गोदी मीडिया के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता को याद किया जाना चाहिए

गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता के ज़रिये ब्रिटिश शासन के साथ-साथ देसी सामंतों को भी निशाने पर लेते थे. उनका दफ़्तर क्रांतिकारियों की शरणस्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र.

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(जन्म 26 अक्टूबर 1890- अवसान: 25 मार्च 1931)

गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता के ज़रिये ब्रिटिश शासन के साथ-साथ देसी सामंतों को भी निशाने पर लेते थे. उनका दफ़्तर क्रांतिकारियों की शरणस्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र.

(जन्म 26 अक्टूबर 1890- अवसान: 25 मार्च 1931)
(जन्म 26 अक्टूबर 1890 – अवसान: 25 मार्च 1931)

आज़ादी के आंदोलन के समय देशव्यापी क्रांतिकारी गतिविधियों को सक्रियता मुख्य रूप से हिंदी के समाचार पत्र-पत्रिकाओं से मिली. हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी जैसी शख़्सियत ने अपने जोश भरे लेखन से क्रांतिकारी आंदोलन को जन आंदोलन से जोड़ने का काम किया.

युवाओं में व्याप्त निराशा को दूर कर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रेरित किया. इसी मिशन के तहत पत्र-पत्रिकाओं और किताबों का प्रकाशन किया. लेखन किया.

एक तरह से लेखन को सामाजिक कर्म बनाया. उसे संवाद का माध्यम बनाया. पत्रकारिता के ज़रिये ऐसा सृजन किया कि पत्र-पत्रिकाएं आज़ादी के आंदोलन में कारगर हथियार बनीं.

विद्यार्थी व उनके संपादन में निकले साप्ताहिक ‘प्रताप’ पर बात करने से पहले उनकी पत्रकारिता की शुरुआती यात्रा पर संक्षिप्त बात करना ज़रूरी है कि आख़िर पत्रकारिता में उन्हें किन विभूतियों का सानिध्य मिला, जहां उनकी पत्रकारिता में निखार आया.

विद्यार्थी जी का इलाहाबाद काल उनके भावी व्यक्तित्व का अहम मोड़ साबित हुआ. पत्रकारिता व गंभीर लेखन का उनका सफ़र यही से प्रारंभ हुआ.

‘स्वराज’ अख़बार से उर्दू में लिखना शुरू किया कि इस बीच पंडित सुंदरलाल के सानिध्य में वह हिंदी की ओर आकृष्ट हुए.

एक लेखक और पत्रकार के रूप में उनकी विधिवत शुरुआत 2 नवंबर 1911 से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका से होती है.

द्विवेदी जी और ‘सरस्वती’ के सानिध्य में उन्हें अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्कारों को विकसित करने का अवसर मिला तो मदन मोहन मालवीय के अखबार ‘अभ्युदय’ के ज़रिये अपने राजनीतिक विचारों को आकार दिया.

‘अभ्युदय’ में काम करते हुए साल भर भी नहीं हुआ था कि 23 सितंबर 1913 को अचानक उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया. उन्हें कानपुर जाना पड़ा.

बीमारी के दौरान मित्रों से बातों का सिलसिला ऐसा चला कि उनका इलाहाबाद और ‘अभ्युदय’ वापस लौटना नहीं हुआ. मित्रों से बातचीत में ही ‘प्रताप’ की योजना ने आकार लिया. महज़ एक-सवा महीने की तैयारी के बीच ‘प्रताप’ का शुभारंभ हो गया.

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में 9 नवंबर 1913 को ‘प्रताप’ की नींव पड़ी. यह काम शिव नारायण मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदा नंदन ने मिलकर किया था.

चारों ने 100-100 रुपये की पूंजी का योगदान दिया था. 400 रुपये की रकम से चार रुपये महीने किराये के मकान से 16 पृष्ठ का ‘प्रताप’ शुरू हुआ था. पहले साल से पृष्ठों की वृद्धि का सिलसिला बढ़ा तो फिर बढ़ता ही रहा.

20 से 24 फिर 28, 32, 36 पृष्ठों का सफ़र तय करते हुए ‘प्रताप’ 40 पृष्ठ तक पहुंच गया. 1930 में 40 पृष्ठ के ‘प्रताप’ का सालाना मूल्य साढ़े तीन रुपये था.

कुछ ही दिन बाद यशोदा नंदन और नारायण प्रसाद अरोड़ा अलग हो गए. शेष शिव नारायण मिश्र और गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ को अपनी कर्मभूमि बना लिया.

‘प्रताप’ के जन्म लेने पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आशीर्वाद स्वरूप दो पंक्तियां विद्यार्थी जी को भेजी थीं. आगे चलकर वही पंक्तियां ‘प्रताप’ की मुख वाणी बनीं:

‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है

वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है’

विद्यार्थी जी पत्रकारिता के ज़रिये ब्रिटिश शासन के साथ-साथ देसी सामंतों को भी निशाने पर लेते थे. उनका दफ़्तर क्रांतिकारियों की शरणस्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र. उन्होंने पत्रकार कला से लेकर संवाददाता और संपादक की भूमिका पर लगातार लिखा.

महज़ पाठक समाज के लिए नहीं बल्कि साहित्य के लिए, नए पत्रकार पैदा करने के लिए, पत्रकारिता के पेशे को मिशन बनाने और मिशन को पेशे के रूप में विकसित करने के लिए भी ध्यान दिया.

सत्याग्रह, जुलूस और सभाओं से लेकर दलीय चुनावी राजनीति में नेतृत्व संभाला, पर अपनी पत्रकारिता को दलीय राजनीति का मोहरा कभी नहीं बनने दिया. उन्होंने ब्रिटिश सरकार से डटकर लोहा लिया.

लेखनी के माध्यम से जनजागरण का उत्कट उद्घोष किया. जन आंदोलन को आगे बढ़ाने के पुरस्कार स्वरूप बार-बार कारावास तक भोगा. गणेश युगीन पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णिम काल थी. उनके बताए या दिखाए रास्ते पर चलकर ही अनेक पत्रकारों ने देश और समाज की सेवा की.

देश के उत्थान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रेरणा से प्रेरित होकर विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ के पहले अंक में राष्ट्रीय पत्रकारिता की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए ‘प्रताप की नीति’ नामक लेख लिखा था. उक्त लेख आदर्श पत्रकारिता के घोषणा पत्र के रूप में आज भी याद किया जाता है.

‘प्रताप’ की नीति स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था:

‘आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूर्ण विश्वास रख कर ‘प्रताप’ कर्मक्षेत्र में आता है. समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत ज़रूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं.’

‘प्रताप’ के ज़रिये अपनी ज़िम्मेदारी लेते हुए लिखा:

‘हम अपने देश और समाज की सेवा के पवित्र काम का भार अपने ऊपर लेते हैं. हम अपने भाइयों और बहनों को उनके कर्तव्य और अधिकार समझाने का यथाशक्ति प्रयत्न करेंगे. राजा और प्रजा में, एक जाति और दूसरी जाति में, एक संस्था और दूसरी संस्था में बैर और विरोध, अशांति और असंतोष न होने देना हम अपना परम कर्तव्य समझेंगे.’

पत्रकारिता में अपने उद्देश्य स्पष्ट करते हुए बताया:

‘किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें अपने सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी. सत्य और न्याय हमारे भीतरी पथ प्रदर्शक होंगे. सांप्रदायिक और व्यक्तिगत झगड़ों से ‘प्रताप’ सदा अलग रहने की कोशिश करेगा. उसका जन्म किसी विशेष सभा, संस्था, व्यक्ति या मत के पालन-पोषण, रक्षण या विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु उसका मत स्वातंत्र्य विचार और उसका धर्म सत्य होगा.

हम जानते हैं कि हमें इस काम में बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा और इसके लिए बड़े भारी साहस और आत्मबल की आवश्यकता है. हमें यह भी अच्छी तरह मालूम है कि हमारा जन्म निर्बलता, पराधीनता और अल्प सत्ता के वायुमंडल में हुआ है. तो भी हमारे हृदय में सत्य की सेवा करने के लिए आगे बढ़ने की इच्छा है.’

पत्रकारिता के ज़रिये वह किसके साथ खड़े होंगे, इसका भी बाकायदा उल्लेख किया:

‘हम न्याय में राजा और प्रजा दोनों का साथ देंगे, परन्तु अन्याय में दोनों में से किसी का भी नहीं. हमारी यह हार्दिक अभिलाषा है कि देश की विविध जातियों, संप्रदायों और वर्णों में परस्पर मेल-मिलाप बढ़े.’

विद्यार्थी जी ने इसी लेख में अपने उद्देश्यों में भटकाव वाली स्थिति को अपनी मौत के समान माना है. ऐसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा:

‘जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें. जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का भी अंत हो जाए.’

