‘बीसीसीआई में अयोग्यों को बढ़ावा दे रहे हैं विनोद राय’

बीसीसीआई में बीते 5 सालों से जारी उठापटक के मूल में बिहार क्रिकेट का मुद्दा रहा है. क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार के सचिव आदित्य वर्मा से बातचीत.

/

बीसीसीआई में बीते 5 सालों से जारी उठापटक के मूल में बिहार क्रिकेट का मुद्दा रहा है, जिसके चलते क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (कैब) के सचिव आदित्य वर्मा 2007 से अदालत में बोर्ड के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंके हुए हैं. यह उनकी ही याचिका का परिणाम था कि बोर्ड से एन श्रीनिवासन की छुट्टी हुई और लोढ़ा समिति का गठन हुआ. उनसे बातचीत.

Aditya Verma CAB FB
आदित्य वर्मा (फोटो साभार: फेसबुक)

देश में क्रिकेट का कर्ता-धर्ता भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) इस वक्त अपने इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है, जहां सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित लोढ़ा समिति द्वारा बोर्ड के कामकाज और प्रशासनिक ढांचे में सुधार एवं पारदर्शिता लाने को लेकर की गयी सिफारिशों को लागू करना उसके गले की हड्डी बना हुआ है.

आईपीएल में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए बोर्ड ने वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था, जिसे देश में क्रिकेट संचालन में सुधार की गुंजाइशें तलाशने का काम सौंपा गया था ताकि देश में धर्म माने जाने वाले इस खेल को भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जा सके. जनवरी 2016 में समिति ने 159 पृष्ठीय रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी, जिसमें बीसीसीआई की कार्यप्रणाली पर कई गंभीर सवाल उठाए गए और सुधार हेतु अनेक सिफारिशें की गयीं.

18 जुलाई 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने समिति द्वारा की गयी सभी सिफारिशों को स्वीकार करते हुए बोर्ड पदाधिकारियों को आदेश दिया कि जल्द से जल्द इन्हें लागू किया जाये. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजतन सर्वोच्च न्यायालय ने बीते वर्ष तत्कालीन बोर्ड अध्यक्ष अनुराग ठाकुर को पद से हटा दिया और 30 जनवरी 2017 को बोर्ड के कामकाज देखने एवं लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू करने के लिए पूर्व कैग विनोद राय की अध्यक्षता में एक क्रिकेट प्रशासक समिति (सीओए) का गठन किया.

इस पूरी कवायद के बाद भी अब तक लोढ़ा समिति की सिफारिशें बीसीसीआई में लागू नहीं हो पाई हैं. सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख और बोर्ड के पदाधिकारी बदले जाने के बाद भी सिफारिशें लागू करने को लेकर बोर्ड अड़ियल रुख अपनाए हुए है. इस बीच वह बार-बार सुप्रीम कोर्ट से फटकार भी खा रहा है और हर सुनवाई में कानूनी मोर्चे पर मुंह की भी खा रहा है.

इस बीच बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने बोर्ड को आदेश दिया है कि वह बिहार राज्य को क्रिकेट बोर्ड के पूर्ण सदस्य का दर्जा दे और रणजी ट्रॉफी सरीखी राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं में बिहार की टीम का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करे.

गौरतलब है कि बीसीसीआई में लगभग बीते 5 सालों से जारी उठापटक के मूल में बिहार क्रिकेट का मुद्दा ही रहा है, जिसके चलते क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (कैब) के सचिव आदित्य वर्मा 2007 से अदालत में बोर्ड के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंके हुए हैं. तबसे वे बोर्ड की कार्यप्रणाली को लगातार कटघरे में खड़ा करते रहे हैं. यह उनकी ही याचिका का परिणाम था कि बोर्ड से एन श्रीनिवासन की छुट्टी हुई और लोढ़ा समिति का गठन हुआ, जिसकी सिफारिशें आज बीसीसीआई और राज्य क्रिकेट संघों के पदाधिकारियों के लिए अपना अस्तित्व बचाये रखने की लड़ाई बन गयी हैं.

सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद बिहार क्रिकेट की इस कानूनी जीत और उसको मिले अपने वाज़िब हक के मौके पर द वायर  ने आदित्य वर्मा से लोढ़ा समिति की सिफारिशों, उसले अमल में आ रही रुकावटों, विनोद राय की अध्यक्षता में गठित सीओए के कामकाज और बोर्ड की अंदरूनी राजनीति जैसे विभिन्न मसलों पर बात की.

एक लंबी लड़ाई के बाद बिहार क्रिकेट को उसका हक मिला. अदालत में इस मामले की पैरवी आप खुद कर रहे थे और सामने बीसीसीआई के नामी वकील थे. क्या तर्क सामने रखे जिसे झुठलाया नहीं जा सका?

बिहार क्रिकेट एसोसिएशन (बीसीए) 1935 से बीसीसीआई का पूर्ण सदस्य था लेकिन साल 2000 में राज्य का विभाजन हुआ. बिहार से विभाजित होकर झारखंड बना. बिहार क्रिकेट एसोसिएशन का नाम बदलकर झारखंड राज्य क्रिकेट संघ (जेएससीए) कर दिया गया. 13 जिलों वाले झारखंड को बोर्ड की फुल मेंबरशिप (पूर्ण सदस्यता) मिली और बिना किसी नियम कानून के जनसंख्या के लिहाज से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य बिहार को बाहर कर दिया गया.

ध्यान दीजिये कि उस समय विभाजन उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का भी हुआ था लेकिन वे आज भी बोर्ड के पूर्ण सदस्य हैं, बस बीसीसीआई के दोहरे चरित्र के कारण बिहार के साथ पक्षपात किया गया. 6 करोड़ की आबादी वाले गुजरात में 3 रणजी टीम है, महाराष्ट्र में चार पूर्ण सदस्य हैं, तीन रणजी टीम हैं. वहीं बिहार में एक भी रणजी टीम नहीं है.

1975-76 में बिहार की टीम ने रणजी ट्रॉफी का फाइनल भी खेला था. सुब्रतो बनर्जी, रमेश सक्सेना, रणधीर सिंह, सबा करीम जैसे खिलाड़ी बिहार से खेलकर ही भारतीय टीम का हिस्सा बने थे. पटना में मोइनुल हक स्टेडियम भी है, जहां 1996 विश्वकप के मैच हुए थे.

बस हमने यही बात रखी कि इस सब के बावजूद बिहार क्रिकेट ने क्या गुनाह किए थे, जो बीसीसीआई की नाजायज हरकतों के चलते अपना सब कुछ खो दिया. अगर यहां न्याय नहीं मिलेगा तो हम कहां जाएंगे?

अदालत ने बीसीसीआई और जेएससीए के वकीलों से हलफनामे में जवाब मांगा, जिस पर उन्होंने कहा कि उन्हें निर्देश लेने होंगे. अदालत ने तुरंत निर्देश लेकर बताने कहा. उन्होंने गलती की थी तो स्वाभाविक है कि जवाब नहीं था.

बहरहाल अब अगले सत्र से रणजी ट्रॉफी, दलीप ट्रॉफी, देवधर ट्रॉफी में बिहार भी खेलेगा. ये बहुत बड़ी खुशी है और 17 साल से गुमनामी के अंधेरे में जी रहे बिहार के बच्चों के आंगन में दिये जलेंगे.

बोर्ड का तर्क रहा कि बिहार और झारखंड क्रिकेट के बीच के विवाद के सुलझने तक बिहार को खिलाना संभव नहीं. ये क्या विवाद है?

उनका कहना था कि बिहार में क्रिकेट का संचालन करने के लिए कोई पदाधिकारी (ऑफिस बीयरर) नहीं है. एक से अधिक राज्य क्रिकेट संघ होने के कारण विवाद की स्थिति है.

अदालत ने कहा कि हम इन सब बातों में नहीं जाएंगे. बात बस ये है कि बिहार को खेलना चाहिए. बीसीसीआई टांग अड़ाना चाह रहा था, ऐसा दिखाना चाह रहा था कि बिहार में काफी विवाद है, इसलिए बोर्ड ने फैसला नहीं किया.

