बंबई दंगे: ज़ख़्म तो भर गए, लेकिन निशां अभी बाकी हैं

बाबरी विध्वंस के 25 साल: बाबरी विध्वंस के बाद छिड़े सांप्रदायिक दंगों की आंच बंबई तक भी पहुंची थी. लोगों का कहना है कि वे इससे आगे बढ़ चुके हैं पर मुस्लिमों पर हुए हमलों की हालिया घटनाएं उन्हें डराती हैं.

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1993 में मुंबई दंगों का एक दृश्य. (फोटो: सुधाकर ओल्वे)

बाबरी विध्वंस के 25 साल: बाबरी विध्वंस के बाद छिड़े सांप्रदायिक दंगों की आंच बंबई तक भी पहुंची थी. लोगों का कहना है कि वे इससे आगे बढ़ चुके हैं पर मुस्लिमों पर हुए हमलों की हालिया घटनाएं उन्हें डराती हैं.

1993 में मुंबई दंगों का एक दृश्य. (फोटो: सुधाकर ओल्वे)
1993 में मुंबई दंगों का एक दृश्य. (फोटो: सुधाकर ओल्वे)

हर शाम अब्दुल सत्तार दक्षिणी मुंबई के मोहम्मद अली रोड पर अपनी बेकरी ‘सुलेमान उस्मान मिठाईवाला’ के बाहर अपने दोस्तों के साथ बैठकी लगाते हें और अपनी मिठाइयां उन्हें चखने के लिए देते हैं. यह एक भीड़-भरा इलाका है, जिसमें पैदल राहगीर और फेरी वाले जगह के लिए एक दूसरे के साथ धक्का-मुक्की करते रहते हैं और इस व्यस्त सड़क पर ट्रैफिक अपनी रफ्तार से गुजरता रहता है.

यह एक सामान्य सा दृश्य है, लेकिन 25 बरस पहले इसी जगह पर, इस बेकरी के ऊपर स्थित मदरसा दारुल-उल-उलूम-इमदादिया पुलिस की भारी फायरिंग की घटना का गवाह बना था, जिसमें 9 लोग मारे गए. मारे जानेवालों में सत्तार के पांच कर्मचारी भी थे. इस घटना और इस घटना के इर्द-गिर्द की गई गलत रिपोर्टिंग, जिसमें यह दावा किया गया था कि ऊपरी हिस्से में हथियार जमा करके रखे गए थे, का सामना करना सत्तार के लिए काफी मुश्किल था.

मदरसे के शिक्षक नूर उल हुदा मक़बूल अहमद ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक आगे बढ़ाया, लेकिन अंत में हार गए. पुलिसकर्मियों, जिनका नेतृत्व तत्कालीन जॉइंट पुलिस कमिश्नर आरडी त्यागी कर रहे थे, को सबूतों के अभाव में दोषी नहीं करार दिया जा सका. आज 25 साल के बाद सत्तार आगे निकल गए हैं. वे कहते हैं, ‘अब यह एक बंद किताब है. ये सब अतीत की बात है.’

बेकरी के ऊपर एक मदरसा है, इस मदरसे में काम करनेवाले अलाउद्दीन (उन्होंने अपना पूरा नाम नहीं बताया) बुदबुदाते हुए कहते हैं कि जब उन्होंने पुलिसवालों को सीढ़ियों पर चढ़ते और गोलीबारी करते देखा, तो वे वहां से भाग गए.

अलाउद्दीन कहते हैं, ‘मदरसे में एक चाकू तक नहीं पाया गया था.’ नूर उल हुदा के बेटे अब्दुल समद कहते हैं कि उस समय वे काफी कम उम्र के थे. मगर उन्हें याद है कि उनके पिता को बंदूक के कुंदे से मारा गया था. इससे आई चोट ने 2012 में उनकी मौत तक उन्हें परेशान किया.

उनकी जिंदगियों को अस्त- व्यस्त कर देनेवाली उस घटना के बारे में इससे ज्यादा कोई कुछ भी कहने को तैयार नहीं है. 2015 की यह रिपोर्ट कि इस केस में आठ पुलिसकर्मियों पर फिर से मुकदमा चल रहा है, उन्हें कोई राहत नहीं पहुंचाती.

