2019 के बाद भी मूर्ति तोड़ने वाले बेरोज़गार नहीं होंगे

मूर्तियों का गिराया जाना महज़ किसी पत्थर की निर्जीव प्रतिमा को ख़त्म किया जाना नहीं है. वह उस विचार, उस मूल्य को ज़मींदोज करने की कोशिश है, जिसका प्रतिनिधित्व वह प्रतिमा करती थी.

मूर्तियों का गिराया जाना महज़ किसी पत्थर की निर्जीव प्रतिमा को ख़त्म किया जाना नहीं है. वह उस विचार, उस मूल्य को ज़मींदोज करने की कोशिश है, जिसका प्रतिनिधित्व वह प्रतिमा करती थी.

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(बाएं से) त्रिपुरा में गिराई गई लेनिन की प्रतिमा, पश्चिम बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति को नुकसान पहुंचाया गया, तमिलनाडु में क्षतिग्रस्त पेरियार की प्रतिमा, त्रिपुरा के बेलोनिया शहर में ढहाई गई लेनिन की मूर्ति (फोटो साभार: एएनआई/फेसबुक)

भारत में मूर्तियों का तोड़ा जाना कोई नया अनुभव नहीं है, पर यह काम हमेशा हमलावरों ने ही किया है. मध्यकाल में ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया से हमलावर भारत में आए और उन्होंने हमारे मंदिरों में लगी मूर्तियों को बेरहमी से तोड़ा.

उनके इस उन्मादी धार्मिक, सांस्कृतिक व वैचारिक हमले के निशान आज भी पूरे देश में बिखरे हुए हैं. 90 के दशक में बाबरी मस्जिद ढांचे को तोड़ते हुए देखा गया और उसका विवाद व उन्माद आज भी देश को अपनी लपेट में लिए हुए है.

पिछले दिनों त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति और तमिलनाडु में तमिलों के दलित नेता पेरियार की मूर्ति को तोड़ा जाना भी उसी उन्माद का विस्तार है, जिसका असर उत्तर प्रदेश में भी दिखाई दिया और वहां चार जगह दलित नेता डॉ. आंबेडकर की मूतियों को तोड़ा गया.

प्रतिक्रिया में पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद की मूर्ति पर हमला हुआ. इन सबके बीच राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी नहीं बख्शा गया और केरल के कन्नूर जिले में उनकी प्रतिमा से भी छेड़छाड़ की गई.

कोई भी राष्ट्र या समाज अपने निर्माताओं व विचारकों की प्रतिमाएं उनके आदर्शों व विचारों को सदियों तक जिंदा रखने और आने वाली पीढ़ियों को उनसे अवगत कराते रहने के लिए लगाता है.

बाहर से आने वालों को उनके माध्यम से उस राष्ट्र या समाज के सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक मूल्यों व निर्माण के संघर्ष की झलक मिलती है, इसलिए इनको तोड़ा या गिराया जाना मात्र किसी पत्थर की निर्जीव मूर्ति को खत्म किया जाना नहीं है वह तो उस विचार, उस मूल्य को जमींदोज करने की कोशिश है जिसका प्रतिनिधित्व वह प्रतिमा करती थी.

इसका अर्थ यह भी है कि प्रतिमा को तोड़ने वाला उस विचार का विरोधी ही नहीं उसके प्रति असहिष्णु भी है, उसे अपने मार्ग का रोड़ा मानता है और इसीलिए उसे पूरी तरह खत्म कर देना चाहता है.

त्रिपुरा में लंबे अरसे के बाद पहली बार भाजपा के सत्ता में आने पर उसके कार्यकर्ताओं ने जिस तरह वामपंथी शासकों के आदर्श सोवियत रूस के शासक लेनिन की प्रतिमा को बेलोनिया में ‘भारत माता की जय’ के नारों के बीच क्रेन से जमींदोज किया उससे साफ था कि वे वामपंथियों से नफरत करते हैं और उन्हें किसी सूरत बर्दाश्त करने को तैयार नहीं.

त्रिपुरा के बेलोनिया शहर में लेनिन की क्षतिग्रस्त प्रतिमा. (फोटो साभार: फेसबुक)
त्रिपुरा के बेलोनिया शहर में लेनिन की क्षतिग्रस्त प्रतिमा. (फोटो साभार: फेसबुक)

उनकी नफरत इस हद तक है कि वे उनके इस इतिहास चिह्न को भी बनाए रखना नहीं चाहते. उन्हें डर है कि भविष्य में लेनिन की मूर्ति को देख उनकी विचारधारा के प्रति प्रेरित हो सकता है या फिर कोई पूछ सकता है कि क्या यहां वामपंथी भी कभी सक्रिय रहे थे. उनकी निगाह में ये सवाल उनकी अस्मिता को चुनौती देने वाले हैं.

तमिलनाडु में तो उन्होंने हद ही कर दी. वहां जिन द्रविड़ों के जरिए वे सत्ता हासिल करने की कोशिश में हैं, उन्हीं के भीष्म पितामह पेरियार ईवी रामासामी  की मूर्ति को तोड़ने के लिए भाजपा नेता एच राजा ने अपने कार्यकर्ताओं को उकसाया और त्रिपुरा में लेनिन के मूर्ति तोड़े जाने के अगले ही दिन चेन्नई में उन्होंने पेरियार की मूर्ति को तोड़ दिया.

हिंसक असहिष्णुता का नतीजा हिंसक प्रतिरोध ही होता है और दोनों जगह वही हुआ. पश्चिम बंगाल में जहां विरोधी दल की सरकार है, संघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा को निशाना बनाया गया. उन्माद का जवाब उन्माद से.

अपनी सत्ता के विस्तार में लगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके भावी राजनीतिक नतीजों से वाकिफ हैं इसीलिए उन्होंने तुरत-फुरत प्रतिमा भंजन के विरोध में बयान जारी किया और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए कहा.

उसके साथ ही केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी सक्रिय हो गए और मूर्तियां तोड़े जाने वालों को आगाह किया. इसके बावजूद अगर उनके अपने ही राज्य उत्तर प्रदेश में दलित नेता डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों को चार जगह तोड़ा गया तो इसलिए कि वहां भाजपा कार्यकर्ता दलितों को अपने बराबर खड़े होते देखना नहीं चाहता. यहां उसकी घृणा राजनीतिक से कहीं ज्यादा सामाजिक है. और क्योंकि पार्टी सत्ता में हैं तो उसके हौसले बुलंद हैं.

कहा जा सकता है कि मूर्तियों को तोड़कर आप अपना विस्तार नहीं कर सकते पर यह भी सच है कि विस्तार की प्रक्रिया में ही हर उस चीज को नष्ट करने की कोशिश की जाती है जिसे आप अपने मार्ग की बाधा मानते हैं या जो अब तक आपको आगे आने से रोकती रही है.

आज जब आप बलवान हैं और उसके साथ साथ असहिष्णु भी तो आप उस हर बाधा को मार्ग से हटाएंगे ही. इसलिए आरएसएस के विचार के लिए गोरक्षा के नाम पर कत्ल होने जारी हैं और मूर्तियों का टूटना भी जारी रहेगा.

सत्ता मिल जाती है तो अहंकार में, नहीं मिलती है तो निराशा में. मानकर चलिए 2019 के बाद भी फिलहाल मूर्ति भंजक बेरोजगार होने वाले नहीं. यह अलग बात है कि यह उनकी पार्टी के लिए कारसेवा ही होगी.

(नीलम गुप्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं.)