उत्तर प्रदेश चुनाव और मोदी का ‘नैतिक शुद्धिकरण’ प्रोजेक्ट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘नैतिक शुद्धिकरण’ प्रोजेक्ट ने जाति की दीवारों को तोड़ने और एक व्यापक सामाजिक गठजोड़ तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘नैतिक शुद्धिकरण’ प्रोजेक्ट ने जाति की दीवारों को तोड़ने और एक व्यापक सामाजिक गठजोड़ तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई है.

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साभार: नरेंद्र मोदी फेसबुक पेज

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा की अभूतपूर्व जीत का संदेश साफ है- देश के सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश की जनता ने नोटबंदी के पक्ष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नैतिक तर्कों को कमोबेश स्वीकार कर लिया है.

नरेंद्र मोदी नोटबंदी को एक ऊंचे नैतिक लक्ष्य से जोड़ने का संदेश देकर लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब रहे हैं. मोदी ने कहा कि एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था बनाने के लिए समाज के हर तबके के लोगों को कुर्बानी देनी होगी. लोगों ने इस संदेश को स्वीकार किया है. लेकिन, यह एक बेहद जटिल प्रोजेक्ट साबित होने वाला है.

प्रधानमंत्री पर यह दबाव होगा कि वे नई मिली राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल इस प्रोजेक्ट को समर्पण के साथ लागू करने के लिए करें. यूपी के जनादेश का सबसे बड़ा संदेश यही है.

लेकिन, इसके साथ ही मोदी पर समाज के हर तबके से आनुपातिक रूप से बराबर बलिदान मांगने वाले इस ‘नैतिक शुद्धिकरण’ प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने का दबाव भी आ गया है. अब समाज के बेहद अमीर लोगों की कुर्बानियों को इस संदर्भ में देखा जाएगा. इस नैतिक प्रोजेक्ट का एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि अमीरों का अतिरिक्त धन गरीबों के बीच बांटा जाए.

मेरा मानना है कि इस प्रोजेक्ट ने जाति की दीवारों को तोड़कर एक बड़ा सामाजिक गठजोड़ तैयार करने में मोदी की मदद की है. इस संदर्भ में यह याद रखना जरूरी है कि 2014 के बाद राजनीतिक रूप से अहम जिन राज्यों में चुनाव हुए, उनमें भाजपा उत्तर प्रदेश के अलावा कहीं भी लोकसभा वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी.

बिहार, झारखंड, हरियाणा और दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को 2014 की तुलना में करीब पांच फीसदी मतों का नुकसान उठाना पड़ा था. ये बेहद दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश में ऐसा कुछ नहीं हुआ जबकि पिछले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था की हालत लगातार बिगड़ी है और बेरोजगारी बढ़ी है.

अगर आम लोगों के अनुभवों को ध्यान में रखा जाए, तो नोटबंदी ने इस हालत को और बिगाड़ने का काम किया. ऐसे में कई विश्लेषकों को स्वाभाविक रूप से इस बात को लेकर संदेह था कि भाजपा यूपी में लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहरा पाएगी.

भले ही उन्हें यह उम्मीद थी कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी. लेकिन, लोगों ने भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया. मतदाताओं के इस व्यवहार का गहराई से अध्ययन किये जाने की जरूरत है. और यह काम शुद्ध अर्थशास्त्र की चौहद्दी से बाहर निकल कर ही हो सकता है.

लोग मोदी के इस बयान से चकित हुए थे कि हार्वर्ड शिक्षित अर्थशास्त्री धरातल पर चल रही चीजों को देख पाने में नाकाम रहे हैं. लेकिन, हकीकत यह है कि राजनीतिक-आर्थिक पर्यवेक्षक- जिनमें मैं भी शामिल हूं- ‘नैतिक शुद्धिकरण’ की राजनीति के आयामों को पूरी तरह से पकड़ पाने में विफल रहे हैं.

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साभार: नरेंद्र मोदी फेसबुक पेज

यहां तक कि आरएसएस से संबद्ध मजदूर संगठन- भारतीय मजदूर संगठन ने भी नोटबंदी की यह कहते हुए आलोचना की थी कि इसके कारण 2.5 लाख इकाइयां बंद हो गयीं. यह मुमकिन है कि मतदाताओं के व्यवहार को निर्धारित करनेवाले गहरे नैतिक-सांस्कृतिक तत्वों को समझने में कोई तार्किक-विश्लेषणपरक फ्रेमवर्क हमारी मदद न कर पाए.

यह दिलचस्प है कि भले लोगों को आर्थिक रूप से नुकसान का सामना करना पड़ा, फिर भी वे मोदी द्वारा शुरू किये गये नैतिक- सामाजिक प्रोजेक्ट में अपनी इच्छा से भागीदार बनने के लिए तैयार दिखे. यह सब कुछ किस तरह काम कर रहा है, यह तो समय के साथ ही डीकोड किया जा सकेगा.

राज्य सभा सांसद स्वपन दास गुप्ता, जो अक्सर भाजपा के व्यापक राजनीतिक फलसफे को सैंद्धातिक रूप देने का काम करते हैं, ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अपने स्तंभ में तर्क दिया है कि नोटबंदी एक उच्च नैतिक लक्ष्य वाले ‘व्यक्तिगत बलिदान’ के गांधीवादी तत्व से लैस है, जिसकी परिणति अधिक महान स्वतंत्रता में होती है.

एक नजर में यह यह तर्क कई लोगों को आकर्षक जान पड़ सकता है- और उत्तर प्रदेश का वोटर इसका प्रमाण है- लेकिन यह विचार कुछ कदम चलते ही समस्याग्रस्त हो जाता है.

पहली बात, गांधी पितृतुल्य-केंद्रीकृत राज्य द्वारा समाज और जमीनी-समुदाय आधारित संस्थाओं पर अपनी इच्छा थोपने को गहरे संशय से देखते थे. दूसरी बात, हम यह मान भी लें कि लोगों ने नोटबंदी द्वारा प्रस्तावित ‘नैतिक शुद्धिकरण’ प्रोजेक्ट के प्रति सहमति जताई है, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिले अभूतपूर्व जनादेश के पीछे एक मजबूत बहुसंख्यकवादी भावना का हाथ है. यह गांधीवादी विचारों के बिल्कुल विपरीत है.

यूपी चुनावों में बीजेपी द्वारा एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट न देने के कदम को गांधी नैतिक रूप से बचाव न करने लायक कृत्य करार देते. हकीकत यह है कि गांधी भाजपा की तरफ से बार-बार दिये जानेवाले इस तर्क को सिरे से नकार देते कि टिकट देने का एकमात्र आधार उम्मीदवार की जीत हासिल करने की क्षमता है.

गांधी इस तर्क का जवाब आसानी से अपने इस विचार से दे देते कि साधन का महत्व साध्य से कमतर नहीं है. इसलिए भले यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता हो कि यूपी के लोगों ने मोदी के नये प्रोजेक्ट को अपना समर्थन दिया है, लेकिन यह साफ नहीं है कि इसका अंजाम क्या होगा.

खासकर, यह देखते हुए कि इसकी राह में कई मुश्किलें हैं. उम्मीद की जा सकती है कि इसका असर व्यापक लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी महसूस किया जा सकेगा.

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