संस्कृति का बखान करने वाले आधी आबादी के मुद्दों पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं?

यह कैसा समाज है जहां जीवित इंसान की कोई कीमत नहीं पर मृत व्यक्ति के सम्मान की रक्षा के नाम पर लोग सड़क पर उतर आते हैं, तोड़-फोड़ करते हैं, यहां तक कि हिंसा करने से भी नहीं चूकते.

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Jaipur: A Muslim woman shopping for the upcoming Eid-ul-Fitr festival at Ramganj Bazar in Jaipur on Thursday. PTI Photo(PTI6_22_2017_000148B)

यह कैसा समाज है जहां जीवित इंसान की कोई कीमत नहीं पर मृत व्यक्ति के सम्मान की रक्षा के नाम पर लोग सड़क पर उतर आते हैं, तोड़-फोड़ करते हैं, यहां तक कि हिंसा करने से भी नहीं चूकते.

Jaipur: A Muslim woman shopping for the upcoming Eid-ul-Fitr festival at Ramganj Bazar in Jaipur on Thursday. PTI Photo(PTI6_22_2017_000148B)
प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई

यह कैसा समाज है जहां जीवित इंसान की कोई कीमत नहीं पर मृत व्यक्ति के सम्मान की रक्षा के नाम पर लोग सड़क पर उतर आते हैं, तोड़-फोड़ करते हैं, यहां तक कि हिंसा करने से भी नहीं चूकते.

इतिहास का हवाला देते हैं और नारी की प्रतिष्ठा के साथ कोई छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं की जाएगी का नारा बुलंद किया जाता है.

परन्तु तब क्या हो जाता है जब राजस्थान के झालावाड़ में 7 वर्षीय नाबालिग के साथ उसके ही पिता ने दुष्कर्म किया तो कही कोई शोर नहीं हुआ.

गुड़गांव में 16 साल की लड़की जो एक अस्पताल में इलाज के दौरान बिस्तर पर लाचार पड़ी थी, उससे दो पुरुष नर्सों ने दुष्कर्म का प्रयास किया.

दिल्ली के मैक्स अस्पताल ने समय से पहले पैदा हुए दो जुड़वां बच्चों को मृत बताकर पॉलिथीन बैग में डालकर उन्हें अभिभावकों को सौंप दिया. उनका अंतिम संस्कार करते समय पता चला कि उनमें से एक बच्चा जीवित है.

कोलकाता के एक प्रतिष्ठित स्कूल में चार साल की बच्ची से दुष्कर्म करने का मामला सामने आया, क्यों तब लोगों का खून नहीं खौलता, उनके पक्ष में विरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं देता, क्यों?

हाल ही में एनसीआरबी के द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि 2015 के मुकाबले 2016 में बलात्कार की घटनाओं में 12.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में 2.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. ये घटनाएं कभी इस कथित सभ्य समाज की परेशानी या चिंता का सबब क्यों नहीं बनती?

संविधान दिवस, मानवाधिकार दिवस, बाल दिवस, महिला दिवस, बालिका दिवस और भी न जाने कितने दिवस एक नियत तिथि को मनाकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करता यह समाज ख़ुद पर गौरवान्वित होता नज़र आता है.

समाज अपने इतिहास, सभ्यता, संस्कृति का बखान करते नहीं थकता पर इसमें रहने वाली ‘आधी आबादी’ को तो इंसान का दर्जा भी प्राप्त नहीं उसका क्या?

वह तो रोज़ गली, सड़क, दफ्तर, घर में किसी न किसी के द्वारा शोषण का शिकार बनती नज़र आती है, फिर चाहे वह 2 महीने की नवजात हो या 3 साल या 12 साल या फिर 60 साल. फिर न उसका धर्म मायने रखता है, न जाति, न भाषा, न और कुछ.

शायद इसीलिए कोई राजनीतिक दल या दबाव समूह भी कोई आंदोलन नहीं करता, न समाज के लोग धरना-प्रदर्शन करते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि 2016 में एक दिन में बलात्कार की 106 घटनाएं रिकॉर्ड की गईं और बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में पिछले वर्ष की तुलना में 82 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई.

हम स्वयं को पशु जगत से श्रेष्ठ सिद्ध करते आए हैं पर क्या सच में हम हैं? निश्चित रूप से पशु-पक्षी भी किसी अन्य प्राणी के बच्चों की सुरक्षा के लिए ख़ुद की जान जोख़िम में डालने से नहीं चूकते, हम से ज़्यादा संवेदना और मानवता तो उनमें नज़र आती है.

हम मनुष्य विकसित मस्तिष्क का दावा तो करते हैं पर तर्कहीनता, संवेदनहीनता, अमानवीयता के लक्षण हम में घर कर चुके हैं. यह किस तरह की चुप्पी है?

अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘आर्गुमेंटेटिव इंडियन’ में उल्लेख किया है कि भारत में ‘तार्किक परंपरा’ का एक लंबा इतिहास रहा है. भारतीय महाकाव्य भी यह सिद्ध करते हैं कि भारतीयों को बोलना बहुत पसंद है, फिर उपरोक्त घटनाओं पर चुप्पी क्यों?

ऐसा कहा जाता है कि विश्व में न्यूज़ीलैंड पहला देश बना जिसने 1894 में महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया, उसके बाद 1914 में फिनलैंड और नार्वे ने, 1920 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने और 1928 में ब्रिटेन ने महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया.

महिलाओं को मानसिक रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सशक्तिकरण की पुरज़ोर वकालत की गई.

एंगेल्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द ओरिजिन ऑफ द फैमिली प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट’ में महिलाओं के दमन का मूल कारण निजी संपत्ति और पूंजीवाद के विकास को बताया.

उनके अनुसार महिलाओं का शारीरिक और लैंगिंक श्रम संतान उत्पत्ति, परिवार और निजी संपत्ति की देखभाल के लिए उपयुक्त माना जाता है.

निजी संपत्ति की संस्था के उदय और पुरुषों के हाथ में संपत्ति की स्थापना ने महिलाओं के अस्तित्व की पहचान को हाशिये पर ला दिया.

ज्ञान के प्रभावशाली वाद-विवाद से महिलाओं को सदैव ही बाहर रखा गया ताकि उनकी आवाज़ को दबाया जा सके.

यह एक तथ्य है कि महिलाओं और पुरुषों में समानता होनी चाहिए परन्तु समानता सिर्फ नाममात्र की नहीं बल्कि वास्तविक रूप से होनी चाहिए.

साथ-साथ समाज/परिवार में महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति और यौनिक-इच्छापूर्ति का साधन माने जाने की सोच को बदलने की ज़रूरत है.

पुरुष द्वारा अपनी हर इच्छा उस पर थोप दी जाती है. ऐसे में महिलाएं अपने-आपको परिवार में सुरक्षित महसूस नहीं करती है.

अब समय आ गया है कि समाज की दोहरी मानसिकता को बदला जाए. महिला कोई वस्तु या शरीर मात्र नहीं है अपितु एक स्वतंत्र, जीवंत, बुद्धिजीवी सामाजिक इकाई है जिसे सम्मान पूर्ण जीवन जीने का समान अधिकार प्राप्त है.

(ज्योति सिडाना कोटा में समाजशास्त्र की शिक्षक हैं.)

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