जब चुनाव हार गए थे बाबा साहब भीमराव आंबेडकर

जन्मदिन विशेष: भारत के जिस संविधान का भीमराव आंबेडकर को निर्माता कहा जाता है उसके लागू होने के बाद 1952 में हुए देश के पहले लोकसभा चुनाव में वे बुरी तरह हार गए थे.

//
(फोटो साभार: अरिजीत)

जन्मदिन विशेष: भारत के जिस संविधान का भीमराव आंबेडकर को निर्माता कहा जाता है उसके लागू होने के बाद 1952 में हुए देश के पहले लोकसभा चुनाव में वे बुरी तरह हार गए थे.

346404-ambedkar-statue-delhi-arijit-sen-1024x576

आज, भारतरत्न बाबा साहब डाॅ भीमराव आंबेडकर की एक सौ छब्बीसवीं जयंती पर उन्हें याद करते हुए देश की नई पीढ़ी के लिए यह जानना दिलचस्प है कि भारत के जिस संविधान का उन्हें निर्माता कहा जाता है 26 नवंबर, 1949 को उसके अधिनियमित, आत्मार्पित व अंगीकृत होने के बाद 1952 में संपन्न हुए देश के पहले लोकसभा चुनाव में वे बुरी तरह हार गए थे. उनकी यह चुनावी पराजय लंबे समय तक चर्चा का विषय बनी रही थी. वैसे ही, जैसे समाजवादी चिंतक आचार्य नरेंद्र देव की फैजाबाद में उत्तर प्रदेश विधानसभा के पहले उपचुनाव में हुई अप्रत्याशित हार.

दुर्भाग्य से, बाबासाहब की जयंतियों व निर्वाण दिवसों पर अनेकानेक समारोही आयोजनों के बावजूद हमारी नई पीढ़ी को उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के बारे में ज्यादा जानकारियां नहीं हैं. उनके लिखे-पढ़े और कहे पर भी या तो चर्चा ही नहीं होती या खास राजनीतिक नजरिए से होती है, जिस कारण उनका असली मन्तव्य सामने नहीं आ पाता.

सो, कम ही लोग जानते हैं कि आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में बनी देश की पहली अंतरिम सरकार में वे विधि और न्यायमंत्री हुआ करते थे. बाद में कई मुद्दों पर कांग्रेस से नीतिगत मतभेदों के कारण उन्होंने 27 सितंबर, 1951 को पंडित नेहरू को पत्र लिखकर मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और अपने द्वारा 1942 में गठित जिस शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन यानी अनुसूचित जाति संघ को स्वतंत्रता संघर्ष की व्यस्तताओं के कारण ठीक से खड़ा नहीं कर पाये थे, उसको नए सिरे से मजबूत करने में लग गए.

1952 का पहला आम चुनाव आया तो उन्होंने उक्त फेडरेशन के बैनर पर 35 प्रत्याशी खड़े किए. लेकिन उन दिनों देशवासियों में कांग्रेस के प्रति कुछ ऐसा कृतज्ञता का भाव था कि उनके सिर्फ दो ही प्रत्याशी जीत सके. खुद डाॅ. आंबेडकर महाराष्ट्र की बंबई शहर उत्तरी सीट से चुनाव हार गए. उन दिनों की व्यवस्था के अनुसार इस सीट से दो सांसद चुने जाने थे और दोनों कांग्रेसी चुन लिए गए.

बाबा साहब को 1,23,576 वोट मिले जबकि कांग्रेस के प्रत्याशी काजरोल्कर को 1,37,950 वोट. यह हार डाॅ. आंबेडकर के लिए इस कारण कुछ ज्यादा ही पीड़ादायक थी कि महाराष्ट्र उनकी कर्मभूमि हुआ करता था. तिस पर कोढ़ में खाज यह कि मई, 1952 में लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में वे फिर खड़े हुए तो भी अपनी हार नहीं टाल सके. लेकिन इन शिकस्तों से उनके राजनीतिक जीवन पर इसलिए ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उन दिनों बड़े नेता चुनावों की जीत-हार को ज्यादा महत्व नहीं देते थे और उन्हें अपनी नीतियों व विचारों को जनता के बीच ले जाने और प्रचारित करने के अवसरों के रूप में लेते थे.

अलबत्ता, बाद में बाबा साहब ने स्टेट कौंसिल में मुम्बई को आवंटित 17 सीटों में से एक पर परचा भरा तो वहां से निर्वाचित हो गये थे. इस संदर्भ में यह जानना भी जरूरी है कि बाबा साहब की इन्हीं हारों की बिना पर उनसे असहमत नेता व पार्टियां तर्क दिया करती थीं कि उन्हें दलितों का नेतृत्व करने या उनकी ओर से बोलने का नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि दलित तो उन्हें वोट ही नहीं देते और वे उनके साथ होने के बजाय महात्मा गांधी के पीछे एकजुट हैं.

प्रसंगवश, जिस संविधान के निर्माण में बाबासाहब ने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया, पहले उसके लिए बनी संविधान सभा के सदस्यों में भी उनका नाम नहीं था. बाबा साहब के समर्थकों को यह बात ठीक नहीं लगी तो बंगाल के एक दलित सदस्य ने संविधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर उनकी सदस्यता का रास्ता साफ किया था.

काबिल-ए-गौर है कि बाबा साहब की ही तरह भारतीय जनसंघ के संस्थापक डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी पंडित नेहरू की अंतरिम सरकार में शामिल थे. 1952 के लोकसभा के आम चुनाव में उन्होंने जनसंघ के 94 उम्मीदवार खड़े किये थे, जिनमें से तीन को जीत हासिल हुई थी.

वे स्वयं कल्कत्ता दक्षिण पूर्व से और उनका एक उम्मीदवार मिदना झाड़ग्राम से जीता था. उन्हें तीसरी सीट राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से हासिल हुई थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq