साल 2018 में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द संविधान से हटाए बिना ही चलन से बाहर कर दिया जाएगा

नरेंद्र मोदी सरकार कई अहम मोर्चों, मसलन रोज़गार और निवेश पर नाकाम रही है. जैसा कि हमने उत्तर प्रदेश और अब गुजरात में देखा, जब बाकी सारी चीज़ें चुक जाती हैं, तब हिंदुत्व काम आता है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नरेंद्र मोदी सरकार कई अहम मोर्चों, मसलन रोज़गार और निवेश पर नाकाम रही है. जैसा कि हमने उत्तर प्रदेश और अब गुजरात में देखा, जब बाकी सारी चीज़ें चुक जाती हैं, तब हिंदुत्व काम आता है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

2017 के आख़िरी दिनों में केंद्रीय कौशल विकास और उद्यमशीलता मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा कि जो लोग ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष मानते हैं, उनकी कोई पहचान नहीं है और उनके माता-पिता और ख़ून का कोई अता-पता नहीं होता.

ब्राह्मण युवा परिषद की वेबसाइट के उद्घाटन के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में हेगड़े ने यह भी कहा कि आने वाले दिनों में संविधान को बदल दिया जाएगा.

नए साल के पहले दिन, पुणे के नज़दीक पेशवाओं पर महारों की जीत की सालगिरह मनाने के लिए किए गए आयोजन पर कथित तौर पर दो जाने-माने हिंदुत्व नेताओं के अनुयायियों ने हमला किया.

यह आयोजन हर साल ब्रिटिश सेना के हाथों पेशवाओं की हार की वर्षगांठ मनाने के लिए किया जाता है, जिसमें ब्रिटिश सेना के नेतृत्व में महारों ने पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी. वर्षों से यह आयोजन शांतिपूर्वक होता रहा है.

बाबा साहब आंबेडकर भी इस आयोजन में नियमित रूप से शामिल होते थे. लेकिन इस बार भगवा झंडे हाथ में लिए आई भीड़ ने इस आयोजन में हुड़दंग मचाया, इसमें शामिल होने वालों की पिटाई की और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया.

हेगड़े के भाषण और इस हिंसा में पहली नज़र में भले कोई आपसी संबंध नज़र न आए, लेकिन वास्तव में दोनों के बीच एक रिश्ता है. दलितों के लिए हेगड़े की टिप्पणी और पुणे में किया गया हमला, उन्हें दबा कर रखने का एक और उदाहरण है.

हालांकि, हेगड़े ने दलितों का ज़िक्र नहीं किया, लेकिन दलितों के लिए संविधान को बदलने का कोई भी ज़िक्र जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने के इरादे को लेकर ख़तरे की घंटी के समान है.

भले ही भारतीयों के एक बड़े वर्ग को यह डर सताता हो कि भाजपा-आरएसएस संविधान से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द को हटाना चाहते हैं, लेकिन दलित इसे ख़ासकर अपने ख़िलाफ़ रची जा रही साज़िश के तौर पर देखते हैं.

इसके अलावा, संविधान पर ऐसा कोई भी हमला, महान दलित नेता बाबा साहब आंबेडकर की तौहीन करना होगा, जिन्हें ऊंची जातियां तमाम ज़ुबानी जमाख़र्च के बावजूद पसंद नहीं करती हैं.

इसी बीच, अन्य बड़े भाजपा नेताओं ने ऐसे बयान दिए हैं, जिन पर किसी दूसरे वक्त में हंगामा खड़ा हो गया होता, मगर जिन्हें इस दौर में एक तरह से अनसुना कर दिया गया.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

भारत सरकार में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक इंटरव्यू में यह कहा कि भारत में मुसलमान समाज के लिए ख़तरा हैं.

उत्तर प्रदेश के एक भाजपा नेता कहा कि चूंकि भारत को हिंदुस्तान कहा जाता है, इसलिए यह देश हिंदुओं का है और उन्होंने (विभाजन के दौर में) ‘दाढ़ी वालों को’ यहां से जाने से रोकने वालों की निंदा की.