एक साल की यात्रा पूरी करने पर ‘प्रताप’ का राष्ट्रीय अंक नाम से विशेषांक निकला. सालाना विशेषांक निकालने के साथ ‘प्रताप’ ने पुस्तिका प्रकाशन की अनोखी परंपरा डाली.

‘एक पीड़ित की प्रार्थना’ नामक उसकी पहली पुस्तिका चंपारण में नील के खेतों के मालिकों के अत्याचारों का आंखों देखा हाल थी. प्रशासन के लिए पुस्तिका की सामग्री असह्य साबित हुई. उसने पुस्तिका को जब्त कर लिया.

गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा शुरू किए गए ‘प्रताप’ समाचार पत्र का एक अंक.
गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा शुरू किए गए ‘प्रताप’ समाचार पत्र का एक अंक.

‘प्रताप’ के साथी विचलित नहीं हुए उल्टे नील के खेतों के मालिकों के ख़िलाफ़ उनका अभियान तेज हो गया. ‘प्रताप’ में प्रकाशित सामग्री ने उसे अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया. इसका अंदाज़ा इसी से लग जाता है कि 1919 में इसकी प्रसार संख्या नौ हज़ार थी.

महज़ छह साल की यात्रा से स्पष्ट हो गया कि विद्यार्थी जी पत्रकारिता की अलग राह कैसे बनाना चाहते हैं. दैनिक पत्र छापने का लक्ष्य लेकर साप्ताहिक का प्रकाशन व बीच-बीच पुस्तिकाओं का प्रकाशन.

हर साल एक-दो विशेषांकों का प्रकाशन और पत्रकारों की नई खेप तैयार करना. यही प्रयास करते-करते साप्ताहिक ‘प्रताप’ की यात्रा 23 नवंबर 1920 को दैनिक तक पहुंची.

इस यात्रा में विद्यार्थी जी के सहयोगी थे- माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, कृष्णदत्त पालीवाल, श्रीराम शर्मा, देवव्रत शास्त्री, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य और युगल किशोर सिंह शास्त्री जैसे ख्यातिलब्ध पत्रकार.

साप्ताहिक की तरह दैनिक ‘प्रताप’ भी राष्ट्रवादी था. अत्याचारी शासकों का घोर विरोधी था. उसकी यही नीति उसका सबसे बड़ा ‘अपराध’ थी. इसका खामियाज़ा उसे भुगतना पड़ा.

सरकार के अलावा देसी रियासतों ने भी उस पर शिकंजा कसने का प्रयास किया. सात-आठ रियासतों ने अपने राज्य में ‘प्रताप’ का जाना बंद कर दिया. महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहयोग आंदोलन के पक्ष में अपनी आहुति देने के बाद दैनिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन 6 जुलाई 1921 को बंद हो गया.

साप्ताहिक ‘प्रताप’ अपनी क्रांतिकारिता एवं स्पष्ट राजनीतिक विचारों के कारण उत्तर भारत का प्रमुख पत्र बन गया था. ज़मानत, चेतावनी व सरकारी धमकियों का वार उस पर होता रहता था.

विद्यार्थी जी इस बात पर भी निगाह रखते थे कि ‘प्रताप’ का दुरुपयोग उनके अनावश्यक प्रचार के लिए न होने पाए. उनके अधिकांश लेख भी वास्तविक नाम के बजाय हरि, दिवाकर, गजेंद्र, लंबोदर, वक्रतुंड, श्रीकांत, एक भारतीय युवक आदि कल्पित नामों से प्रकाशित होते थे. उनका मानना था कि पत्र या पत्रिका के पूरे अंक में संपादक के नाम का उल्लेख एक बार से अधिक नहीं होना चाहिए.

ब्रिटिश शासन के निरंकुश क्रियाकलाप ‘प्रताप’ के निशाने पर रहे. कलकत्ता कांग्रेस की ओर से स्वीकृत असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव का ‘प्रताप’ ने स्वागत किया वहीं पंजाब में हुए शासकीय अत्याचार व जलियांवाला बाग कांड के विरोध में अनेक लेख प्रकाशित किए. संपादक विद्यार्थी जी ने लिखा:

‘यह घोर अन्याय है. यह अन्याय है संसार के इस युग और उसके प्रवाह के प्रति. यह अन्याय है, इस देश और उसके करोड़ों बच्चों के प्रति. अन्याय और स्वेच्छाचार का यह प्रयास असहनीय है और भारतवर्ष की आत्मा यह निश्चय कर चुकी है कि वह रोका जाएगा.’

विद्यार्थी जी पत्रकारिता के ज़रिये ब्रिटिश शासन की दोमुंही नीतियों को कठघरे में खड़ा करते रहे. इसी कड़ी में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर लिखा:

‘अब मात्र इसकी ज़रूरत है कि देश के इस कोने से उस कोने तक लोग मृत्यु से जूझने के लिए तैयार हो जाएं. हम महात्मा गांधी को यह आश्वस्त करना चाहते हैं कि केवल गंगा ही नहीं वरन त्रिवेणी के जल को हम अपने रक्त की प्रचंड धाराओं में बदल देने के लिए तैयार हैं. हिंदू-मुसलमान और इस देश की दूसरी जातियां इस त्रिवेणी में अपना रक्त प्रवाहित करने के लिए तैयार हैं.’

रोलट एक्ट के विरोध में गरम होते राजनीतिक माहौल व गांधीजी की ओर से सत्याग्रह की घोषणा करने से ब्रिटिश सरकार आगबबूला थी. उसने सत्याग्रह का ऐलान करते ही गांधीजी को गिरफ़्तार कर लिया. इस पर विद्यार्थी जी ने ‘संग्राम का आरंभ’ कहते हुए लिखा:

‘गांधी सीधे-साधे हैं. वे सरलता, शांति और निर्दोषिता की मूर्ति हैं. वे भीषण अग्नि के लिए शीतल जल हैं. वे घनघोर घटा के लिए बलवान वायु हैं. जहां वे हों वहां उपद्रव न रहे और जहां उपद्रव हो वहां उनका पहुंचाना शांति के राज्य का पहुंचना है.

ऐसे आदमी पर भारत रक्षा क़ानून के प्रयोग! भारत रक्षा क़ानून! क्या यह क़ानून इस नाम से पुकारे जाने योग्य है? एक ग़ैरक़ानूनी कानून. गाढ़े समय में बनाया गया और एक गाढ़े समय (युद्ध) ही के लिए. देहली में युद्ध नहीं हो रहा था. पंजाब की भूमि मनुष्य के रक्त में तर नहीं हो रही थी.

गांधी ने बम नहीं बनाए थे और न ही वे इसके लिए देहली जा ही रहे थे. फिर भी इस क़ानून के इस्तेमाल की ज़रूरत का पड़ जाना एक ऐसा मुअम्मा है जो छोटी-मोटी अकल में तो आता ही नहीं. परंतु हमारे हाकिमों की बुद्धि उतनी ही विशाल है जितनी की उनकी क्षमता. उनकी निर्विकारिता-उतनी ही असंदिग्ध है जितना कि उनकी क्षमता.’

गणेश शंकर विद्यार्थी राजनीति में गांधीजी से प्रभावित थे तो दूसरी ओर क्रांतिकारियों के बेहद निकट थे. क्रांतिकारियों के लिए हर समय ‘प्रताप’ के दरवाज़े खुले रहते थे. काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को फांसी दिए जाने की घटना ने समूचे देश को शोक संतप्त कर दिया था. इस पर क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखने वाले ‘प्रताप’ ने लिखा:

‘कितना क्रूर समापन रहा? इन्हें मार्गच्युत कहा जा सकता है. लेकिन इनका अपराध क्या था, सिवा इसके कि वे आवेश और देशभक्ति की भावना से भरे हुए युवक थे. यह जानते हुए भी कि ये युवक ग़लत मार्ग पर थे, काकोरी कांड के मुक़दमे के स्वांग का अध्ययन करने के बाद एक बात विचारणीय हो जाती है कि इस देश में नौजवान होना एक महान अपराध है.’

विद्यार्थी जी लाहौर जेल में बंद भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त से मिलने भी गए. दो महीने से जारी उनके अनशन को समाप्त कराने का प्रयास किया. वापस आकर जेल में यातनाएं भुगत रहे राजनीतिक बंदियों की पूरी कहानी पाठकों के सम्मुख रखी. उनकी यह टिप्पणी पहले ही फैल चुकी थी:

‘मैं अहिंसा का पुजारी हूं. इन युवाओं पर लगाए गए हिंसा करने के आरोपों को न मैं सच समझता हूं और न ही उनका समर्थन करता हूं. (फिर भी) युवाओं की दृढ़ प्रतिज्ञा से प्रभावित हूं. (इसलिए) कहता हूं, हम सबको एक स्वर से राजनीतिक बंदियों के प्रति दुर्व्यवहार तथा भेदभाव के विरोध में आवाज़ उठाना चाहिए.’

