क्यों आईआईएम में वंचित समुदाय से आने वाले शिक्षकों के लिए जगह नहीं है?

एक सर्वे के अनुसार, देश के छह आईआईएम में जुलाई 2015 तक कुल 233 शिक्षक थे. इनमें से सिर्फ़ दो अनुसूचित जाति और पांच अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं. अनुसूचित जनजाति से कोई भी शिक्षक यहां नहीं था.

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एक सर्वे के अनुसार, देश के छह आईआईएम में जुलाई 2015 तक कुल 233 शिक्षक थे. इनमें से सिर्फ़ दो अनुसूचित जाति और पांच अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं. अनुसूचित जनजाति से कोई भी शिक्षक यहां नहीं था.

IIM Kolkata
आईआईएम कलकत्ता भारत का पहला भारतीय प्रबंधन संस्थान है. इसकी स्थापना 1961 में की गई. (फोटो साभार: http://www.wordlypost.in)

मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बीती नौ फरवरी को भारतीय संस्थान प्रबंधन विधेयक, 2017 (आईआईएम विधेयक) को संसद में पेश किया. इस विधेयक का उद्देश्य मौजूदा 20 भारतीय प्रबंधन संस्थानों को डिप्लोमा के बजाय परास्नातक और डॉक्टरेट की डिग्री दे पाने का अधिकार देना है.

यह विधेयक मंत्रालय और प्रबंधन संस्थानों के बीच पिछले दो सालों से निरंतर चल रही बातचीत का नतीजा है जिसका मुख्य मुद्दा इन संस्थानों के प्रशासन में केंद्र सरकार की भूमिका की सीमाएं तय करना था.

आईआईएम चाहते थे कि उन पर सरकारी नियंत्रण कम से कम हो और प्रशासन के मामलों में संस्थानों को पूर्ण स्वायत्तता दी जाए ताकि ये संस्थान अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों का दर्जा हासिल कर पाएं.

यह सराहनीय है कि मौजूदा विधेयक इन संस्थानों को अधिकतम स्वायत्तता देता है लेकिन एक पहलू जिसे यह विधेयक नज़रअंदाज़ करता है वह है सामाजिक विभिन्नता.

अगर भारतीय प्रबंधन संस्थानों में कार्यरत प्राध्यापकों के संदर्भ में सामाजिक विविधता के सवाल को उठाया जाए तो जो तथ्य सामने आते हैं वे हैरान करने वाले होते हैं. (देखें चार्ट-1).

IIM Chart 1
चार्ट- 1

हमने जुलाई 2016 और फरवरी 2017 में सूचना के अधिकार कानून के तहत उस वक्त तक कार्यात्मक 13 आईआईएम से यह पूछा था कि इन संस्थानों में कार्यरत प्राध्यापकों में से कितने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्गों से हैं.

इन 13 आईआईएम में से कुल छह आईआईएम (इंदौर, कोझीकोड, रोहतक, रायपुर, रांची और काशीपुर) ने हमें अनुरोधित जानकारी उपलब्ध कराई जबकि अन्य प्रबंधन संस्थानों ने हमारे सवाल का या तो जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा या यह कहा कि उनके पास यह जानकारी मौज़ूद ही नहीं है.

जिन छह आईआईएम से हमें जवाब मिले हैं उनमें जुलाई 2015 तक कुल 233 प्राध्यापक कार्यरत थे. इनमें से सिर्फ़ दो प्राध्यापक अनुसूचित जाति से हैं और पांच प्राध्यापक अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं. इन छह आईआईएम में अनुसूचित जनजाति से एक भी प्राध्यापक नहीं है.

इस प्रकार 233 में से 226 प्राध्यापक यानी लगभग 97 प्रतिशत प्राध्यापक समाज के एक ख़ास तबके से आते हैं जिसकी आम आबादी में संख्या 15 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं है. यह स्थिति सिर्फ़ इन इन छह आईआईएम की नहीं है.

अनौपचारिक रूप से बाकी संस्थानों में पूछताछ करने पर हमें इस बात की पुष्टि हो गई कि वहां भी सामाजिक विविधता की स्थिति उतनी ही निराशाजनक है.

आईआईएम और मंत्रालय के बीच चल रही बातचीत के दौरान जब भी आईआईएम में अध्यापन के पदों के लिए आरक्षण का सवाल उठाया जाता था तब आईआईएम के निदेशक यह कहकर इसे खारिज़ कर देते थे कि इन पिछड़े समुदायों से ‘उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी’ की वजह से किसी भी तरह के सकारात्मक भेदभाव के प्रावधान अप्रभावी सिद्ध होंगे.

इसलिए सरकार से विधेयक के संबंध में हुई बातचीत में ऐसी छवि गढ़ी गई कि जैसे आईआईएम विविधता के लिए बहुत प्रतिबद्ध हैं लेकिन ‘उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी’ की वजह से ये अपने आपको बेबस महसूस करते हैं.

विधेयक को देखें तो ऐसा ही लगता है कि आईआईएम के द्वारा पिलाई गई इस घुट्टी को केंद्र सरकार ने बिना पानी के ही निगल लिया है. विधेयक में इस प्रश्न से संबंधित जो प्रावधान हैं वह सिर्फ़ यह कहता है कि अगर आईआईएम चाहें तो वह प्राध्यापकों के पदों में समता लाने के लिए कोई भी विशिष्ट कदम उठाने के लिए सक्षम होंगे.