राजस्थान के अलवर के भाजपा विधायक ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में कहा कि मुस्लिमों की आबादी बढ़ने की दर से हिंदुओं पर ख़तरा पैदा हो रहा है.

इस सबके बावजूद कहीं किसी माथे पर कोई शिकन नहीं है, क्योंकि हम औपचारिक संघ परिवार के अंदर और उसके बाहर के हिंदुत्व नेताओं द्वारा खुलेआम अल्पसंख्यक विरोधी विचार प्रकट करने के अभ्यस्त हो गए हैं.

ऐसा नहीं है कि ऐसे तत्वों का अस्तित्व पहले नहीं था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक पुराना संगठन है और हिंदुत्व के कट्टर अनुयायी समाज और राजनीति में सालों से रहे हैं. आज भी आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो इस बात पर यकीन करते हैं कि गांधी ने यह देश मुसलमानों को दे दिया.

नेहरू परिवार के मुस्लिम रिश्तों के बारे में अफवाहों में यकीन करने वाले भी आपको बड़ी संख्या में मिल जाएंगे. सोशल मीडिया और वॉट्सऐप पर प्रकट हो जाने वाली किसी भी सामग्री पर बिना किसी संदेह के यकीन कर लेने की आदत ने इन झूठी मनगढंत कहानियों के प्रसार में मदद पहुंचाई है.

लेकिन, डिजिटल युग से पहले भी, इस वायरस से प्रभावित लोग बड़ी संख्या में देशभर में मौजूद थे. ऊपर से बिल्कुल सामान्य नज़र आने वाले, सामान्य तरीके से अपना जीवन बिता रहे लोगों के दिमाग में भी सांप्रदायिक भावना गहरे तक जमी बैठी थी, जिसके बारे में उन्होंने खुलकर तब तक बोलना शुरू नहीं किया, जब तक हालात बदल नहीं गए और जब ऐसी बातें करने को ख़राब समझा जाना बंद नहीं हो गया. उसके बाद सबको छूट मिल गई.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

अल्पसंख्यकों- मुस्लिम और दलित के ख़िलाफ़ गुस्से का लावा पहले से खदबदा रहा था. हुआ बस यह है कि पिछले साढ़े तीन वर्षों में यह लावा सतह पर आ गया है.

एक बार हिंदुत्ववादी शक्तियों के सत्ता में आ जाने के बाद पीट-पीट कर मार देने और हत्याओं के मामलों पहले से बढ़ गए हैं. लेकिन जहां पीट-पीट कर जान ले लेने की घटना में एक नाटकीय तत्व होता है और आज भी इसमें लोगों में क्षोभ पैदा करने की शक्ति है, वहीं हम भाजपा नेताओं के खुलेआम सांप्रदायिक बयानों की सुनामी के अभ्यस्त हो गए हैं.

नवंबर, 2015 में हम तब चौकन्ने हुए थे, जब आदित्यनाथ ने शाहरुख ख़ान की तुलना हाफ़िज़ सईद से की थी. उस समय देश में असहिष्णुता पर बहस चल रही थी, जिस पर दूसरी तरफ का बस एक रटा-रटाया जवाब होता थाः ‘पाकिस्तान चले जाओ.’

शाहरुख ख़ान को हाफ़िज़ सईद से जोड़कर आदित्यनाथ एक तरह से उन्हें पाकिस्तान- अपने स्वाभाविक/असली घर जाने के लिए ही कह रहे थे.

इसके डेढ़ साल से भी कम समय में योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. ज़ाहिर है, वह अब धार्मिक कट्टरपन और घृणा फैलाने वाले अपने राजनीतिक करिअर को आगे लेकर जाने वाली गाड़ी के विश्वसनीय पहिए बन गए हैं.

लेकिन गिरिराज सिंह और अनंत कुमार हेगड़े ये सब अपने करिअर को आगे बढ़ाने के लिए नहीं कर रहे. वे आरएसएस और इसके गुरुओं की शिक्षा में गहरे तक डूबे विचारक हैं.