इससे लोग चकित हो गए कि एक समर्पित गांधी भक्त व कांग्रेसी होकर भी गणेश शंकर विद्यार्थी सशस्त्र क्रांति में विश्वास करने वाले बिस्मिल-अशफ़ाक़-भगत सिंह के सरपरस्त बन गए. यह कैसी पत्रकारिता है?

गणेश शंकर विद्यार्थी. (जन्म: 26 अक्टूबर 1890 – मृत्यु 25 मार्च 1931)

महात्मा गांधी के अहिंसक नेतृत्व और भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों के बीच खड़े विद्यार्थीजी ने ‘युवकों का विद्रोह’ नामक लेख भी लिखा.

क्रांतिकारियों से उनके कैसे ताल्लुक़ात थे इसकी मिसाल रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा का प्रकाशन है. बिस्मिल ने फांसी से तीन दिन पहले जेल में आत्मकथा लिखी थी, जिसे विद्यार्थीजी ने ‘प्रताप’ प्रेस से छापा था.

अपनी शुरुआती सात साल की यात्रा में ‘प्रताप’ हिंदी प्रदेश के किसानों और मज़दूरों की आवाज़ बन गया. उनके आंदोलनों में साथ खड़ा हुआ.

यह बात तत्कालीन सरकार को रास नहीं आ रही थी. इसी कारण ‘प्रताप’ के एक-एक शब्द पर नज़र रखी जाती थी. सबक सिखाने के लिए मौके की तलाश की जाती थी.

इसकी परवाह न कर ‘प्रताप’ में जनवरी 1921 के अंकों में रायबरेली तथा सुल्तानपुर में हुए किसान आंदोलन के समाचार विस्तार के साथ छपे.

नाराज़ प्रांतीय शासन ने संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी व मुद्रक शिव नारायण मिश्र के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत दफ़ा 108 में समन जारी किया. पूछा गया कि उनसे ‘नेकचलनी’ के लिए पांच-पांच हज़ार के मुचलके और दस-दस हज़ार की जमानतें क्यों न ली जाएं?

इस हालात पर विचार करने के लिए प्रताप के ट्रस्टियों की बैठक हुई. विद्यार्थीजी ने संपादक पद से इस्तीफ़ा दे दिया. वह नहीं चाहते थे कि उनके कारण ‘प्रताप’ को 15,000 रुपये का जोखिम उठाना पड़े.

शिव नारायण मिश्र ने तीन दिन पहले ही संबंधित मजिस्ट्रेट के पास सूचना पहुंचा दी कि वह ‘प्रताप’ दैनिक व साप्ताहिक दोनों के मुद्रक-प्रकाशक नहीं रहे.

मजिस्ट्रेट ने घोषणा स्वीकार ली. कृष्णदत्त पालीवाल ने मुद्रक-प्रकाशक के रूप में नया घोषणा पत्र दाख़िल किया. इससे साप्ताहिक ‘प्रताप’ बंद नहीं हुआ.

‘प्रताप’ के ट्रस्टियों ने विद्यार्थीजी का इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं किया. उनका एक साल का अवकाश स्वीकृत कर दिया. रायबरेली अदालत में जब उन्हें राजद्रोह एवं भड़काने वाले लेख लिखने पर प्रथम बार दंडित किया गया तब भी उन्हें केवल एक घंटे बाद ही रिहा करा लिया गया.

उनके शुभचिंतकों ने उनकी तुरंत ज़मानत जमा करा दी थी. परंतु कानपुर पहुंचने पर उन्हें दफ़ा 108 के तहत रायबरेली से समन मिला तो वह उसकी अवहेलना करने पर उतारू हो गए.

उन्होंने संबंधित मजिस्ट्रेट को लिखा कि ज़मानत लेते समय उनसे पूछा नहीं गया था. उन्होंने ज़िला अधिकारी से निवेदन किया कि वह उस ज़मानत को निरस्त समझें. वह जेल जाने को भी उद्यत हो गए.

साथियों के समझाने के बावजूद उन्होंने 16 अक्टूबर 1921 को अपने को अधिकारियों के हवाले कर दिया. शासन यही चाहता था. सारे जतन करने के बाद भी दैनिक ‘प्रताप’ को बचाया नहीं जा सका. उसका प्रकाशन बंद हो गया.

रायबरेली मुक़दमे में उन्हें तीन माह की सज़ा मिली. रायबरेली केस की ज़मानत और मुचलका रद्द करवाकर विद्यार्थी जी जेल गए. वह हारकर भी जीत गए.

‘प्रताप’ के आईने में विदेशी हुकूमत की निरंकुशता सामने आई. इसके बाद तो विद्यार्थी जी के लिए जेल घर-आंगन बन गया.

