क्या राजस्थान में वसुंधरा का विकल्प तलाशना भाजपा की मजबूरी बन गया है?

लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा ने फिर से ज़ोर पकड़ लिया है.

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे. (फोटो: रॉयटर्स)

लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा ने फिर से ज़ोर पकड़ लिया है.

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे. (फोटो: रॉयटर्स)
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे. (फोटो: रॉयटर्स)

अजमेर व अलवर की लोकसभा सीटों और मांडलगढ़ की विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने बाज़ी मार ली है. अजमेर से डॉ. रघु शर्मा, अलवर से डॉ. करण सिंह और मांडलगढ़ से विवेक धाकड़ विजयी रहे हैं.

ग़ौरतलब है कि पूर्व में इन तीनों सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा था. वसुंधरा राजे ने इन तीनों सीटों पर जीत के लिए पूरा ज़ोर लगाया था. उन्होंने ख़ुद कई दिनों तक प्रचार में पसीना बहाया जबकि उनके मंत्री चुनाव की तारीख़ का ऐलान होने के बाद से ही चुनावी मैदान में कैंप कर रहे थे. बावजूद इसके परिणाम सुखद नहीं रहे.

ऐसे समय में जब राजस्थान में इस साल के आख़िर में विधानसभा चुनाव होने हैं, उपचुनावों में भाजपा की करारी हार ने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की पेशानी पर पसीना ला दिया है.

ग़ौरतलब है कि उपचुनाव में प्रचार के दौरान भाजपा के नेता लगातार यह कहते थे कि ये चुनाव विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल है. वे यह दावा भी करते थे कि इस सेमीफाइनल की तीनों सीटें हम जीतेंगे और फाइनल में भी हम ही विजयी होंगे. लेकिन पार्टी को न सिर्फ हार का मुंह देखना पड़ा, बल्कि वह कहीं मुक़ाबले में भी नहीं दिखी.

अजमेर व अलवर की 16 विधानसभा सीटों में से सिर्फ़ एक पर ही पार्टी के प्रत्याशी बढ़त बनाने में क़ामयाब हो पाए जबकि मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर कांग्रेस के बाग़ी उम्मीदवार गोपाल मालवीय के आश्चर्यजनक प्रदर्शन के बावजूद पार्टी जीतने में नाक़ामयाब रही.

हालांकि उपचुनावों के इन नतीजों से न तो राज्य सरकार की सेहत पर कोई असर पड़ेगा और न ही केंद्र पर. लेकिन इससे संसद में राजस्थान से कांग्रेस का प्रतिनिधित्व समाप्त होने से बच गया.

गौरतलब है कि 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में राजस्थान की सभी 25 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार विजयी हुए थे. वहीं, राज्यसभा की 10 सीटों में से 8 पर भाजपा के सांसद हैं. जो दो सांसद- अभिषेक मनु सिंघवी और नरेंद्र बुढ़ानिया कांग्रेस के हैं उनका कार्यकाल भी इसी साल 3 अप्रैल को समाप्त हो रहा है.

यदि लोकसभा की दोनों सीटों पर भाजपा जीत जाती तो संसद में राजस्थान से कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं रहता, जो ऐतिहासिक होता.

भाजपा के लिए उपचुनावों में करारी हार से ज़्यादा चिंतित करने वाला सवाल यह है कि साल के आख़िर में होने वाले विधानसभा चुनाव पर इनका क्या असर पड़ेगा. क्या राजस्थान की जनता ने पुराने ढर्रे पर चलते हुए इस बार कांग्रेस को सत्ता सौंपने का मन बना लिया है?

उल्लेखनीय है कि प्रदेश में लंबे अरसे से पांच साल में सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है. भाजपा के भीतर भी इस चर्चा ने फिर से ज़ोर पकड़ लिया है कि यदि पार्टी ने वसुंधरा राजे के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ा तो नतीजे उपचुनाव की तरह ही निराशाजनक होंगे.

हालांकि इस मसले पर वरिष्ठ नेता तो खुलकर नहीं बोल रहे, लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच सोशल मीडिया पर ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं’ सरीखे मैसेज खूब चल रहे हैं.

दरअसल, राजस्थान में भाजपा के सामने दोहरी चुनौती है. पहली सत्ता विरोधी लहर और दूसरी अपनी उपेक्षा से आहत नेता-कार्यकर्ता. भाजपा का एक खेमा यह मानता है कि इन दोनों चुनौतियों के लिए वसुंधरा राजे की कार्यशैली ज़िम्मेदार है.

नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं, ‘वसुंधरा राजे ने प्रचंड बहुमत मिलने के बावजूद राजस्थान की सर्वाधिक अलोकप्रिय सरकार दी है. समाज के किसी भी तबके के लिए सरकार ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है. उल्टे समाज के कई वर्ग सरकार की सुस्ती की वजह से नाराज़ हो गए हैं. वरिष्ठ नेताओं को नज़रअंदाज़ करने और कार्यकर्ताओं से संवादहीनता की वजह से संगठन का ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया है. यदि ऐसे ही चलता रहा तो विधानसभा चुनाव में पार्टी की दुर्गति होनी तय है.’

असल में भाजपा जो वादे कर सत्ता में आई थी, उनमें से ज़्यादातर अधूरे हैं. सरकार के खाते में गिनाने के लिए तो कई उपलब्धियां हैं, लेकिन ज़मीन और समाज के बड़े तबकों पर इसका असर नहीं है.

