उत्तर प्रदेश में ऊदल की विरासत बचाने में नाकाम रहे वामदल

ग्राउंड रिपोर्ट: ऊदल कम्युनिस्ट पार्टी के लोकप्रिय नेता थे. उन्होंने बनारस की कोलअसला विधानसभा सीट से नौ बार चुनाव जीतकर कीर्तिमान बनाया था लेकिन यह सब गुज़रे ज़माने की बात है.

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ग्राउंड रिपोर्ट: ऊदल कम्युनिस्ट पार्टी के लोकप्रिय नेता थे. उन्होंने बनारस की कोलअसला विधानसभा सीट से नौ बार चुनाव जीतकर कीर्तिमान बनाया था लेकिन यह सब गुज़रे ज़माने की बात है.

Udal Verma, Banaras
ऊदल ने बनारस की कोलअसला विधानसभा सीट से नौ बार चुनाव जीतकर कीर्तिमान बनाया था.

‘मेरे पिता इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने कभी पेंशन नहीं ली. एक बार जब बीमार पड़े तो मुलायम सिंह ने पैसा भिजवाया, तब उन्होंने मना कर दिया. कहा, ऊदल अपने जीते जी लोगों के टैक्स का पैसा अपने ऊपर बर्बाद नहीं करेगा. वे परिवार की राजनीति नहीं चाहते थे. इसलिए कभी हमें राजनीति में रुचि नहीं लेनी दी.’

ये बात हमें कम्युनिस्ट पार्टी से नौ बार वाराणसी की कोलअसला सीट से विधायक रहे ऊदल वर्मा के बेटे छोटेलाल ने बताई.

बनारस की पिंडरा बाज़ार से तीन किमी. दूर सरैंया गांव में ऊदल का घर है. उनकी मौत 2005 में हो गई थी. जिस तरह के धनपतियों का उत्तर प्रदेश की राजनीति में बोलबाला है उसे देखकर उनका घर किसी आम आदमी का घर होने का भ्रम पैदा करता है.

ये अजब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में 1957 में कम्युनिस्ट पार्टियों का खाता धार्मिक नगरी बनारस से खुला. कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ऊदल ने बनारस की कोलअसला सीट से जीत हासिल की. एक निर्वाचन क्षेत्र, लाल निशान, नौ बार जीत और सिद्धांतों से समझौता न करने का जो कारनामा ऊदल ने कर दिखाया, वह उत्तर प्रदेश की राजनीति में दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन यह गुज़रे ज़माने की बात है.

ऊदल के दौर में यह नारा चलता था कि नेताजी को लाल बत्ती से नहीं लाल झंडे से प्यार है, लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश की तरह कोलअसला में लाल झंडे की प्रतिष्ठा बरक़रार नहीं रह पाई है.

बनारस के नज़दीक फूलपुर के देवराई गांव में पैदा हुए ऊदल के नाती अजय वर्मा ने अब भाजपा का दामन थाम लिया है. वे मोदी के करिश्माई नेतृत्व में अपना और देश का भविष्य तलाश रहे हैं.

अजय कहते हैं, ‘दादा जी के जाने के बाद इस इलाके से या कहें पूरे प्रदेश से वामपंथ का जनाधार खिसक चुका है. 60 से लेकर 90 के दशक में बनारस में वामपंथ की जो प्रतिष्ठा थी, वह बरकरार नहीं रही. अब हम आगे की सोच रहे हैं. हम अपने दादा जी के आदर्शों पर चलेंगे. सिद्धांतों से समझौता नहीं होगा लेकिन अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व हमें प्रभावित करता है. इसलिए एक कार्यकर्ता के रूप में हम भाजपा के साथ है. इसके अलावा किसी बड़े वामपंथी नेता ने मुझसे संपर्क भी नहीं किया.’

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाकपा, माकपा, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया-कम्युनिस्ट (एसयूएसआईसी) भाकपा-माले और फॉरवर्ड ब्लॉक मिलकर प्रदेश की कुल 140 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. इनमें 68 सीटों पर भाकपा, 26 पर माकपा, फॉरवर्ड ब्लॉक और एसयूएसआईसी सात-सात और भाकपा-माले 32 सीटों पर मैदान में है.

वहीं दूसरी ओर पिंडरा (पहले कोलअसला) से कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार श्यामलाल मैदान में हैं. कम्युनिस्ट पार्टी से एक बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुकी ऊदल की बेटी रमा देवी उनके साथ जोर-शोर से प्रचार में लगी हुई हैं.