विद्यार्थीजी ने अपने जीवन में पांच जेल यात्राएं कीं. इनमें तीन ‘प्रताप’ की पत्रकारिता व दो राजनीतिक भाषणों के कारण करनी पड़ीं.

‘प्रताप’ को दूसरा मैनपुरी मानहानि केस लड़ना पड़ा. यह मामला शिकोहाबाद के थानेदार की रिश्वतखोरी की ख़बरें छापने के कारण बना था. मामले में 41 गवाहों के बयान हुए. रिश्वतखोरी के 13 मामले पेश किए गए, लेकिन दोषी इस बार भी अदालत को ‘प्रताप’ के संपादक व प्रकाशक ही नज़र आए.

दोनों अभियुक्तों को चार-चार सौ रुपये जुर्माना और छह-छह महीने जेल की सज़ा मिली. फैसला सुनकर विद्यार्थी जी ने मजिस्ट्रेट से कहा, ‘हमारे साथ घोर अन्याय हुआ है. हम जुर्माना न देकर जेल जाने को तैयार हैं ताकि दुनिया आपके इंसाफ़ का नमूना देख ले.’

वह जेल चले गए. लेकिन मैनपुरी-आगरा क्षेत्र के ‘प्रताप’ के पाठकों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ. उन्होंने जुर्माने की रकम अदा करके 24 घंटे में ही उन्हें जेल से मुक्त करा लिया.

प्रताप समाचार पत्र का एक अंक.
प्रताप समाचार पत्र का एक अंक.

‘प्रताप’ पर तीसरा मामला 1928 में साईंखेड़ा मानहानि केस के नाम से चला. एक महंत और उसके चेले के ढोंग और कुकृत्यों का भंडाफोड़ करने वाले एक लेख के सिलसिले में यह मामला बना था. लेकिन ‘प्रताप’ के शुभचिंतकों की मध्यस्थता से यह बीच में ही समाप्त हो गया.

इन मामलों से साफ़ हो जाता है कि विद्यार्थीजी और ‘प्रताप’ महज़ हवाई किस्म की ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाई नहीं लड़ रहे थे बल्कि ऐसे सभी तत्वों को निशाना बना रहे थे जो सामंती, नौकरशाही और पुरोहितवाद के सरगना के बतौर देश की जनता का शोषण उत्पीड़न कर रहे थे.

रायबरेली व मैनपुरी वाले मामलों में तथा दफ़ा 108 के ज़मानत-मुचलकों के सिलसिले में विद्यार्थी जी की तीन जेल यात्राओं के अलावा दो बार 10-10 महीने की जेल यात्राएं (नैनी व हरदोई) उन्हें कांग्रेस नेता की हैसियत से व्याख्यान (फतेहपुर-1923, कानपुर-1925) देने के कारण करनी पड़ीं.

लखनऊ जेल यात्रा के दौरान 1922 में उन्होंने फ्रांस की राज्य क्रांति वाली पृष्ठभूमि की विक्टर ह्यूगो की अमर कथाकृति ‘नाइंटी थ्री’ का ‘बलिदान’ नाम से रूपांतरित किया तो अंतिम जेल यात्रा (25 मई 1930 से 9 मार्च 1931 तक हरदोई) के दौरान ‘हाथी की फांसी’ नामक कहानी को आकार दिया.

लोकप्रियता की सीढ़ियों पर चढ़ने के बावजूद ‘प्रताप’ लगातार घाटे में चल रहा था. विवश होकर विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ के ज़रिये अपील की कि प्रत्येक ग्राहक कम से कम पांच और ग्राहक बनाए ताकि समाचार पत्र विषम आर्थिक संकट से उबर सके.

इस संकट के बावजूद ‘प्रताप’ की तीसरी सालगिरह पर एक और राष्ट्रीय अंक प्रकाशित किया गया. साथ ही दूसरे देशों में प्रवासी भारतवासियों के शोषण व उनकी मांगों की पूर्ति के लिए अभियान चलाया.

शासन से अनुरोध किया गया कि उनके मूल अधिकारों की रक्षा की जाए. अधिकारों के अनुरोध के लिए ‘कुली प्रथा’ नामक पुस्तिका छापी. अनुरोध ब्रिटिश शासन के लिए आघात बना. उसने पुस्तिका ज़ब्त कर ली.

‘प्रताप’ देश प्रेम से ओत-प्रोत कविताएं भी प्रकाशित करता था. 19 जून 1916 के अंक में ‘दासता’ नामक कविता छपी. उस कविता को राजद्रोहपूर्ण बताकर ‘प्रताप’ पर ज़मानत की सज़ा लगा दी गई.

