वन अधिकार कानून ने आदिवासियों को अतिक्रमणकारी होने के कलंक से मुक्त किया

ग्यारह साल पहले इस क़ानून के पारित होने के बाद से आदिवासी समुदाय इस दिन को एक उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं.

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फोटो: द वायर/कृष्णकांत

ग्यारह साल पहले इस क़ानून के पारित होने के बाद से आदिवासी समुदाय इस दिन को एक उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं.

फोटो: द वायर/कृष्णकांत
फोटो: द वायर/कृष्णकांत

वन अधिकार कानून के नाम से प्रचलित ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006’ की आज ग्यारहवीं वर्षगांठ है. 15 दिसंबर, 2006 को यह कानून अपने मौजूदा स्वरूप में लोकसभा में पारित हुआ था. देश के आदिवासी व जंगल बहुल क्षेत्रों में इस दिन को बीते दस सालों से लोग एक उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं.

यह कानून भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता और संवेदनशीलता की एक नायाब मिसाल के तौर पर प्रत्यक्ष रूप से देश की कुल जनसंख्या की 20 प्रतिशत आदिवासी आबादी और जंगलों पर आश्रित समुदायों के ‘इज्ज़त से जीने के अधिकार’ की रक्षा के लिए संसद ने पारित किया.

इस कानून से पहले तक सदियों से जंगल और वन्य जीवों के साथ साहचर्य के साथ रहते आए आदिवासियों और अन्य आबादी को ‘अतिक्रमणकारियों’ के रूप में देखा जाने लगा था. इस झूठे अफसाने की पृष्ठभूमि अंग्रेजों ने लिख दी थी. उनके लिए जंगल इमारती लकड़ी और वनोपज के व्यवसायिक दोहन के एक अकूत खजाने की तरह था.

बाद में हमारी तथाकथित आधुनिक और मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था ने जंगल में घने पेड़ों और उनमें रहने वाले वन्य जीवों के प्रति तो हमारे आकर्षण को बनाये रखा पर कई पीढ़ियों के ज़हन से यह एक तथ्य सायास भुलाने में बड़ी भूमिका अदा की कि इन जंगलों में मनुष्य भी रहते हैं जो आदि काल से इन पेड़ों और जंगली जानवरों के साथ साहचर्य के साथ रहते आए हैं.

इस कानून के माध्यम से इस तथ्य को फिर से सामूहिक स्मृति में लाया गया कि जंगलों, वन्य जीवों और मनुष्य का एक आपसी रिश्ता रहा है और यह रिश्ता आपसी टकराहट का कम, दोस्ती का ज्यादा रहा है. इसे ‘अन्योन्याश्रित संबंध’ की तरह देखा जा सकता है, जहां किसी एक के बिना दूसरे का वजूद संभव न हो.

एक शताब्दी से अधिक समय से वन प्रबंधन के नाम पर वन आधारित समुदायों को वनों से पृथक कर वनों पर शासकीय नियंत्रण की व्यवस्था को बदलकर वन संसाधनों के प्रबंधन की जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना इस कानून का मूल उद्देश्य या भावना रही है.

यह कानून न केवल वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन संसाधनों पर उनके मौलिक अधिकारों की पुष्टि करता है बल्कि वन, वन्य जीव, जैव विविधता संरक्षण के प्रति समुदायों के दायित्वों को भी सुनिश्चित करता है.

इस तरह से यह कानून वन संरक्षण के नज़रिये से भी ऐतिहासिक महत्व का है. इस कानून ने वन प्रबंधन की औपनिवेशिक अवधारणा और राज्य के एकाधिकार को बदलते हुए इसे जनतांत्रिक व्यवस्था के रुप में पुन: प्रतिष्ठित किया.

हालांकि भारत की संसद ने जंगल में बसने वाले अपने नागरिकों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को तो स्वीकार किया, पर ये अन्याय कैसे होते रहे और किसने किए, इन सवालों पर मौन रही. जो व्यवस्थाएं, एजेंसियां, और विधान इस अन्याय के लिए जिम्मेदार रहे उनकी जवाबदेही तय नहीं की गई.

हालांकि इन बीस प्रतिशत नागरिकों के लिए अतिक्रमणकारी होने के कलंक से मुक्त करने और उनके अधिकारों को मान्यता देने की पहल के सामने यह एक प्रश्न गौण रह गया जिसके नकारात्मक असर इस कानून के क्रियान्वयन के दौरान होने तय थे और आज इस कानून की ग्यारहवीं वर्षगांठ मनाते समय ये हमारे सामने हैं.