लेकिन याद कीजिये कि ललित मोदी के चलते राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन को भी तो बोर्ड ने 2010 में खारिज कर दिया था. फिर भी एक एडहॉक कमेटी बनाकर उसे रणजी में खिलाया जा रहा है तो बिहार क्यों नहीं? इस पर कोर्ट ने उन्हें फटकार भी लगाई.

कोर्ट ने तो कह दिया कि बिहार खेलेगा लेकिन इसकी जिम्मेदारी कौन संभालेगा? एक क्रिकेट संघ कीर्ति आजाद का बनाया हुआ है, एक लालू प्रसाद यादव का और एक आपका?

मेरा उद्देश्य था बिहार क्रिकेट को मुख्यधारा में लाना, जो मैंने ला दिया. अब ये बीसीसीआई पर है कि वो बिहार को कैसे शामिल करता है. मुझे अपनी कुर्सी का लालच कभी नहीं रहा है.

बीते कुछ समय से बीसीसीआई के कार्यवाहक सचिव अमिताभ चौधरी लगातार आपके निशाने पर रहे. आपके अनुसार उन्होंने बिहार क्रिकेट का तो बंटाधार किया ही, अब झारखंड क्रिकेट का बंटाधार भी कर रहे हैं. साथ ही बीसीसीआई में सुधारों के बीच रोड़ा बने हुए हैं.

ज्यादा तो नहीं, बस तीन बातें कहूंगा. पहला कि उन्होंने धोखाधड़ी से बीसीए यानी बीसीसीआई के 1935 से शामिल एक फाउंडर मेंबर का नाम बदलकर जेएससीए कर दिया. इस धोखाधड़ी के दस्तावेज भी उपलब्ध हैं.

दूसरा, देश की सर्वोच्च अदालत में गलत हलफनामा देकर बीसीसीआई के कार्यवाहक सचिव का पद हथिया लिया. नियमानुसार उन्हें क्रिकेट प्रशासन में 16 साल हो गए हैं, वे अयोग्य थे.

वहीं 2 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने आदेश दिया कि अगर बोर्ड के संयुक्त सचिव और सबसे वरिष्ठ उपाध्यक्ष हलफनामा देते हैं कि वो लोढ़ा समिति की सिफारिशों के अनुसार अयोग्य नहीं हैं तो वे वर्तमान कार्यवाहक सचिव और कार्यवाहक अध्यक्ष बन सकते हैं.

इन्होंने हलफनामा दिया कि हम राज्य संघ से हट चुके हैं. वहां से हटने पर ये बीसीसीआई में आ सकते थे. इन्होंने कहा कि हम वहां पद त्याग चुके हैं तो इन्हें यहां पद मिल गया. लेकिन हकीकत यह थी कि इन्होंने वहां पद छोड़ा नहीं था. एक खिलाड़ी ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी निकाली थी कि जेएससीए के अकाउंट ऑपरेशन बतौर अध्यक्ष वही देख रहे हैं.

तीसरी बात, 7 अक्टूबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई के उस हर सदस्य राज्य संघ का अकाउंट फ्रीज कर दिया था जो लोढ़ा समिति की सिफारिशों को नहीं मानता, अकाउंट ऑपरेशन नहीं करेगा. सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए आज तक उस अकाउंट को ऑपरेट किया जा रहा है.

इससे संबंधित सभी दस्तावेज हमने लगाकर सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की बेंच के पास अंतरिम याचिका भी दाखिल की है, जिस पर सुनवाई चल रही है. तो ये तीन उदाहरण दर्शाते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा का एक पदाधिकारी जो कानून का रक्षक था, कैसे कानून का मखौल उड़ा रहा है.

सीओए अध्यक्ष विनोद राय ने बोर्ड के कामकाज की जानकारी देने वाली पांचवी स्टेट्स रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपते हुए खुद कहा है कि सिफारिशों के लागू होने में ये लोग रोड़ा बने हुए हैं. लेकिन फिर भी अदालत ने अब तक इन्हें हटाया नहीं है. यह पहलू चकित करता है लेकिन देर-सबेर इनका फैसला होगा.

फोटो: पीटीआई
फोटो: पीटीआई

लेकिन विनोद राय दो महीने पहले तक अदालत में कह रहे थे कि बोर्ड के पदाधिकारी अच्छा काम कर रहे हैं और वे सुधार लागू करने के भरसक प्रयास कर रहे हैं.