प्रताप ने ‘न्यू इंडिया’ व ‘कॉमरेड’ नामक पत्रों का उदाहरण देते हुए ज़मानत न मांगे जाने की दलील दी. लेकिन अधिकारी ने ज़मानत न मांगे जाने की आज्ञा को निरस्त कर दिया.

2 नवंबर 1916 को ज़मानत स्वीकार कर ली गई. ‘प्रताप’ को तीसरे साल में भी घाटा उठाना पड़ा. हुकूमत की चेतावनी व शिकंजा कसने की धमकी का किसी तरह का प्रभाव नहीं हुआ.

22 अप्रैल 1918 के अंक में नानक सिंह ‘हमदम’ की ‘सौदा-ए-वतन’ नामक कविता प्रकाशित होते ही शासन बौखला गया. उसने कविता को राजद्रोह पूर्ण घोषित किया.

1916 में ‘प्रताप’ द्वारा एक हज़ार रुपये की जमा जमानत राशि जब्त कर ली और आदेश दिया गया कि पहली जून 1918 की राजकीय विज्ञप्ति के अनुसार पुनः ज़मानत दाख़िल की जाए.

गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ से पहले मदन मोहन मालवीय के समाचार पत्र ‘अभ्युदय’ में काम किया था.
गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ से पहले मदन मोहन मालवीय के समाचार पत्र ‘अभ्युदय’ में काम किया था.

ज़मानत जब्त होने से प्रताप को गहरा धक्का पहुंचा. इससे निजात पाने के लिए उसने पाठकों की ‘अदालत’ में जाने का फैसला किया, जिन्होंने ‘प्रताप’ को लोकप्रियता के शिखर पर बिठा दिया था. ‘प्रताप’ के अगले ही अंक में उसने अपनी विपदा को निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त किया:

‘लगा घाव है अब कठिन रह-रह के होती चमक

रहा काम अब आपका मरहम रखिए या नमक’

इसी अंक के साथ ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद हो गया. लेकिन ताज्जुब करने वाली बात यह कि पाठकों ने चंदा जमा करके ज़मानत के लिए धन एकत्र कर दिया. जमानत जमा कर प्रकाशन पुनः आरंभ हो गया.

पाठकों के इस सहयोग से ‘प्रताप’ का न केवल प्रकाशन शुरू हो गया बल्कि वह अपने पैरों पर खड़ा होने की ताक़त पा गया. उसके सहायता कोश में आठ हज़ार से ऊपर धन जमा हो गया.

जनता का सहयोग मिलते ही विद्यार्थीजी ने ‘प्रताप’ की मिलकियत को सार्वजनिक संपत्ति घोषित कर दिया. ट्रस्ट का गठन होते ही कानपुर के ज़िला अधिकारी ने 24 अप्रैल 1919 को चौंका देने वाला आदेश दिया:

‘मैं प्रताप से ज़मानत न लेने का कोई कारण नहीं देखता. नए प्रिंटर शिव नारायण मिश्र का इस बदनाम पत्र से पुराना संबंध है. बीस मास के भीतर पत्र को दो बार चेतावनी दी गई और एक बार उसकी 1000 रुपये की ज़मानत जब्त की गई.’

पहले प्रिंटर गणेश शंकर विद्यार्थी ने, जो कमेटी में हैं. हाल में कानपुर में होने वाली हड़तालों में विशेष भाग लिया है और आजकल के उपद्रव के समय में यह आवश्यक है कि समाचार पत्रों पर कड़ा अंकुश रखा जाए.

इसलिए मैं 2000 रुपये की ज़मानत मांगता हूं और प्रकाशक को चेतावनी देता हूं कि उसे पत्र प्रकाशित करने की अनुमति उस समय तक नहीं है जब तक कि वह मेरी अदालत में ज़मानत दाख़िल न कर दे.’

‘प्रताप’ ने उस आदेश का भी पालन किया और दो हज़ार की जमानत जमा कर दी. संचालकों का उत्साह पहले की तरह बना रहा. अब ‘प्रताप’ पाठकों का अख़बार हो गया.

विद्यार्थी जी कांग्रेस के एक समर्पित सिपाही थे. इसके बावजूद उसकी चुनावी रणनीति का उन्होंने कभी मन से साथ नहीं दिया.

