‘ऐ बाबू! लिख देना कि बुनकर बर्बाद हो चुके हैं’

बनारस और आसपास के ज़िलों के बुनकरों की गाहे-ब-गाहे चर्चा भी हो जाती है, लेकिन गोरखपुर, खलीलाबाद क्षेत्र के बुनकरों पर तो अब चर्चा भी नहीं होती. ऐसा उद्योग जिसमें लाखों लोगों को रोज़गार मिलता था, अब लगभग ख़त्म होने को है.

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सालों से बंद पड़ीं मशीनें दिखाते बुनकर शमशाद
सालों से बंद पड़ीं मशीनें दिखाते बुनकर शमशाद

गोरखपुर से ग्राउंड रिपोर्ट: बनारस और आसपास के ज़िलों के बुनकरों की गाहे-ब-गाहे चर्चा हो भी जाती है, लेकिन गोरखपुर, खलीलाबाद क्षेत्र के बुनकरों पर तो कोई बात भी नहीं करता. ऐसा उद्योग जिसमें लाखों लोगों को रोज़गार मिलता था, अब अपनी आख़िरी सांसें गिन रहा है.

सालों से बंद पड़ीं मशीनें दिखाते बुनकर शमशाद
सालों से बंद पड़ीं मशीनें दिखाते बुनकर शमशाद

अब्दुल रहमान अपना फलों का ठेला खड़ा करके छांव में बैठे दम ले रहे थे. कुर्ते की जेब से कुछ सिक्के निकाले और उन्हें गिनने लगे. दस से पंद्रह रुपये रहे होंगे. यह शायद फल बिक्री के दौरान मिले हुए फुटकर पैसे होंगे. यह पैसे जितने कम थे, ठेले पर फल भी उतने ही कम थे. करीब दो तीन किलो अनार और इतने ही सेब. उन्होंने पैसा गिनकर कुर्ते की जेब में फिर से डाल दिया और सामने की तरफ़ देखा. मैं सामने खड़ा था लेकिन उन्होंने नज़रअंदाज़ किया और दूर पता नहीं क्या देखने लगे.

उनके चेहरे पर कुछ उदासी और गुस्से का मिलाजुला भाव था. मैं कुछ देर तक तय नहीं कर पाया कि उनसे बात करनी चाहिए या नहीं. अंतत: हिम्मत करके मैं और नज़दीक गया और उनसे पूछा- दादा, यहां पर बुनकरों की बस्ती कहां है? उन्होंने जिज्ञासा भरी निगाहों से मुझे देखा और बोले- क्या जानना है. सामने देखो, वो ठेला खड़ा है. हम यहां बैठे हैं. फल बेच रहे हैं. यही हाल है बुनकरों का. क्या करोगे बुनकरों के बारे में जानकर? मैंने कहा- उनके बारे में लिखना चाहता हूं. वे बोले- ‘ऐ बाबू! लिख देना कि बुनकर बर्बाद हो चुके हैं.’

यह गोरखपुर में गुरु गोरखनाथ मंदिर के मुख्य द्वार के सामने से लगा हुआ पुराना गोरखपुर मोहल्ला है. इस विशाल मंदिर परिसर के गेट के दोनों तरफ क़रीब दो तीन किलोमीटर के इलाक़े में बुनकरों की बस्ती है. अब्दुल रहमान के मुताबिक, किसी ज़माने में इस मोहल्ले में करीब छह हज़ार कारखाने थे. अब 25-30 बचे हैं. अब्दुल रहमान के पास पांच करघा मशीनें थीं. वे काफ़ी पैसे कमा लेते थे. उनके मुताबिक, ‘फल बेचकर बस बच्चों का पेट पालते हैं. वह अपना काम था. चार-छह लोगों को रोज़गार भी दे रहे थे. फल बेचना तो मज़बूरी है. ज़िंदा रहना है तो कुछ तो करना पड़ेगा.’ इतना कहकर वे उठे और अपना ठेला खींचते हुए बस्ती की तरफ चल पड़े.