Left Parties
(प्रतीकात्मक फोटो साभार: http://2.bp.blogspot.com)

रमा कहती हैं, ‘मेरे पिता ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. उनकी राह मैंने ही पकड़ रखी है. अब परिवार के दूसरे लोग जहां जाना चाहते हैं, उन पर मैं कुछ नहीं कह सकती. श्यामलाल यहां से हमारे प्रत्याशी हैं और हम उन्हीं के प्रचार में लगे हुए हैं. मेरे लिए पिता का मान-सम्मान बनाए रखने की चुनौती है. लोग भले ही बेटियों को पिता का उत्तराधिकारी न मानें लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है.’

रमा आगे कहती हैं, ‘मुझे विभिन्न राजनीतिक दलों से बहुत सारे आॅफर आए. सपा, बसपा, अपना दल के नेता हमेशा मुझे अपनी पार्टी में शामिल होने के लिए कहते रहे, लेकिन मुझे अपने पिता की विरासत को जिंदा रखना है. मैं इन दलों की जातिवादी राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहती हूं.’

अब बात ऊदल की करते हैं. 1952 में जब उत्तर प्रदेश में पहला चुनाव हुआ तो इस विधानसभा का नाम वाराणसी पश्चिम था. ऊदल वर्मा इस चुनाव में कांग्रेस के देवमूर्ति शर्मा से हार गए थे. हालांकि पांच साल बाद इस विधानसभा सीट का नाम बदलकर कोलअसला कर दिया गया.

तब कम्युनिस्ट पार्टी के ऊदल ने कांग्रेस उम्मीदवार लालबहादर सिंह को पराजित करके प्रदेश में वामपंथ का खाता खोला था. तब से लेकर 1996 तक ऊदल यहां से चुनाव लड़ते रहे. इस बीच उन्होंने नौ बार जीत हासिल की. इस बीच 1969, 1985 और 1996 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. हालांकि 1996 के बाद उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा.

ऊदल के मित्र 80 वर्षीय लाल बहादुर ने बताया, ‘नेताजी की बात अलग थी. इस इलाके में वह सबके लिए सुलभ रहते थे. किसी को कोई भी काम हो ऊदल तुरंत करा देते थे. हालांकि वह जाति-धर्म में विश्वास नहीं करते थे लेकिन उनकी जीत में यह कुर्मी बाहुल्य आबादी भी बड़ा कारण होती है. अगर उनके किए गए कामों की चर्चा करें तो भूमि सुधार उनका सबसे बड़ा काम था. इसके अलावा खेती किसानी के लिए नलकूप और सड़कें प्रमुख हैं.’

कई दशकों से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लाल बहादुर कहते हैं, ‘बनारस या पूरे उत्तर प्रदेश में वामपंथ अब बीते समय की बात हो गई है. तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है. कभी बनारस के गोदौलिया चौराहे पर द रेस्टुरेंट के ऊपर सीपीआई का दफ्तर हुआ करता था. यह वह दौर था जब चंद्रबली सिंह, रुस्तम सैटिन, राजकिशोर, झारखंडे राय जैसे दिग्गज वामपंथी नेता बनारस की गलियों में घूमते नज़र आते थे. एक वक़्त था जब कम्युनिस्ट पार्टी से नामवर सिंह जैसा लेखक भी चंदौली लोकसभा से चुनाव लड़ा था, हालांकि उन्हें हार मिली थी.’

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में वामपंथी दलों के इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1957 के विधानसभा चुनाव में भाकपा ने एक सीट जीती थी. बाद में उसका ग्राफ तेजी से चढ़ा और पांच साल बाद हुए चुनाव में उसे 14 सीटें मिलीं.

साल 1967 में हुए चुनाव में उसे 13 सीटें मिलीं जो 1974 के चुनाव में बढ़कर 16 हो गईं. इस बीच माकपा वर्ष 1974 से 1996 तक एक से चार सीटें जीतती रही. हालांकि वर्ष 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में इन दोनों वामदलों का खाता नहीं खुला.

लाल बहादुर कहते हैं,‘वामपंथ उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है. कुछ दिन पहले महासचिव अतुल अंजान आए थे बनारस चुनाव प्रचार करने के लिए, लेकिन इससे कुछ नहीं होने वाला है. अभी वामपंथ की सारी ताकत अवसरवादियों के साथ एकता बनाने में चली गई है.’

वे आगे कहते हैं, ‘आज नवउदारवाद, धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ वामपंथ के नेतृत्व की सख्त जरूरत है. एक तरह से कहें कि वामपंथी राजनीति की सबसे उर्वर जमीन अभी है, यह उनके पुनर्जीवन का आधार बनता, लेकिन आज के नेतृत्व को शायद उत्तर प्रदेश दिखाई नहीं पड़ रहा है. ऐसे में ऊदल जैसे नेताओं की जरूरत बहुत महसूस हो रही है.’

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