इस कानून के माध्यम से भारत के संविधान द्वारा दिए गए उस आश्वासन को पूरा होना था जो उसने देश के हर नागरिक से किया था. वह था ‘इज्ज़त के साथ जीवन जीने का अधिकार’. विशेष रूप से अपने उन नागरिकों से जिन्हें औपनिवेशकाल से लेकर आज़ाद भारत में भी उन्हीं कानूनों के तहत तमाम हक-हुकूकों से वंचित रखा गया था.

संविधान की पांचवीं और छठवीं अनुसूची के क्षेत्रों में बसे नागरिकों की स्वायत्त और परंपरागत जीवन शैली को अक्षुण्ण रखना था जो मूलत: जंगल बहुल क्षेत्र में जंगलों के इर्द-गिर्द हैं. इसके लिए वन प्रबंधन के औपनिवेशिक और आरोपित व्यवसायिक उद्देश्यों को बदलकर इस काम में नैसर्गिक रूप से दक्ष अपने ही नागरिकों में भरोसा जताने की ज़रूरत थी, उन्हें अपने जंगलों पर हक-हुकूकों के साथ-साथ ज़रूरी सुविधाएं प्रदान करने की भी प्राथमिकताएं तय करने की थी.

देश के इन बीहड़ इलाकों में ‘बीट गार्ड’ (वन विभाग के सबसे निचले पायदान के कर्मचारी) से डरे हुए नागरिकों को यह विश्वास दिलाने की थी कि यह जंगल आपका है और आपको ही इसका प्रबंधन, संरक्षण व पुनरुत्पादन करना है, जैसा आप सदियों से करते आए हैं.

इस संदर्भ में एडवोकेट अनिल गर्ग जैसे मौलिक अध्येता कहते हैं कि ‘सबसे पहले ‘जंगल’ की मौलिक अवधारणा को ‘वन’ की कृत्रिम व व्यवसायिक अवधारणा से मुक्त करना था. वन प्रबंधन की औपनिवेशिक व आरोपित दृष्टि ने ‘नैसर्गिक जंगलों’ को ख़त्म करके उन्हें ‘कृत्रिम वनों’ में बलात तब्दील करने का ही काम किया.’

यह एक युगांतरकारी परिघटना थी जिसे देश के सबसे बड़े जमींदार ‘वन विभाग’ को गांव व्यवस्था की सांवैधानिक इकाई ‘ग्रामसभा’ के मातहत लाना था, उसके वर्चस्व को प्रजातांत्रिक दायरे में लाना था पर यह आज दस साल बाद भी होते दिखता नहीं है.

कानून बना देने के बाद खुद संप्रग सरकार ने पूरे आठ-नौ साल के लंबे दौर में स्वत:संज्ञान लेकर इसके समुचित क्रियान्वयन पर कोई ठोस काम नहीं किया. वाबजूद इसके यह कानून जंगल की औपनिवेशिक प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ एक जनतांत्रिक हथियार के रूप में जंगल पर आश्रित समुदायों के हाथ में आया और तमाम स्तरों पर सक्रिय जन संगठनों ने इसके बल पर इस चली आ रही व्यवस्था को चुनौती दी.

जंगलों में बसे और उन पर आश्रित समुदाय इस कानून को एक ताबीज की तरह इस्तेमाल करते हैं. इस कानून ने एक वृहत आबादी के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया है जिसका असर भी देखा जा सकता है.

गौरतलब है कि इस कानून के प्रचार-प्रसार में केंद्र सरकार व राज्य सरकारों ने बहुत सक्रियता नहीं दिखाई पर यह लोगों की जिंदगियों से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ था इसलिए इसे हाथों हाथ लिया गया. इस कानून की कई महत्वपूर्ण धाराएं इन समुदायों की जुबान पर हैं.

आज जब दस साल बाद हम इस कानून के प्रदर्शन का आंकलन करते हैं तो केवल निराशा ही हाथ लगती है. सीएफआर-एलए, जन संगठनों व गैर सरकारी संगठनों का एक नेटवर्क है जिसने पिछले साल, इस कानून के दस सालों के क्रियान्वयन पर एक लेखा-जोखा (प्रॉमिसेस एंड परफॉरमेंस) प्रकाशित किया था, जिसमें यह बताया गया कि ‘इन दस सालों में इस कानून में निहित संभावनाओं का मात्र 3 प्रतिशत ही हासिल किया जा सका है.’

इस दस्तावेज़ में देश के तमाम राज्यों को प्रदर्शन के आधार पर तीन श्रेणियों में रखा गया है- क्रियान्वयन में बेहद पिछड़े राज्य, जिनमें बिहार, असम, गोवा, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब और सिक्किम हैं.