हम आगे बढ़े तो एक मदरसा था जिससे लगा हुआ एक छोटा क़ब्रिस्तान था. उसकी दीवारें काफ़ी ऊंची थीं. उनमें प्लास्टर भी करवाया गया था और दीवार पर एक बड़े आकार का बोर्ड टंगा था. एक उजड़ते हुए समाज की ज़िंदगी को सुरक्षित करने की जगह उसे पक्की दीवारों वाले क़ब्रिस्तान देने में किसकी दिलचस्पी है?

सालों पहले हथकरघा बंद करके फल ठेला लगा रहे हैं अब्दुल
सालों पहले हथकरघा बंद करके फल ठेला लगा रहे हैं अब्दुल रहमान.

इसी मोहल्ले के रहने वाले मन्नान को इंजीनियर की नौकरी मिली थी. नौकरी करके उन्हें महसूस हुआ कि इस नौकरी से ज़्यादा पैसा उनके पुश्तैनी धंधे में है. वे इंजीनियरिंग छोड़कर वापस आ गए. दस पावरलूम लगाया और परिवार समेत कपड़े के काम में लग गए. यह 80 का दशक था. क़रीब 15 साल बाद बुनकरों पर खुले बाज़ार और उदारीकरण की सुनामी आई तो उसमें मन्नान को पांव टिकाने के लिए ज़मीन नहीं मिली. उनके दसों करघे अंतरराष्ट्रीय समुद्र में बह कर कहां गए, कोई नहीं जानता. मन्नान संपन्न परिवार से थे. उनके पास क़रीब 50 बीघे ज़मीन थी. अब सब बिक चुकी है. मन्नान ने बच्चों को कमाने के लिए शहर भेज दिया है और ख़ुद घर पर रहते हैं. वे पछताते हुए कहते हैं, ‘इंजीनियरिंग नहीं छोड़ा होता तो कम से कम ज़िदगी मुहाल नहीं होती. बुढ़ापे में पेंशन तो मिलती!’

मदरसे के बगल से होते हुए हम आगे बड़े तो पावरलूम की आवाज़ सुनाई पड़ी. एक छप्परनुमा मकान में एक पावरलूम पर एक युवक चादर बुन रहा था. उसने बताया कि ‘हम लोगों ने नेपाल से जुगाड़ कर लिया है. नेपाल में टोपी और गमछे आदि में इस्तेमाल होने वाला कपड़ा बुनते हैं और फिर ले जाकर नेपाल में ही बेच देते हैं. कुछ लोग सूत भी वहीं से ले आते हैं. हमारी अच्छी कमाई हो जाती है.’

घर-घर में चलने वाला बुनकर उद्योग बंद क्यों हो गया, इसके जवाब में पावरलूम और हथकरघा दोनों चलाने वाले शमशाद कहते हैं, ‘सूत हमारी औकात से ज़्यादा महंगा हो गया. सरकार का सूत की महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं रहा. यहां की स्थानीय सूती मिलें खड़ी-खड़ी सड़ गईं. अब दक्षिण भारत से सूत आता है, वह काफ़ी महंगा पड़ता है. सूत का जो बंडल हमें पांच सौ में मिलता था, नई सरकार आने के बाद अब सात सौ का मिलने लगा. सूत महंगा है लेकिन तैयार कपड़ा महंगे दाम में कोई ख़रीदने को तैयार नहीं है. महंगाई के हिसाब से ख़रीद नहीं हो पाती. लिहाजा हम घाटे में चले जाते हैं.’

हथकरघा और पावरलूम उद्योग को क़रीब से जानने वाले वसीम अकरम ने बताया, ‘तीन तरह के बुनकर हैं. एक खादी बुनकर हैं जो हथकरघे से बुनाई करते हैं. दूसरे बनारसी साड़ी बुनकर हैं, वे हथकरघे से बुनाई करते हैं. तीसरे टेक्सराइज मसराइज की साड़ी और दूसरे कपड़ों के बुनकर हैं, जो बिजली से चलने वाले पावरलूम से बुनाई करते हैं.’ शमशाद के मुताबिक, ‘पुराना गोरखपुर में करीब चार लाख बुनकर हुआ करते थे. 1995 के बाद संकट शुरू हुआ. चीन के लिए बाज़ार खोल दिया गया और उसने हमारे बाज़ार में घुसकर होजरी के सस्ते सामान ठूंस दिए. अब जो कपड़ा हम सौ रुपये की लागत से तैयार करते हैं, वही कपड़ा चीन 80 रुपये में बेच रहा है. हमारी लागत ज़्यादा है. सरकार ने हमें मरने के लिए छोड़ दिया.’