वे जो कह रहे हैं, उसमें उनका यकीन है, जो उन्हें पढ़ाया गया है, जो बचपन से उन्हें घुट्टी की तरह घोलकर पिलाया गया है. वे अपने अनुयायियों के सामने वही कह रहे हैं, जो उनके दिमाग में है और उनके इन बातों के लिए मंच मुहैया कराने के लिए मीडिया पूरी तरह से तत्पर है.

हिंदुत्व के शक्ति प्रदर्शन में अचानक आए इस उभार को, चाहे वह पुणे में हो, चाहे मीडिया के सामने हो या दूरदराज़ के छोटे शहरों में हो, कहीं न कहीं आने वाले दिनों की आहट माना जा सकता है.

इस साल आठ राज्यों में चुनाव होंगे. 2019 में अगले आम चुनाव से पहले यही एक पूरा साल बाकी है. जैसा कि गुजरात ने दिखाया है, दो साल पहले तक विश्वास और घमंड से भरी हुई भाजपा भी किसी चीज़ को पक्का मान कर नहीं चल सकती है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

गुजरात में इस बार पाटीदार बड़ी संख्या में उनसे छिटक गए, जबकि वे अब तक भाजपा के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे थे. कोई यह गारंटी के साथ नहीं कहा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर भी ऐसा दोहराया नहीं जाएगा.

अभी तक नरेंद्र मोदी का कोई राजनीतिक विपक्ष सामने नहीं है, लेकिन यह कोई नहीं जानता, आने वाले समय में चीज़ें क्या रूप अख़्तियार करेंगी? चुनाव में बड़े उलटफेर का होना कोई चौंकाने वाली बात नहीं है.

कई अहम मोर्चों, मसलन रोज़गार और निवेश पर, यह सरकार नाकाम रही है. कोई आर्थिक चमत्कार करने के लिए अब समय नहीं बचा है. जैसा कि हमने उत्तर प्रदेश में और अब गुजरात में देखा, जब बाकी सारी चीज़ें चुक जाती हैं, तब हिंदुत्व काम आता है.

गुजरात चुनाव के आख़िरी चरण में, प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा ने हिंदुत्व के कई पत्ते चले: पाकिस्तान, दाढ़ी-टोपी, औरंगज़ेब. ये सारी चीज़ें भक्तों को पूरी तरह से समझ में आईं और उन्होंने इसे खुले दिल से स्वीकार किया. 2018 में ऐसे कई और पत्तों और कई और खिलाड़ियों की ज़रूरत पड़ेगी.

सबसे अफसोस की बात यह है कि इसके विपक्ष में कोई मज़बूत वृत्तांत नहीं होगा. कांग्रेस भले ही एक हिंदुत्व की ओर झुकी हुई पार्टी न हो, लेकिन उसने इस मुद्दे को ज़्यादा तूल न देने का फैसला किया है.

वह धर्मनिरपेक्षता की बात करने में घबराई हुई दिखती है और इसके नेता राहुल गांधी को दिखावे के लिए मंदिरों में जाने से कोई गुरेज़ नहीं है. यह भले एक रणनीतिक क़दम हो, लेकिन इतने सालों में कांग्रेस पार्टी जिन बुनियादी उसूलों के लिए लड़ती रही, यह उसी पर चोट है.

इसलिए साफ है कि यह एक ऐसा साल होगा जब हिंदुत्व भारतीय राजनीति के केंद्र में होगा. असली मोर्चा यहीं सजेगा.

एक सिरे पर छोटे खिलाड़ियों द्वारा हिंसा फैलाई जाएगी. दूसरे सिरे पर बड़े नेताओं द्वारा अल्पसंख्यक विरोधी बयान दिए जाएंगे. ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को वास्तव में संविधान से हटाए जाने से काफी पहले, एक चलन से बाहर कर दिया गया शब्द बन जाएगा.

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