किसका है ‘कड़कनाथ’: मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विवाद

मुर्गे की कड़कनाथ प्रजाति का जीआई टैग लेने के लिए मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारें अपना-अपना दावा पेश कर रही हैं.

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कड़कनाथ. (फोटो साभार: kadaknathkarinkozhy.blogspot.in)

मुर्गे की कड़कनाथ प्रजाति का जीआई टैग लेने के लिए मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारें अपना-अपना दावा पेश कर रही हैं.

कड़कनाथ. (फोटो साभार: kadaknathkarinkozhy.blogspot.in)
कड़कनाथ. (फोटो साभार: kadaknathkarinkozhy.blogspot.in)

भोपाल: लाजवाब स्वाद के लिए जाने जाने वाले कड़कनाथ मुर्गे की प्रजाति मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बीच विवाद का विषय बनी हुई है. इस प्रजाति के मुर्गे के जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक) को लेकर ये दोनों ही राज्य अपना-अपना दावा पेश कर रहे हैं.

जीआई टैग एक संकेतक होता है जो उस उत्पाद की विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति और विशेषताओं को पहचान देता है. विशेषज्ञों की ओर से जीआई टैग कृषि, प्राकृतिक और निर्माण किए जाने वाले सांस्कृतिक उत्पादों को दिया जाता है.

बहरहाल, इन दोनों पड़ोसी राज्यों ने इस काले पंख वाले मुर्गे की प्रजाति के लिए ‘जीआई टैग’ प्राप्त करने के लिए चेन्नई स्थित भौगोलिक संकेतक पंजीयन कार्यालय में आवेदन दिए हैं.

मध्य प्रदेश का दावा है कि कड़कनाथ मुर्गे की उत्पत्ति प्रदेश के झाबुआ ज़िले में हुई है, जबकि छत्तीसगढ़ का कहना है कि कड़कनाथ को प्रदेश के दंतेवाडा ज़िले में अनोखे तरीके से पाला जाता है और यहां उसका संरक्षण और प्राकृतिक प्रजनन होता है.

विशेषज्ञों के अनुसार, कड़कनाथ के मांस में आयरन एवं प्रोटीन की मात्रा बहुत अधिक होती है, जबकि कॉलेस्ट्राल की मात्रा अन्य प्रजाति के मुर्गों से काफी कम पाई जाती है. इसके अलावा, यह अन्य प्रजातियों के मुर्गों से बहुत अधिक दाम में बेचा जाता है.

मध्य प्रदेश पशुपालन विभाग के अतिरिक्त उप संचालक डॉ. भगवान मंघनानी ने बताया, ‘मध्य प्रदेश को कड़कनाथ मुर्गे के लिए संभवत: जीआई टैग मिल जाएगा. इस प्रजाति का मुख्य स्रोत राज्य का झाबुआ ज़िला है. इस मुर्गे के खून का रंग भी सामान्यतः काले रंग का होता है, जबकि आम मुर्गे के खून का रंग लाल पाया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘झाबुआ ज़िले के आदिवासी इस प्रजाति के मुर्गों का प्रजनन करते हैं. झाबुआ के ग्रामीण विकास ट्रस्ट ने इन आदिवासी परिवारों की ओर से वर्ष 2012 में कड़कनाथ मुर्गे की प्रजाति के लिए जीआई टैग का आवेदन किया है.’

छत्तीसगढ़ ने भी हाल ही में कड़कनाथ मुर्गे के जीआई टैग के लिए दावा किया है.

छत्तीसगढ़ में ग्लोबल बिज़नेस इनक्यूबेटर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के अध्यक्ष श्रीनिवास गोगिनेनी ने बताया कि कड़कनाथ को छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा ज़िले में अनोखे तरीके से पाला जाता है और यहां उसका संरक्षण और प्राकृतिक प्रजनन होता है. इस कंपनी को दंतेवाडा जिला प्रशासन जन-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल के तहत इलाके के आदिवासी लोगों की आजीविका सृजित करने में मदद करने के लिए लाया है.

गोगिनेनी ने कहा, ‘दंतेवाडा प्रशासन ने फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की मदद से ज़िले में कड़कनाथ प्रजाति को अनोखे तरीके से पाले जाने एवं इसका बहुत ज़्यादा उत्पादन होने के कारण पिछले महीने जीआई टैग के लिए आवेदन किया है.’