बात ऐसी है कि अगर एक बच्चा स्कूल की हर परीक्षा में अच्छा कर रहा है तो स्कूल का प्राध्यापक घर वालों को जरूर अच्छी रिपोर्ट देगा, लेकिन जैसे ही बच्चा अपना ध्यान दूसरी चीजों पर भटका देगा तो यह प्राध्यापक कहेगा ही कि बच्चे राह से भटक चुके हैं, गलत कर रहे हैं.

अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से अमिताभ चौधरी को विनोद राय को जितने दिन तक भ्रम में रखना था, रख लिया, लेकिन जब दिल्ली में उन्होंने बोर्ड के सीईओ राहुल जौहरी को एक बैठक से हटा दिया, उस दिन विनोद राय को लगा कि ये हमारे ऊपर वार है. मालूम हो कि राहुल जौहरी को भी काम देखने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था. इसके बाद ही राय ने सुप्रीम कोर्ट में यह बात लिखकर दी कि इन्हें हटाया जाये.

कुछ साल पहले बीसीए का नाम बदलकर जेएससीए किए जाने को लेकर पूर्व बीसीसीआई अध्यक्ष शशांक मनोहर की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बनी थी, उसकी जांच रिपोर्ट में क्या था?

उस जांच में जो भी निकलकर आया, उस पर ये चुप्पी साध गए. बाद में इन लोगों ने अमिताभ चौधरी के साथ फिक्सिंग मैच खेल लिया. अमिताभ चौधरी का कहा मान लिया गया. तब बिहार का अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को बनाया गया था.

ये लोग उन्हें साथ रखना नहीं चाह रहे थे तो लालू को रोकने के लिए अमिताभ चौधरी को बोर्ड ने अपना दामाद बना लिया और बिहार को बाहर का रास्ता दिखा दिया. बोर्ड की अंदरूनी राजनीति के चलते अमिताभ स्वीकारे गए.

यह सारा विवाद ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ को लेकर खड़ा हुआ था. इतनी कवायद बाद बोर्ड के क्या हाल हैं?

बोर्ड में ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ के हालात आज खत्म हो चुके हैं, ऐसा कहीं से नहीं लगता. जब तक अदालत द्वारा बताए गए सुधार पूरी तरह से लागू नहीं हो जाते हैं,  तब तक नहीं कहा जा सकता है कि किसी भी प्रकार का सुधार हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित सीएओ के चार सदस्यों में से दो इस्तीफा दे चुके हैं. अब तक उनकी जगह भरी नहीं गई है, क्या कहेंगे?

देखिए, सर्वोच्च न्यायालय अपना काम कर रहा है, जिस पर उंगली उठाना ठीक नहीं, लेकिन इन ख़ाली पदों को भरा जाना चाहिए था. विनोद राय ने तो कहा नहीं है लेकिन अब कोर्ट को ही यह देखना है. यह तो तय है कि देर-सबेर जो भी होगा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को माना ही जायेगा. कितने दिन तक आप इसको टालते रह सकते हैं!

यहां विनोद राय के कामकाज पर सवाल जरूर बनता है क्योंकि विनोद राय जी के यहां भी न्याय का मापदंड बना हुआ है. वे 60 साल की उम्र के बाद बीसीसीआई से लोगों को रिटायर कर रहे हैं लेकिन रत्नाकर शेट्टी का उदाहरण देखिए. 68 साल के शेट्टी मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन में 9 साल से ज्यादा समय पदाधिकारी रहे होने के नाते अयोग्य हैं, साथ ही बीसीसीआई में भी वे नौ साल पदाधिकारी थे, इस तरह भी वे अयोग्य हुए.  लेकिन विनोद राय उन्हें समिति की अपनी सहयोगी सदस्य डायना एडुल्जी के कहने पर एक कर्मचारी के तौर पर एक्सटेंशन दिए जा रहे हैं, जो गलत है.