यानी कि अगर वह चाहें तो कदम न भी उठाएं. हमारी नज़रों में यह खुली छूट इसलिए संदिग्ध है क्योंकि अगर आईआईएम के इतिहास को देखा जाए तो जाति-आधारित सामाजिक समता के प्रश्नों पर आईआईएम का रवैया हमेशा सुस्त व ठंडा ही रहा है.

देश के तीन सबसे पुराने आईआईएम (अहमदाबाद, बंगलुरु और कलकत्ता) कम से कम पिछले तीन दशकों से डॉक्टरेट की डिग्री प्रदान करने वाले कार्यक्रम चला रहे हैं.

मौजूदा 13 आईआईएम की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, इन सभी संस्थानों में कार्यरत प्राध्यापक में से 31 प्रतिशत प्राध्यापकों ने किसी न किसी आईआईएम से ही अपनी डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है (देखें चार्ट 2).

IIM Chart 2
चार्ट- 2

अगर आईआईएम सामाजिक विविधता को प्रोत्साहित करने के बारे में थोड़ा भी गंभीर होते तो वह इन डॉक्टरेट कार्यक्रमों के दाख़िलों में विविधता लाने वाली सकारात्मक नीतियों को लागू कर सकते थे.

अगर ये कदम उठाए गए होते तो इन डॉक्टरेट कार्यक्रमों में प्रशिक्षित होकर निकलने वाले गुटों में समाज के विभिन वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होता और आईआईएम ‘उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी’ का बहाना न दे पाते. हमने यह भी पाया कि आईआईएम में कार्यरत प्राध्यापकों में से 26 प्रतिशत प्राध्यापक विदेशी विश्वविद्यालयों से प्रशिक्षित हो कर आए हैं.

इनमें से कई प्राध्यापक ख़ुद विदेशी विश्वविद्यालयों द्वारा अपनाई गई उन नीतियों के लाभार्थी हैं जिनके तहत भारतीय/एशियाई मूल के उम्मीदवारों को दाखिलों में प्राथमिकता दी जाती है. कम से कम इन प्राध्यापकों को शैक्षिक संस्थान में सामाजिक विभिन्नता की अहमियत और ज़रूरत के बारे में यक़ीन दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.

इस ऐतिहासिक उपेक्षा और आईआईएम विधेयक द्वारा इन संस्थानों को दी जा रही अभूतपूर्व स्वायत्तता को मद्देनज़र रखते हुए यह तय है कि प्राध्यापकों के पदों में अधिक से अधिक सामाजिक विविधता की दिशा में प्रगति करने के लिए रचनात्मक तरीके खोजने का दायित्व अब आईआईएम के कंधे पर है.

अगर अब भी इन अभिजात्य प्रबंधन संस्थानों ने इस दिशा में स्पष्ट रूप से प्रगति नहीं दर्शाई तो उपेक्षा के दोषी ये ख़ुद होंगे. भारत में प्रबंधन शिक्षा के शीर्ष पर होने के नाते और ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं’ का ताज पहनाया जाने के कगार पर होने के नाते, यह ज़रूरी हो जाता है कि ये संस्थान उच्च शिक्षा में सामाजिक विविधता को बढ़ावा देने में बाकी संस्थानों की अगुवाई करके अपनी प्रतिष्ठा की वैधता साबित करें.

जिस तेजी से भारतीय समाज में उच्च पदों में सामाजिक बराबरी की भूख बढ़ती जा रही है, अगर अगर शुतुरमुर्ग की तरह अपना मुंह जमीन में गड़ा के यथास्थिति से चिपके रहे तो उनकी सामाजिक वैधता का संकट दूर नहीं है.

अगर 97% प्राध्यापक एक ही तबके से आते रहेंगे तो देर-सवेर यह सवाल तो उठना ही है की यह संस्थान पूरे समाज की संपत्ति कैसे हुए? अगर अभिजात्य वर्गों का वर्चस्व इसी तरह बना रहा तो सार्वजनिक संस्थानों के रूप में आईआईएम को हासिल अद्वितीय विशेषाधिकारों पर उठने वाली उंगलियों की संख्या बढ़ेगी.

समता के उमड़ते इस सैलाब के बीच आईआईएम ज़्यादा देर तक अनन्यता के द्वीप नहीं बने रह सकते हैं. इसलिए यह अनिवार्य है कि आईआईएम अपने प्राध्यापकों की सामाजिक संरचना में विविधता के अभाव का संज्ञान लें और इसका समाधान करें.

सामाजिक विभिन्नता बढ़ने के लिए लागू किए जाने वाले सकारात्मक कार्यक्रम की उपयुक्त रूपरेखा निर्धारित करने का काम भले ही व्यक्तिगत आईआईएम पर छोड़ा जा सकता है पर विधेयक में यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि आईआईएम के पास ऐसा करने से इनकार करने का विकल्प नहीं है.

इस प्रकार विधेयक में ऐसे संशोधनों की ज़रूरत है जो आईआईएम को सामाजिक विभिन्नता की दिशा में स्पष्ट रूप से प्रगति करने के लिए बाधित करते हों और ऐसा नहीं करने पर उनकी जवाबदेही निर्धारित करते हों.

(दोनों लेखक भारतीय प्रबंधन संस्थान, बंगलुरु से हैं.)

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