पुराना गोरखपुर के एक घर में बंद पड़े पावरलूम और हथकरघे.
पुराना गोरखपुर के एक घर में बंद पड़े पावरलूम और हथकरघे.

बीती 25 फरवरी को बसपा प्रमुख मायावती ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वे पूर्वांचल को अलग राज्य बनाएंगी और बुनकरों की समस्या का समाधान करेंगी. लेकिन बुनकरों की समस्या के समाधान का वादा करने वाली मायावती अकेली नहीं हैं. प्रधानमंत्री बनने के पहले नरेंद्र मोदी भारतीय बुनकरों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार उपलब्ध करने का वादा कर चुके हैं, लेकिन तीन साल की सरकार में ऐसा कुछ नहीं हुआ है. उनके कार्यकाल में ही सूत महंगा हो गया है.’

पुराना गोरखपुर में ही पावरलूम चलाने वाले यूसुफ़ ने कहा, ‘जो कुछ लोग अब भी पावरलूम या बुनकरी के काम से जुड़े हैं, वे अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए इससे चिपके हैं. हमारे लिए यह सम्मान की बात थी कि घर में कारखाना होता था. दो, चार, छह, दस मशीनें लगाकर काम करते थे और दूसरे लोगों को भी रोज़गार देते थे. अब ख़ुद ही मालिक हैं, ख़ुद ही मज़दूर हैं. जो पैसा मज़दूर को देना है, वह बच जाता है. वही अपनी कमाई है.’

शमशाद मुझे एक बीस पावरलूम मशीनों वाले बड़े से हॉल में ले गए. सब मशीनों में जंग लग गई थीं. वे सालों से चली नहीं थीं. उन मशीनों को देखकर लाखों की संख्या में बेरोज़गार हुए लोगों की हालत का अंदाज़ा लग रहा था. मोहल्ले में कुछ-कुछ दूर चलने पर पावरलूम की आवाज़ सुनाई पड़ जाती थी. कुछ घरों में अब भी बुनाई हो रही है. बुनकरों की बस्ती के युवा और जवान रिक्शा चलाने, ठेला लगाने, या मज़दूरी करने के लिए शहर जा चुके हैं.

बुनकर उद्योग क्यों बर्बाद हुआ? इसके जवाब में वसीम अकरम ने बताया, ‘तमाम वजहे हैं, जैसे-बिजली कटौती, नेत‍ृत्वविहीन बुनकर समाज को कोई सरकारी मदद न मिलना, समय-समय पर सांप्रदायिक दंगों की वजह से व्यापारियों द्वारा माल न ख़रीदना, कम मज़दूरी और हाड़तोड़ मेहनत, आर्थिक नीतियों में बुनकरों के लिए कोई जगह न होना, बुनी हुई साड़ियों के निर्यात में तमाम अड़चनों के चलते गोदामों में कपड़ों का बर्बाद हो जाना. ऐसे अनेक मसले हैं, जिनसे पूरा बुनाई उद्योग जूझता चला आ रहा है. अगर इन सबसे जूझकर भी बुनकर कपड़ा बुनने में कामयाब हो भी जाते हैं, तो भी उन्हें उनकी क़ीमती साड़ियों के मुक़ाबले अहमदाबाद की सस्ती साड़ियां मार देती हैं.’

पुराना गोरखपुर में रहने वाले अध्यापक रामसेवक ने बताया, ‘आम तौर पर इस पेशे में हिंदू नहीं होते, लेकिन मैं अध्यापन के साथ बुनकरी से जुड़ा हुआ था. क्योंकि यह फ़ायदे का कारोबार था. लेकिन अब सब ख़तम हो चुका है. अब बुनकरों की गुलज़ार दुनिया उजड़ चुकी है.’

(बुनकरों की समस्याओं पर यह हमारी पहली किस्त है. यह सीरीज़ जारी रहेगी.)