अगर कानून है तो सबके लिए है. अगर कर्मचारी मानकर आप रत्नाकर शेट्टी को 68 साल की उम्र में 9 साल के कार्यकाल के बाद एक्सटेंशन दे रहे हैं तो आप सौराष्ट्र एसोसिएशन के 70-72 साल के सीईओ निरंजन शाह पर भी उंगली नहीं उठा सकते.

अगर कल एन श्रीनिवासन तमिलनाडु क्रिकेट एसोसिएशन (टीएनसीए) के सीईओ बन जाते हैं तो आप किस अधिकार से बोलेंगे?  इस पर विनोद राय को सुप्रीम कोर्ट में जवाब देना चाहिए.

क्या कह सकते हैं कि जो समिति बोर्ड के ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ को खत्म करने बनाई गयी वो खुद ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ में शामिल हो गयी है?

इसमें तो हम  कुछ नहीं बोलेंगे लेकिन जस्टिस लोढ़ा बोल चुके हैं कि मुख्य कामों से हटकर दूसरे कामों में शामिल हैं समिति के ये लोग.

Lodha Committee Report PTI
जनवरी 2016 में लोढ़ा कमेटी की रिपोर्ट पेश करते जस्टिस लोढ़ा और कमेटी के अन्य सदस्य (फाइल फोटो: पीटीआई)

जब लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू हुईं तो बोर्ड ने कहा कि हम 70-75 फीसदी सिफारिशें मानने तैयार हैं. फिर 26 जुलाई 2016 को अमिताभ चौधरी ने कहा कि पांच सिफारिशें (उम्र और कार्यकाल, एक राज्य-एक वोट, चयनसमिति को छोटा करना, शीर्ष परिषद का आकार और सरकारी अधिकारियों पर पाबंदी) छोड़कर हम सारी लागू करेंगे.

वह सब बयानबाजी थी. आज की तारीख में इन्होंने लोढ़ा समिति की कोई भी सिफारिश लागू नहीं की है.

समिति की एक सिफारिश यह भी थी कि बोर्ड अपने खर्च पर पुलिस में एक दस्ता बनाये जो फिक्सिंग की रोकथाम पर काम करे.

जब तक देश में फिक्सिंग को लेकर एक सख्त कानून नहीं बनता, तब तक फिक्सिंग का आप कुछ नहीं कर सकते.

सिफारिशों के बाद बोर्ड के रोजमर्रा के कामकाज देखने को हुई सीईओ की नियुक्ति से कोई बदलाव आया लगता है?

एक याचिकाकर्ता के तौर पर मुझे जितनी अपेक्षाएं उनसे थीं, उनके आधार पर कहूं तो नतीजे सुखद नहीं हैं. जैसा काम उन्हें करना चाहिए था, वे कर नहीं पा रहे है.

क्या बोर्ड पदाधिकारी उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं?

अगर साफ शब्दों में कहा जाये तो विनोद राय को सुप्रीम कोर्ट में अपना इस्तीफा दे देना चाहिए क्योंकि अमिताभ चौधरी जैसे लोग उनकी बात ही नहीं मान रहे हैं. अमिताभ चौधरी इस वक्त बीसीसीआई में मेजर रोल में नजर आते हैं तो हमको लगता है कि विनोद राय को सख्त कदम उठाते हुए चौधरी को या तो बर्खास्त करके कोर्ट को खबर करना चाहिए या फिर खुद पद छोड़ देना चाहिए.

लेकिन तकलीफ ये है कि वे अमिताभ चौधरी की बर्खास्तगी के लिए कोर्ट में जाते हैं. अरे, कोर्ट ने तो आपको भेजा है चीजें ढर्रे पर लाने के लिए. जो रोड़ा है, आप उसे बर्खास्त कीजिए. आप वो काम कर नहीं रहे हैं. आप अयोग्य लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं. ऐसे में फिर किस मुंह से आप दूसरों को सिफारिशें लागू करने के लिए बाध्य कर पाएंगे?

जस्टिस लोढ़ा ने अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया था कि बोर्ड के अहम फैसले बंद कमरों में होते थे. कई बार ख़बर आई कि एन श्रीनिवासन जैसे लोग बोर्ड मीटिंग का हिस्सा बने. क्या ये ‘बंद कमरों’ की राजनीति अब तक जारी है?