अनुशासन में बंधे होने के कारण व पार्टी के आदेश पर काउंसिल का चुनाव लड़ा और एक पूंजीपति के मुक़ाबले जीते भी. फिर भी वह कहते थे:

‘मैं हिंदू-मुसलमानों के झगड़े का मूल कारण इलेक्शन आदि को समझता हूं और काउंसिल में जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता.’

विद्यार्थी जी हर तरह की सांप्रदायिकता के विरोधी थे. वह धार्मिक कट्टरता के मामले में शुरू से टक्कर ले रहे थे. हिंदू व मुस्लिम कट्टरता की तीखी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा:

‘कुछ लोग हिंदू राष्ट्र-हिंदू राष्ट्र चिल्लाते हैं. हमें क्षमा किया जाए यदि हम कहें नहीं. हम इस बात पर ज़ोर दें कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक राष्ट्र शब्द के अर्थ ही नहीं समझा. हम भविष्य वक्ता नहीं पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में हिंदू राष्ट्र नहीं हो सकता.’

इसी शैली में उन्होंने मुस्लिम कट्टरता को भी लक्ष्य करके कहा:

‘वे लोग भी इसी प्रकार की भूल कर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं, क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए यदि हम ये कहें कि उनकी क़ब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मर्सिये इसी देश में गाए जाएंगे.’

उस समय अंग्रेज़ शासकों की ओर से भारतीयों के बीच आपस में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत के बीज बोए जा रहे थे. उन्हें लड़ाया जा रहा था.

इसी दौरान दिल्ली और नागपुर में सांप्रदायिक दंगे हुए. व्यथित विद्यार्थी जी ने ‘मज़हबी पागलपन’ नामक अग्रलेख लिखकर उसमें शामिल स्वार्थी तत्वों की आलोचना की.

सांप्रदायिक घटनाओं के लिए ‘प्रताप’ उन लोगों को अधिक दोषी मानता था जो अपने निजी हित के लिए लोगों को बरगला कर ऐसे कुकृत्य कराते हैं.

विद्यार्थी जी अपनी अंतिम जेल यात्रा से जिस समय लौटे (9 मार्च 1931) थे उस समय देश में सांप्रदायिक उपद्रव चल रहा था. इसी बीच कराची में कांग्रेस का अधिवेशन होना था.

वह भी जाने की तैयारी में थे. लेकिन कानपुर में ‘हिंदू-मुस्लिम दंगा’ हो गया. ऐसी स्थिति में कानपुर में रहना उचित समझा. उन्होंने देखा कि ब्रिटिश सरकार इस भयावह स्थिति में पूरी तरह मौन है.

इसे देखते हुए वह सांप्रदायिकता की आग बुझाने के लिए मैदान में कूद पड़े. वह स्वयं सेवकों को साथ लेकर हिंदू मोहल्लों से मुसलमानों को निकालते. मुसलमानों के मोहल्लों से हिंदुओं को बचाते.

सुबह से शाम तक उनका यही क्रम चलता रहता था. भगत सिंह आदि क्रांतिकारियों को फांसी देने का समाचार सुनकर देश भर में आक्रोश फैल गया.

कानपुर में अधिकारियों ने जन आक्रोश को सांप्रदायिक दंगे की संज्ञा देकर उसकी आड़ में 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी की हत्या करा दी.

इस प्रकार भगत सिंह को फांसी लगने के तीसरे दिन वह भी उस पथ के पथिक बन गए जिस पर मातृभूमि की मुक्ति के लिए शीश चढ़ाने अनेक वीर जा चुके थे.

सभी पत्रों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लेख प्रकाशित किए. ‘आज’ ने लिखा:

‘हम प्यारे गणेश शंकर के लिए नहीं रोते. वह अपना कर्तव्य पालन करते-करते स्वर्गलोक को सिधार गए. हमें रुलाई अपनी असहायता पर आ रही है कि देश को इस तरह आत्महत्या करते देखकर भी हम उसे रोकने में असमर्थ हैं. हमें रुलाई उन लोगों की बुद्धि पर आती है जो समझते हैं कि ऐसे रक्तपात के बिना हम अपनी रक्षा न कर सकेंगे. हमें रुलाई आती है भारत माता का खिन्न मुखमंडल देखकर.’

गांधीजी ने ‘प्रताप’ के संयुक्त संपादक को तार भेजा था:

‘कलेजा फट रहा है तो भी गणेश शंकर की इतनी शानदार मृत्यु के लिए शोक संदेश नहीं दूंगा. उनका परिवार शोक संदेश का नहीं बधाई का पात्र है. इसकी मिसाल अनुकरणीय सिद्ध हो.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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