विशेष रूप से युवा सरकार से खुश नहीं हैं. वसुंधरा राजे ने चुनाव से पहले युवाओं को 15 लाख नौकरियां देने का वादा किया था, लेकिन अब तक 50 हज़ार को भी नौकरी नहीं मिली है.

सरकार ने जो भर्तियां निकालीं भी, उनमें से ज़्यादातर क़ानूनी पचड़े में फंस गई. इसके अलावा सरकार की आंदोलनों से निपटने में देरी भी सिरदर्द साबित हुई है. सरकार की अनदेखी की वजह से ही डॉक्टरों की हड़ताल, आनंदपाल एनकाउंटर और किसान आंदोलन सरीखे प्रकरण तिल का ताड़ बन गए.

दरअसल, वसुंधरा राजे का राजनीति करने का अपना अंदाज़ है. वे अपने काम में किसी भी प्रकार की दख़लअंदाज़ी बर्दाश्त नहीं करतीं. उनके करीबी पंचायती राज मंत्री राजेंद्र राठौड़ कई बार सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि राजस्थान में वसुंधरा राजे ही भाजपा हैं और भाजपा ही वसुंधरा राजे है.

राजे के अब तक के सियासी सफ़र से यह साबित होता है कि प्रदेश भाजपा में उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. चाहे टिकट बंटवारा हो या मंत्रिमंडल के सदस्यों का चयन.

वसुंधरा ने संघ की पसंद और वरिष्ठता को दरकिनार कर घनश्याम तिवाड़ी, प्रताप सिंह सिंघवी, नरपत सिंह राजवी, गुरजंट सिंह, सूर्यकांता व्यास व बाबू सिंह राठौड़ सरीखे वरिष्ठ विधायकों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी.

यही नहीं, भाजपा के कई नेता वसुंधरा की कार्यशैली की वजह से पार्टी छोड़कर राजनीति की अलग राह पकड़ चुके हैं. इनमें दो विधायक डॉ. किरोड़ी लाल मीणा और हनुमान बेनीवाल बड़े नाम हैं. इन दोनों नेताओं की अपनी जाति में गहरी पैठ है.

डॉ. किरोड़ी की पार्टी में वापसी के लिए संघ लंबे समय से प्रयास कर रहा है, लेकिन वे राजे के नेतृत्व में ‘घर वापसी’ करने को तैयार नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘मैंने वसुंधरा की कार्यशैली की वजह से ही पार्टी छोड़ी थी. उनके नेतृत्व में पार्टी में शामिल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता.’

भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने वसुंधरा के ख़िलाफ़ खुलेआम बग़ावत कर रखी है. वे नई पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ने तक का ऐलान कर चुके हैं. सरकार ही नहीं संगठन के स्तर पर भी वसुंधरा राजे की तूती बोलती है. यहां तक कि प्रदेशाध्यक्ष भी उनकी पसंद का व्यक्ति ही बनता है.

इन दिनों प्रदेश भाजपा की कमान अशोक परनामी के पास है. यह जगज़ाहिर है कि वे वसुंधरा की कृपा से ही इस पद पर हैं. वे वही करते हैं जो राजे चाहती हैं.

वसुंधरा विरोधी खेमे को यह शिकायत लंबे समय से है कि राजे-परनामी की जोड़ी सत्ता और संगठन में ज़मीनी नेताओं को तवज्जो देने के बजाय अपनों को उपकृत करती है. दोनों का ही कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद नहीं है.

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के पास यह रिपोर्ट पहले से है. संगठन मंत्री के पद पर चंद्रशेखर मिश्रा की नियुक्ति इसकी पुष्टि करती है, लेकिन वे भी कार्यकर्ताओं में जोश नहीं फूंक पा रहे.

ऐसे में क्या यह माना जाए कि वसुंधरा का विकल्प तलाशना भाजपा की मजबूरी बन गया है? सियासी गलियारों में यह चर्चा ललितगेट कांड के बाद से ही गर्म है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा को जल्द ही दिल्ली बुलाकर मोदी मंत्रिमंडल में शामिल करने वाला है.

यही नहीं, उनकी जगह मुख्यमंत्री के लिए ओमप्रकाश माथुर, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, अर्जुन मेघवाल, सुनील बंसल, गुलाब चंद कटारिया और अरुण चतुर्वेदी सरीखे नामों की चर्चा आम है. क्या वाकई में ऐसा हो सकता है?

सूत्रों के अनुसार पार्टी पहले भी कई बार वसुंधरा को हटाने की सोच चुकी है, लेकिन विधायकों के टूटने के डर से ऐसा नहीं कर पाई. पार्टी के सामने राजे को हटाने से ज़्यादा बड़ी चुनौती यह है कि उनकी जगह किसे लाया जाए. बाकी जितने भी नाम हैं, उनमें से किसी का भी इतना बड़ा रुतबा नहीं है कि पूरी पार्टी सहर्ष उनका नेतृत्व स्वीकार कर ले.

वसुंधरा को हटाने की चर्चाओं पर प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी कहते हैं कि ‘वसुंधरा राजे पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहेंगी और अगला चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. ख़ुद मुख्यमंत्री स्पष्ट कर चुकी हैं कि उनको हटाने की चर्चाएं उनके पिछले कार्यकाल के समय से चल रही हैं, लेकिन हक़ीक़त सबके सामने है.’

नेतृत्व परिवर्तन का मुद्दा आते ही वसुंधरा खेमे के नेता पिछले महीने बाड़मेर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की बार-बार याद दिलाते हैं, जिसमें उन्होंने राजे सरकार के कामकाज की तारीफ़ करते हुए कहा था कि अगली सरकार भी इन्हीं के नेतृत्व में बनेगी.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं.)