़कों पर उतरे हैं? ट्रेड यूनियन क्यों खफा हैं?

आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों, आशा बहुओं और मिड-डे-मील बनाने वाली महिलाओं की क्या परेशानियां हैं? झारखंड और ओडिशा में भूख से हो रही मौतों का दोषी कौन है? जज लोया की मौत पर उठे सवालों का जवाब कौन देगा?

पैराडाइज पेपर के दायरे में कौन आ रहा है? कालाधन अब तक क्यों नहीं आया? ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी क्यों हो रही है? उस गड़बड़ी से भाजपा को ही वोट क्यों जा रहे हैं?

गौर फरमाइए… शोर-शराबा नहीं होगा तो जनता ये सारे सवाल पूछेगी. विपक्ष चाहे-अनचाहे ये सवाल संसद में उठाएगा.

शायद उसका कुछ असर गुजरात चुनाव पर पड़ता. लेकिन सत्ता नहीं चाहती कि ये सारे सवाल उठाए जाएं सो पत्रकारिता भी नहीं उठा रही. सत्ता जो चाहती है… अधिकांश पत्रकारिता वही कर रही है.

हां, इसमें एक-आध टीवी न्यूज चैनल से लेकर कुछ वेबसाइट अपवाद अवश्य हैं. ऐसे समय में उनकी पत्रकारिता को सलाम.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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