क्या कुछ दशक बिना ‘मुस्लिम अल्पसंख्यक’ का जाप किए सियासत नहीं हो सकती?

भारत की सियासत में जब तक अलग से मुसलमानों की बात होती रहेगी तब तक हिंदुत्व ज़िंदा रहेगा.

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भारत की सियासत में जब तक अलग से मुसलमानों की बात होती रहेगी तब तक हिंदुत्व ज़िंदा रहेगा.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

मुस्लिम अवाम इन बिंदुओं पर ग़ौर कीजिए, बृहद विश्लेषण 2019 तक होता रहेगा. पिछले लगभग 30 सालों से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मजबूरी में वोटिंग करता रहा है, हालांकि ये बात मुस्लिम नाम वाले नेताओं पर लागू नहीं होती, मुस्लिम नाम वाले नेता मेहमान या दामाद वाली आवभगत के मज़े लूट रहे हैं.

मतदाता की नज़र से मुसलमान अवाम अब राजनीति के सब घर देख आया है. उसकी राजनीतिक परवरिश कांग्रेसी-हिंदू-मुस्लिम-भाई-भाई वाली रही है. सामाजिक न्याय की भाषा से वो नावाकिफ़ है.

और आज भी आम मुसलमान का बुनियादी मुद्दा है कि उसकी दर्ज़ी की दुकान, बिरयानी का खोमचा, हेयरकटिंग सैलून बच जाए तो अपनी मेहनत से वो कमा-खा के संतुष्ट है.

सामाजिक न्याय का सवाल उसे राजनीतिक तौर पर नहीं मथता, क्योंकि खुद को अल्पसंख्यक के तौर पर वो क़ुबूल कर चुका है. पिछले कुछ सालों से दिल्ली इसकी मिसाल है कि दंगा न हो, पुलिस का दुरुपयोग न हो, तो मुसलमान के भी बाकी सारे मुद्दे वही हैं जो बहुसंख्यक समाज के हैं.

मुसलमान अलग से कुछ नहीं मांग रहा. जबकि दुकान चलाने वाले छुटभैये मुस्लिम नेता लगातार उसको पहचान की राजनीति में लपेटना चाहते रहे हैं. तो आख़िर मुस्लिम अवाम का भला होना चाहिए या कुछ मुस्लिम नेताओं को लाल बत्ती मिलनी चाहिए? राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसकी और कीमत भरे कौन?

सामाजिक न्याय का सवाल और संसद-विधायिका में बराबरी से साथ बैठने का सवाल महत्वाकांक्षी मुस्लिम नेतागीरी का सवाल है, जिसने आम मुसलमान को बहुसंख्यकों के बीच ख़तरा बनवा दिया है.

आम तौर पर मुसलमानों से नफ़रत बढ़ी है तो उसके पीछे मुस्लिम राजनीति भी ज़िम्मेदार है. अपने-अपने गढ़ से अबु आज़मी, असदुद्दीन ओवैसी, आज़म ख़ान से लेकर बुख़ारी तक अपनी मज़हबी सियासत के लिए मुस्लिम अवाम को खलनायक बनवा देते हैं.

चाहें अशराफ़िया नेतागीरी हो या पसमांदा नेतागीरी दोनों मुस्लिम अवाम के साथ नहीं हैं. सलमान खुर्शीद से लेकर शाहिद सिद्दीक़ी और कमाल फ़ारूक़ी तक ये अपने लिए सियासत करते हैं जबकि ये आम मुसलमानों के किसी काम के नहीं.

ज़रूरत ये है कि मुसलमान भारतीय विविधता का सम्मान करने वाली पार्टी चुने. गाली-गलौच जो बहुजन-पिछड़ा-हिंदुत्व राजनीति की पहचान बन चुकी है उससे दूर होकर अपने लिए समावेशी पार्टी को चुने.

जातीय राजनीति के किसी भी कोण में पसमांदा मुसलमान को कोई वरियता मायावती या मुलायम सिंह के यहां कभी नहीं मिली है. दलित-पिछड़ा की गुटबाज़ी में मुसलमान खामखां फंस गया है?

हिंदू बिरादरियों के आपसी जातिवादी चक्रव्यूह में मुसलमान सिर्फ़ उनके काम का है, अपना कोई हित वो यहां नहीं साध सकता, क्योंकि वहां ख़ुद हित ज़्यादा और अवसर कम हैं.

भारत की सियासत में अलग से मुसलमान की बात जब तक होगी तब तक हिंदुत्व ज़िंदा रहेगा. क्या कुछ दशक बिना ‘मुसलमान-अल्पसंख्यक’ का जाप किए राजनीति नहीं हो सकती? करके देखिए.

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