क्रियान्वयन के निम्न स्तर में, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और झारखंड हैं और अपेक्षाकृत बेहतर क्रियान्वयन करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र, ओडिशा, केरल और गुजरात रहे हैं लेकिन केवल पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में.

उल्लेखनीय है कि इस दस्तावेज़ में दिए गए आंकड़े इस कानून के क्रियान्वयन की नोडल एजेंसी- आदिवासी मामलों के मंत्रालय को विभिन्न राज्यों द्वारा प्रतिवेदित किए गए आंकड़ों पर आधारित हैं.

इस दस्तावेज़ में इस कानून के क्रियान्वयन के इतने खराब प्रदर्शन के कारणों का भी उल्लेख किया गया है जिनमें सबसे पहले केंद्र व राज्य सरकारों में राजनैतिक इच्छा शक्ति को बताया गया है. इसके अलावा नोडल एजेंसी को पर्याप्त महत्व न दिया जाना, वन एवं पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा इस कानून को तरजीह न देना, संयुक्त वन प्रबंधन को प्राथमिकता देते हुए कमपनसेट्री अफॉरेस्टेशन को बढ़ावा देना व केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा इस कानून के क्रियान्वयन व मॉनिटरिंग के लिए न के बराबर संसाधन खर्च करना इसके कारण रहे.

इन कारणों के साथ-साथ आजादी के बाद ही 1950 में भूमि सुधार के उद्देश्य से बने मालगुजारी-ज़मींदारी उन्मूलन कानून के अमल में आने के बाद से एक ही ज़मीन को वन विभाग व राजस्व विभाग अपने-अपने अभिलेखों में दर्ज करते रहे और उसी ज़मीन पर समानांतर कार्यवाहियां होतीं आईं.

इससे सामुदायिक अधिकार व निस्तार की ज़मीनों को सदियों से बसे समुदायों की पहुंच से दूर किया जाता रहा. इस कानून के तहत अपने अधिकारों को मान्य कराने की प्रक्रिया में जब दावेदार से प्रमाण पेश करने को कहा जा रहा है तब वह इन समानांतर कार्यवाहियों से अनभिज्ञ अपने फौरी अधिकारों के प्रमाण ही किसी तरह जुटा पा रहा है. जिसमें स्थिति बहुत भ्रामक हो जा रही है.

जो ज़मीन वन भूमि के तौर पर दर्ज है और इस कानून के तहत दावेदार को मिलनी चाहिए वह ज़मीन राजस्व के दस्तावेज़ में भी दर्ज है और उस ज़मीन का चरित्र ही बदल जा रहा है.

बकौल श्री अनिल गर्ग- ‘विशेष रूप से मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में ऐसी करीब 80 लाख हेक्टेयर ज़मीनें हैं जो विवादित हैं और अगर ऐतिहासिक तथ्यों पर जाएं तो मूलत: सामुदायिक निस्तार की ही ज़मीनें हैं जिन्हें वन अधिकार कानून के तहत राज्य सरकारें, अपने ही अभिलेखों को प्रमाण मानकर समुदायों को तत्काल प्रदान कर सकती हैं. लेकिन दावे की प्रक्रिया को जान-बूझकर जटिल और हतोत्साहित करने का एक औज़ार बना दिया गया है.’

हालांकि इस कानून ने जंगल की ज़मीन का गैर-जंगल उपयोग के लिए डायवर्जन को बहुत दुरूह बना दिया जो अब देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में बाहरी पूंजी निवेश पर आधारित हमारी नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह में एक बड़ी बाधा के तौर पर देखा जा रहा है इसलिए केंद्र व राज्य सरकारों की हर संभव कोशिश इस कानून को कमज़ोर करने की दिख रही है.

हाल ही में कमपनसेट्री अफॉरेस्टेशन के तहत 47000 करोड़ रुपये जंगल पर आश्रित समुदायों के हक-हकूकों की ज़मीनों पर वृक्षारोपण करने के इरादे से आबंटित किया गया है. वन्य जीवों के लिए संरक्षित वन क्षेत्रों में इस कानून का अमल अभी भी न के बराबर है और लोगों को विस्थापित करने की प्रक्रिया जबरन जारी है.

ऐसे में इस कानून की ग्यारहवीं वर्षगांठ पर यह कहना मुनासिब होगा कि ऐतिहासिक अन्याय को दुरुस्त करने के लिए समय की डोर पकड़कर उतने पीछे तक जाना था जहां अन्याय की शुरुआत हुई. कल हुए अन्याय को आज में दुरुस्त करना न्याय की उम्मीद को फिर से ठंडा करना भर है… और कुछ नहीं.

(सत्यम श्रीवास्तव सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं.)