शहर के दूसरे सिरे पर स्थित गोरई में, सुदर्शन बाने ड्राइवर की नौकरी करके गुजर-बसर करते हैं.  जनवरी, 1993 की उनके अभिभावक और चार अन्य लोग, जिनमें एक विकलांग लड़की भी थी, कुख्यात गांधी चॉल घटना में जिंदा जलाकर मार दिए गए थे. इस घटना ने कत्लेआम के एक और लंबे दौर को जन्म दिया था. उसकी बहन नैना, काफी जली हुई हालत में वहां से किसी तरह बच निकली थी और कुछ महीनों तक अस्पताल में रही थी.

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस खबर फैलने के ठीक बाद शुरू हुए दंगे कुछ दिनों के बाद थम गए थे, लेकिन गांधी चॉल की घटना के बाद ये फिर से भड़क उठे थे. शिवसेना ने नैना बाने को ‘दंगों के चेहरे’ के तौर पर पेश किया और इस घटना का इस्तेमाल उपद्रव मचाने के बहाने के तौर पर किया.

पार्टी ने बाने परिवार को घर समेत, कई चीजें देने का वादा किया, लेकिन वे वादे आज तक पूरे नहीं हुए हैं. अपने भाई-बहनों की तरह सुदर्शन आज भी किराए के मकान में रहते हैं. गुजरे हुए सालों में उन्हें रोजी कमाने और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ा है. आज उनका बेटा कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है और उनकी बेटी भी काम कर रही है. वे उस जगह पर लौट कर नहीं गए हैं, जहां उनके माता-पिता की मृत्यु हुई थी.

उनका सबसे बड़ा अफसोस ये है कि किसी ने भी दंगों के दौरान ‘मराठी मानूस’ के लिए कुछ नहीं किया. 1992-93 में दंगों के भड़कने से पहले भी जोगेश्वरी का उप-नगरीय इलाका, जहां गांधी चॉल बसी है, एक अशांत इलाका था जहां बार-बार दंगे होते रहते थे.

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फाइल फोटो: पीटीआई

हिंदू और मुस्लिम इलाकों के बीच विभाजन आज भी कायम है. साजिद शेख, जिनका अपना एक रियल एस्टेट बिजनेस है, ने बता, ‘दोनों समुदायों के बीच में आज भी एक दीवार है,लेकिन कभी-कभी वे हाथ भी मिला लेते हैं,खासकर जब भारी बारिश होती है या बाढ़ आती है. जैसै 2005 में देखने को मिला, जब शहर में बाढ़ आई थी. हालांकि दंगा इतिहास की बात हो चुके हैं, लेकिन इसके निशान बाकी हैं. हर जगह, इससे प्रभावित कोई न कोई मिल जाएगा. हत्याओं और लूट की यादें आज भी जिंदा हैं. लोग आगे बढ़ गए हैं, लेकिन भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हो रही हत्याओं के सिलसिले और गोरक्षकों के बेलगाम उपद्रव के बाद एक बार फिर डर का माहौल बन रहा है.’

श्रीकृष्ण कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर,1992 और जनवरी, 1993 के दो महीनों के दौरान हुए हुए दंगों में 900 लोग मारे गए थे. इनमें 575 मुस्लिम, 275 हिंदू , 45 अज्ञात और पांच अन्य थे. सुधाकर नाइक की कांग्रेस की सरकार इन दंगों पर काबू पाने में पूरी तरह से असमर्थ साबित हुई और आखिरकार सेना को बुलाना पड़ा था.

श्रीकृष्ण कमीशन की रिपोर्ट में 31पुलिसकर्मियों पर आरोप लगाया गया था और शिवसेना और बाला साहेब ठाकरे के भड़काऊ भाषणों को भी इसके लिए जिम्मेदार करार दिया था. 25 साल के बाद इस मामले कुछ लोगों को दोषी करार दिया गया है, जिनमें शिवसेना के भूतपूर्व सांसद मधुकर सरपोतदार और एक पुलिसकर्मी शामिल हैं. इन दोनों को जेल नहीं हुई.