ये तो सुप्रीम कोर्ट को देखना है. मेरी औकात नहीं उन जैसे बड़े लोगों से लड़ने की. मैं अपने बिहार के बच्चों के हक के लिए लड़ाई लड़ा. आप देखिए कि तब एक तरह से जंगल के शेर बने बैठे लोग अब जंगल छोड़कर भाग गए हैं. बड़े-बड़े लोगों का नाश हो गया इस छोटे से बिहार के क्रिकेट खेलने के मसले को लेकर. बाकी क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, इसकी मुझे जानकारी नहीं.

फोटो: रॉयटर्स
फोटो: रॉयटर्स

शुरुआती दौर में आप पर पीछे हटने का दबाव बनाया गया था. क्या आज भी वह सिलसिला जारी है?

नहीं, ऐसा कुछ नहीं है बल्कि अब तो हम खुद ही टूट चुके थे. लगता था कि मेरी याचिका से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का अपमान बोर्ड और अमिताभ चौधरी जैसे लोग कर रहे हैं, तो मुझे ये केस करना ही नहीं चाहिए था जो कि देश में कानून के सबसे बड़े मंदिर के अनादर का कारण बन रहा है.

इससे मुझे झुंझलाहट होती थी कि मैं  इस लड़ाई में कहां से कहां आ गया. एक तरफ लालू जैसे बड़े कद के नेता कोर्ट के आदेश से जेल जा सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ अमिताभ चौधरी जैसे लोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ा रहे हैं. और कुछ हो ही नहीं रहा है, तो थोड़ा सा तो दुख होना ही था.

दुख इसलिए भी है क्योंकि मैंने बहुत ही मुश्किल से और गरीब लोगों से भीख मांग-मांगकर इस लड़ाई को लड़ा है इसलिए कहूंगा कि जब तक बीसीसीआई में अमिताभ चौधरी जैसे लोग रहेंगे हमको नहीं लगता कि 10 विनोद राय जैसे लोग भी मिलकर बोर्ड को नहीं सुधार सकते हैं.

कहां से जुटाया इस लड़ाई का खर्च? क्या खिलाड़ियों से कोई समर्थन मिला?

बिहार के बच्चों ने चंदा कर-करके खर्च दिया है. दिल्ली के कई मित्र हैं जो लाइमलाइट में नहीं आना चाहते हैं. कई पत्रकार हैं, स्पोर्ट्समैन हैं. कोई कभी रहने की जगह दे देता है तो कोई कभी गाड़ी. और इस सबसे हटके पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने हमेशा बड़े भाई की तरह सहायता की है. बोर्ड के कई पूर्व अध्यक्षों ने भी इस लड़ाई में साथ दिया.

खिलाड़ियों में सचिन तेंदुलकर, मोहम्मद अजहरुद्दीन, दिलीप वेंगसरकर, सुरिंदर खन्ना, चेतन शर्मा जैसे लोगों ने भी कई मौकों पर मेरा हौसला बढ़ाया.

हरीश साल्वे, नलिनी चिदंबरम जैसे नामी वकीलों ने आपके इस मामले की पैरवी की. वे आपसे कैसे जुड़े?

नलिनी चिदंबरम को तो मैं ‘मदर ऑफ इंडियन क्रिकेट’ कहूंगा. एक पैसा लिए बगैर उन्होंने उच्चतम न्यायालय में मेरे मामले की पैरवी की है.

हरीश साल्वे ने कुलभूषण जाधव के मुकदमे में तो भारत सरकार से एक रुपया लिया भी था लेकिन मेरे मुकदमे में आज तक एक रुपया भी नहीं लिया. उनके पिता एनकेपी साल्वे, कभी बोर्ड अध्यक्ष हुआ करते थे.

वास्तव में जो हीरो हैं वो यही पर्दे के पीछे के लोग हैं. ये लोग मुझसे निजी लगाव होने के चलते लड़े. साल्वे ने कहा कि तुम्हारी हिम्मत का मैं कायल हूं. नलिनी जी ने कहा कि श्रीनिवासन से लड़कर टिके रहने वालों को आज तक मैंने देखा ही नहीं, जो लड़ा वो बिका. तुमने अपनी लड़ाई लड़ी.

(दीपक गोस्वामी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq