सामाजिक न्याय को चुनावी तिकड़म से आगे ले जाने की ज़रूरत है

सामाजिक न्याय के इच्छुक जाति समूहों का एक बड़ा मध्यवर्ग तैयार है, जो सामूहिक रूप से निर्णायक स्थिति में है. ज़रूरत है इनके नेतृत्व और सहयोग से सामाजिक न्याय को दूसरे चरण तक ले जाने की, वरना राजनीति का दूसरा पक्ष पहले से ही तैयार है.

//

सामाजिक न्याय के इच्छुक जाति समूहों का एक बड़ा मध्यवर्ग तैयार है, जो सामूहिक रूप से निर्णायक स्थिति में है. ज़रूरत है इनके नेतृत्व और सहयोग से सामाजिक न्याय को दूसरे चरण तक ले जाने की, वरना राजनीति का दूसरा पक्ष पहले से ही तैयार है.

Lucknow: Samajwadi Party Mulayam Singh Yadav
मंत्री पद की शपथ लेने के बाद मुलायम सिंह के पांच छूकर आशीर्वाद लेते गायत्री प्रजापति. (फाइल फोटो)

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम का लखनऊ की ताजपोशी से ज़्यादा बड़ा महत्व है. चुनाव परिणाम से लेकर मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ के चुनाव तक एक चरण है, जिससे राजनीतिक बदलाव का एक कोर्स पूरा होता है. इस कोर्स को समझने के लिए अति सक्रिय मीडिया के समय में तैयार पैकेज जैसे विश्लेषण से बचना होगा, यानी जो जीते उसके लिए पैकेज तैयार रखा जाए, जीत के महिमामंडन का, उससे बचना होगा.

विजेता का गुणगान

चुनाव परिणाम के साथ ही स्पष्ट सा सवाल बना कि क्या मायावती की राजनीति चुक गई है, या मुलायम की राजनीति का अवसान हो गया है? यही सवाल भारतीय जनता पार्टी की बिहार में जीत के बाद होते कि क्या लालू-प्रसाद और नीतीश कुमार की राजनीति का पटाक्षेप हो गया है? बिहार में यह सवाल नहीं बना क्योंकि चुनावपूर्व के गठबंधन के कारण लालू-नीतीश की जोड़ी जीत गई और जीत के बाद तैयार पैकेज के अनुरूप हमारे विश्लेषण विजेताओं के पक्ष में ख़ूब सामने आये. उत्तर प्रदेश में भी चुनावपूर्व गठबंधन यदि सपा-बसपा के बीच संभव हो पाता तो मत प्रतिशत बता रहे हैं कि परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं जाने वाला था और फिर हमारे विश्लेषण विजेता के गुणगान से भर गए होते.

हवा में उड़ गए जय श्रीराम

सवाल यह कि बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का मिलना और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का कोई संभावित मिलना क्या मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के मिलने से अधिक राजनीतिक निहितार्थ रखता है? मेरे विचार से नहीं. तब उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में हिंदुत्व के प्रयोग शीर्ष पर थे, ऐसा लग रहा था कि बाबरी मस्जिद को हिंदू बलवाइयों द्वारा गिराए जाने के बाद हिंदुत्व उफ़ान पर है और उत्तर प्रदेश में भाजपा की पहली सरकार बनने ही वाली है. तभी उत्तर प्रदेश में नारा बुलंद हुआ- मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्रीराम. और भाजपा बाबरी मस्जिद गिराए जाने और राष्ट्रपति शासन के बाद हुए चुनाव में हार गई.

इस सवाल को और तफ्सील से समझने के लिए समझना यह होगा कि 9वें दशक के उस दौर के राजनीतिक परिदृश्य में क्या-क्या घट रहा था. दशक शुरू होने के पहले ही वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की एक प्रमुख सिफारिश, पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण, लागू कर दिया था- जिसके समर्थन और विरोध का माहौल पूरे देश में था. इसके तुरंत बाद भाजपा के तब फायर ब्रांड नेता माने जाने वाले आडवाणी ने राम मंदिर के निर्माण के लिए रथयात्रा शुरू कर दी थी.

दो साल बाद केंद्र की सरकार ने उदारीकरण की नीति लागू कर दी, देश की अर्थव्यवस्था का नया अध्याय शुरू हो गया था. दोआबा क्षेत्र यानी गंगा-यमुना के इलाक़े में मंडल समर्थकों की न सिर्फ़ सरकारें बनीं, बल्कि इसके समर्थक नेताओं का प्रभाव भारत की राष्ट्रीय राजनीति में स्थाई भाव की तरह दिखने लगा. जब बिहार में लालू प्रसाद और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार बनी और गंगा क्षेत्र के इन दो बड़े राज्यों पर मध्यजातियों की राजनीति का एक अध्याय बनता दिखा तभी गौर करने लायक है कि हिंदुत्व की शाखाएं और उनकी राजनीतिक विरासत वाली पार्टी भाजपा रथयात्रा के अलावा क्या कर रही थीं? भाजपा मध्यजातियों के बीच अतिपिछड़े समूह से ही कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार जैसे ओबीसी नेतृत्व को उभार रही थी और उन्हें हिंदुत्व की भट्टी में तपा भी रही थी.

सामाजिक न्याय के रथ पर हिंदुत्व की आगवानी

यानी ओबीसी और दलित नेतृत्व के उभार के दो कांट्रास्ट 90 के दौर में ही बन रहे थे, जिसका एक सिरा सामाजिक न्याय से परिभाषित हो रहा था और एक हिंदुत्व से, एक छोर पर लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, कांशीराम-मायावती की राजनीति थी तो दूसरे छोर पर कल्याण सिंह, उमा भारती आदि की. उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम इन दोनों छोरों के विकास और संकुचन की कहानी को स्पष्ट कर देते हैं और यह भी, कि दो छोरों की इस राजनीति का भविष्य किन गलियों से आगे बढ़ते हुए विकास पा सकता है या एक का दम यहीं घुट जाने वाला है.

सामाजिक न्याय के सिद्धांत को आगे ले जाने की जिनकी ज़िम्मेवारी थी, वे वंशबेल को राजनीति में रोपने लगे, जबकि राजनीतिक भागीदारी का फल अपनों के घर जाते देख रही पीछे छूट गई दलित-ओबीसी जातियां अपने लिए भागीदारी के सवालों के साथ उनके दरवाज़े पर दस्तक देने के लिए तैयार थीं, जिन्हें अपने हिंदुत्व की प्रयोगशाला में खीच लाने को बेताब समूह भागीदारी देने के लिए तैयार बैठा था. आज भाजपा के पास साक्षी महाराज, साध्वी निरंजना ज्योति जैसे अतिपिछड़े फायर ब्रांड हैं, विश्वहिंदू परिषद् से आये केशव मौर्य हैं तो बीएसपी से निराश बाबूलाल कुशवाहा भी हैं. समर्थन करती अनुप्रिया पटेल हैं, जिसकी पारिवारिक विरासत भी सामाजिक न्याय की है.

सामाजिक न्याय की बंद गली

तो सवाल यह है कि आज अखिलेश और मायावती बिहार में लालू-नीतीश की तर्ज पर एक साथ आ भी जाते हैं तो एक-आध चुनावी जीत के अलावा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक भागीदारी के लिए बेचैन जाति समूह के लिए क्या कर पाएंगे? आज की उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि कुछ ख़ास नहीं. तो फिर इस राजनीति का क्या भविष्य होने वाला है?

Akhilesh
फोटो: रायटर्स

यह सवाल इसलिए भी कि बिहार के चुनावों के पहले तक लालू प्रसाद आरक्षण और जाति जनगणना के मुद्दे को देशभर में ले जाने की बात कहते हुए आज अपने बेटों के सियासी भविष्य को दुरुस्त करने में लगे हैं और इससे आगे की कोई उम्मीद मायावती-अखिलेश से भी नहीं की जा सकती, जिनमें से एक तरह-तरह की सोशल इंजीनियरिंग से अपने चुनावी राजनीति को बचाये रखना चाहती हैं और दूसरा विकास की राजनीति की दावेदारी से, जिस पर पहला दावा भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां पहले ही ठोंक चुकी हैं.

तो करना क्या चाहिए?

सामाजिक न्याय की विरासत को आगे ले जाने की ज़िम्मेवारी जिन राजनीतिक दलों की है, या जिनका ऐतिहासिक पक्ष उनकी ओर है, उनके लिए सकारात्मक तथ्य है कि पिछले तीन दशकों में उनके समर्थक जाति समूहों का एक बड़ा मध्यवर्ग तैयार है, जो न सिर्फ़ उनके लिए चुनावी परिणाम लाने की क्षमता रखता है, बल्कि ऊंची जातियों के वर्चस्व को वास्तविक चुनौती देने की भी क्षमता रखता है. यह मध्यवर्ग अब गांव से लेकर शहर तक फ़ैल गया है. अब पटना और लखनऊ जैसे शहरों की डेमोग्राफ़ी भी बदल गई है. यह कालेजों और विश्वविद्यालयों में भी राजनीतिक विमर्शों को शक्ल देने की स्थिति में है. यह मध्य और दलित जातियों के विस्तार में राजनीतिक, सांस्कृतिक सहमति (कंसेंट) निर्माण की स्थिति में है. ज़रूरत है इनके नेतृत्व और सहयोग से सामाजिक न्याय को दूसरे चरण तक ले जाने की, यानी भागीदार होने के लिए तैयार पीछे छूट गई जातियों तक विस्तार देने की.

गोरखनाथ मंदिर से आगे का रास्ता

तीन दशकों में इस तैयार मध्यवर्ग को यदि राजनीतिक दिशा नहीं मिलती है, एक राजनीतिक उद्देश्य नहीं मिलता है तो दिशाभ्रम या एक शून्य की स्थिति में राजनीति का दूसरा पक्ष पहले से ही तैयार है, कल्याण सिंह के ज़माने से ही. आज योगी आदित्यनाथ के साथ उसने एक कोर्स पूरा कर लिया है. सनद रहे कि योगी आदित्यनाथ जिस नाथपंथ की पीठ के वारिस हैं, वह जाति विरोधी एक सांस्कृतिक पीठ है, जिसे आज़ादी के वर्षों में ही हिंदुत्व की प्रयोगशाला के लिए खोल दिया गया था- जिसे हिंदू महासभा का आश्रयस्थल बना दिया गया था. आज भी योगी आदित्यनाथ के मंदिर में जनता की आवाजाही का जाति समीकरण समझने लायक है, बल्कि इससे आगे बढ़कर देश भर में आई बाबाओं की बाढ़ में बहते लोगों का जाति समीकरण भी समझा जाना चाहिए.

फोटो फेसबुक से
फोटो फेसबुक से

तो कुल मिलाकर मायावती और अखिलेश यादव के लिए गठबंधन की नई संभावनाओं से ज़्यादा ज़रूरी काम है सामाजिक न्याय का दायरा बढाने का. स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालयों में जब दलित-ओबीसी समुदायों से विद्यार्थियों का पहुंचना शुरू हुआ है, तब उनके संरक्षण और उन्हें दुरुस्त करने का, समान पाठ्यक्रम समान स्कूल जैसे मुद्दों को प्रमुखता देने का. शिक्षा-स्वास्थय और हर प्रकार की समता को राजनीतिक मुद्दा और लक्ष्य बनाने का. इनके लिए सामाजिक न्याय और विकास दोनों ही इसी रूप में परिभाषित हों तो इनके कोई राजनीतिक मायने होंगे अन्यथा किसी गठबंधन से वे एक-आध चुनाव जीत सकते हैं या वह भी ज़रूरी नहीं है. क्योंकि कल्याण सिंह से लेकर नाथपंथ की पीठ तक हिंदुत्व की जातिवादी राजनीति की एक लकीर खिंच चुकी है, जिसपर केशवप्रसाद मौर्य का मुकम्मल सुरक्षा कवच भी है.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25