बांद्रा की एक बड़ी झुग्गी बस्ती बेहरामपाड़ा में1992-97 के दौरान कॉरपोरेटर रहे गुलज़ार शेख ने बताया कि एक बार अशांति कम होने के बाद कई हिंदू भारी हिंसा झेलनेवाले इस इलाके को छोड़ कर चले गए. उन्होंने कहा, ‘लोग अपनी ज़िंदगियों में आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन कोई यह नहीं भूल सकता कि बाबरी मस्जिद ढहा दी गई थी.’

सामाजिक कार्यकर्ता मरियम राशिद, जो वर्तमान में सोसाइटी फॉर ह्यूमन एनवायरमेंटल डेवेलपमेंट की डिप्टी सीईओ हैं. वे याद करती हैं कि धारावी में जहां 6 दिसंबर को ही दंगे शुरू हो गए थे, वहां हिंसा के दौरान उनकी सबसे प्रमुख चिंता वे बच्चे और उनकी सुरक्षा थी, जो अनाथ हो गए थे या जिन्होंने अपने माता-पिता में से किसी एक को खो दिया था.

धारावी के ज्यादातर हिस्से को खाली करा दिया गया था, खासकर उन इलाकों को जिनमें हिंदू रहते थे. मेरे घर में कुछ मुस्लिम परिवारों को शरण दी गई थी. किसी को यह पता चल गया कि मैं उन्हें अपने साथ रहने दे रही हूं और एक रात जब मैं देर से घर लौटी, कुछ लड़के मेरे घर के बाहर खड़े थे. उन्होंने मुझे बाहर निकल जाने और उस इलाके में आग लगा देने धमकी दी. उनके हाथों में तलवारें थीं. किस्मत से वहां पुलिस समय से आ गई. जिन परिवारों ने मेरे घर में शरण ली थी, वे काफी डर गए थे. उन्होंने मुझसे कहा, ‘अगर आप भी सुरक्षित नहीं हैं, तो हमारा क्या होगा?’

उस रात वह इसलिए बच सकी क्योंकि हत्यारे दंगाई मरियम का पता पूछते हुए घूम रहे थे, जो कि उनका शादी के बाद का नाम था. लेकिन अपने पुराने इलाके में उसे अब भी लीना के नाम से जाना जाता था. एक बार तो वह किसी तरह से मौत के मुंह से बच निकलीं, जब सड़क पर चलते हुए उन्होंने दो लोगों को तमिल में यह कहते सुना कि ‘यह औरत मुस्लिमों की मदद करती है, इसकी हत्या कर देते हैं.’ वे और उनकी सहकर्मी तेजी से वहां से निकल गईं. इस बार उन्हें उनके तमिल भाषा के ज्ञान ने बचा लिया.

कई परिवार, जिनमें हिंदू-मुसलमान दोनों थे,दंगों के दौरान धारावी को छोड़ कर भाग गए. इनमें से कुछ ही फिर वापस लौटे. उनमें से ज्यादातर लोग अपने समुदाय वालों  के साथ रहना पसंद करते हैं. अब एक मिली-जुली आबादी वाले इलाके में रहने से लोगों को डर लगता है और कई हिंदू उस इलाके को छोड़ कर चले गए हैं.

धारावी में भाऊ कोरडे और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में मोहल्ला समितियों का गठन किया था. इसके बारे में एक्टिविस्ट सुशोभा बर्वे ने अपनी किताब ‘हीलिंग स्ट्रीम : ब्रिंगिंग बैक होप इन आफ्टरमैथ और आॅफ वॉयलेंस’ में किया गया है. वे बताती हैं, ‘अब पुलिस शांति बहाल रखने के लिए काम कर रही है और दोनों समुदाय अशांति से बचने के लिए आपस में बातचीत करते हैं, खासकर धार्मिक मौकों पर.’

दंगों ने शहर को बांट दिया था. इसने अलग-अलग समूहों की अलग-अलग बस्तियों को जन्म दिया. भले यह अब एक बंद अध्याय हो, लेकिन इसकी यादें अब भी जिंदा हैं. लोगों के जख्म आज भी पूरी तरह से भरे नहीं हैं.

मीना मेनन पत्रकार और ‘रॉयट्स एंड आफ्टर इन मुंबई’ किताब की लेखिका हैं.

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