गोगिनेनी ने बताया कि अकेले दंतेवाड़ा ज़िले में 160 से अधिक कुक्कुट फार्म राज्य सरकार द्वारा समर्थित स्व-सहायता समूहों द्वारा चलाए जा रहे हैं. इनमें सालाना करीब चार लाख कड़कनाथ मुर्गों का उत्पादन होता है.

वहीं, भगवान मंघनानी ने बताया कि मध्य प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही हैचरीज़ में सालाना करीब ढ़ाई लाख कड़कनाथ मुर्गों का उत्पादन किया जाता है.

उन्होंने कहा कि कड़कनाथ के एक किलोग्राम के मांस में कॉलेस्ट्राल की मात्रा करीब 184 मिलीग्राम होती है, जबकि अन्य मुर्गों में करीब 214 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम होती है.

उनका कहना है कि इसी प्रकार कड़कनाथ के मांस में 25 से 27 प्रतिशत प्रोटीन होता है, जबकि अन्य मुर्गों में केवल 16 से 17 प्रतिशत ही प्रोटीन पाया जाता है. इसके अलावा, कड़कनाथ में लगभग एक प्रतिशत चर्बी होती है, जबकि अन्य मुर्गों में 5 से 6 प्रतिशत चर्बी रहती है.

रसगुल्ले को लेकर हुआ था पश्चिम बंगाल और ओडिशा में विवाद

मालूम हो कि रसगुल्ले पर अधिकार को लेकर पश्चिम बंगाल और ओडिशा की सरकारों में पिछले कई वर्षों से विवाद चल रहा था.

दोनों राज्यों के बीच इस बात पर विवाद था कि आख़िर रसगुल्ले को कहां ईज़ाद किया गया? पश्चिम बंगाल सरकार का कहना था कि रसगुल्ले को सबसे पहले उनके यहां बनाया गया, वहीं ओडिशा सरकार का कहना था कि रसगुल्ला उनके राज्य में बनना शुरू हुआ.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, रसगुल्ले पर अपना दावा करते हुए साल 2015 में ओडिशा सरकार ने जीआई टैग लेने की बात कही थी.

उसी साल ओडिशा के विज्ञान व तकनीकी मंत्री प्रदीप कुमार पाणिग्रही ने दावा किया था कि रसगुल्ला 600 वर्ष पहले से उनके राज्य में मौजूद है.

उन्होंने इसका आधार बताते हुए भगवान जगन्नाथ के भोग खीर मोहन से भी जोड़ा था. इतना ही रसगुल्ले का निर्माण ओडिशा में होने का दावा करते हुए उन्होंने 30 मई को ‘रसगुल्ला डिबाशा’ नाम से मनाने की बात कही थी.

ओडिशा के इस दावे के ख़िलाफ़ पश्चिम बंगाल के खाद्य प्रसंस्करण मंत्री अब्दुर्रज़्ज़ाक मोल्ला ने कहा था कि बंगाल रसगुल्ले का आविष्कारक है.

मोल्ला ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह बताया था कि बंगाल रसगुल्ले का जनक है. उन्होंने बताया कि बंगाल के विख्यात मिठाई निर्माता नवीन चंद्र दास ने वर्ष 1868 से पूर्व रसगुल्ले का आविष्कार किया था.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इसके बाद पश्चिम बंगाल सरकार के खाद्य प्रसंस्करण और उद्यान विभाग ने भी साल 2015 में ही ‘बंगलार रसोगुल्ला’ नाम से जीआई टैग लेने का आवेदन किया था.

दोनों राज्यों ने अपने दावे संबंध में ज़रूरी दस्तावेज़ भी दाखिल किए थे.

कई वर्षों तक चले विवाद के बाद पिछले साल 15 नवंबर को केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाले द सेल फॉर आईपीआर प्रमोशन एंड मैनेजमेंट (सीआईपीएएम) ने रसगुल्ले पर पश्चिम बंगाल का अधिकार होने की बात कहीं थी.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सीआईपीएएम ने एक ट्वीट कर कहा था, ‘पश्चिम बंगाल के बंगलार रसोगुल्ला को जीआई टैक दिया जाता है. यह पूरी तरह से सफेद और चाशनी में डूबा हुआ छेने का स्पंजी गोला होता है. बंगलार रसोगुल्ला के मिठाई होती है जो भारत सहित विदेशों में भी काफी लोकप्रिय है.’

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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