बच्चे यौन हिंसा नहीं बल्कि यौनिक युद्ध का सामना कर रहे हैं, वे न घर में सुरक्षित हैं और न बाहर

विकास के दावों के बीच भारत के अनुभव और ज़मीनी सच्चाई बता रही है कि समाज और सरकारें बच्चों का संरक्षण सुनिश्चित कर पाने में तो नाकाम हैं ही आगे भी इनके नाकाम रहने की आशंका है.

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A girl in Kochi, in the south-western state of Kerala, protests against the rape in Kathua, near Jammu, northern India. Photograph: Sivaram V/Reuters

विकास के दावों के बीच भारत के अनुभव और ज़मीनी सच्चाई बता रही है कि समाज और सरकारें बच्चों का संरक्षण सुनिश्चित कर पाने में तो नाकाम हैं ही आगे भी इनके नाकाम रहने की आशंका है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

भारत सरकार द्वारा बच्चों से बलात्कार के मामलों में फांसी की सज़ा दिए जाने का प्रावधान किए जाने के बाद हाल ही में उत्तर प्रदेश के कन्नौज में एक पुरुष ने 11 वर्षीय अपनी भतीजी के साथ बलात्कार किया. मुरादाबाद और मुज़फ़्फ़रनगर में तीन बच्चों के साथ यौन शोषण हुआ.

रामपुर में 7 साल की बच्ची को जंगल में ले जाकर बलात्कार किया गया. अमरोहा में 5 साल की बच्ची से बलात्कार हुआ. मुज़फ़्फ़रनगर में एक चिकित्सक ने सिरदर्द का इलाज़ करवाने आई 13 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया.

मध्य प्रदेश के महानगर इंदौर में 20 अप्रैल 2018 को फुटपाथ पर सो रही चार महीने की बच्ची को चुपचाप उठा लिया गया. उस मासूम के साथ बलात्कार किया गया और उसका सिर पटक पटक कर उसकी हत्या कर दी गई. उस बच्ची का परिवार राजबाड़ा में गुब्बारे बेचकर जीवनयापन करता है.

बच्चे न घर में सुरक्षित हैं और न ही खुले आसमान के नीचे. इन हालातों में भारत सरकार के मंत्री कहते हैं कि बलात्कार रोके नहीं जा सकता हैं, इन पर हो-हल्ला नहीं मचाया जाना चाहिए.

सतत विकास लक्ष्यों में हमने एक बार फिर बच्चों से कुछ बड़े वायदे कर लिए हैं; एक बार फिर हम उन वायदों को तोड़ने का उपक्रम भी कर रहे हैं.

पिछले दो दशकों से, जब से यह साबित होने लगा है कि केवल आर्थिक विकास समाज में शांति, सद्भावना और समानता नहीं लाता है, तबसे सरकारें संवेदनशीलता, समावेशी विकास आदि की बातें करने लगी हैं.

तब से पूंजी का केंद्रीयकरण करने वाले पूंजीपति दान देकर महान भी होने लगे हैं. सभी सतत विकास लक्ष्यों (जिन्हें वर्ष 2030 तक हासिल किया जाना है) के प्रति एकजुटता दिखाने लगे हैं. पर इन लक्ष्यों और इनके प्रति एकजुटता में मंशा पर प्रश्नचिह्न हैं.

भारी-भारी लक्ष्यों की सूची में शामिल पांचवें लक्ष्य के मुताबिक लैंगिक समानता प्राप्त करने के साथ ही सभी महिलाओं और बालिकाओं को सशक्त करना है. सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में महिलाओं और बालिकाओं के विरुद्ध सभी प्रकार की हिंसा, मानव-तस्करी, यौन तथा अन्य प्रकार के शोषणों को दूर किया जाएगा. यह माना गया है कि इसके लिए लैंगिक समानता और सभी स्तरों पर सभी महिलाओं तथा बालिकाओं के सशक्तिकरण के लिए ठोस नीतियों और लागू किए जाने के लिए ज़रूरी क़ानूनी प्रावधान भी अपनाने होंगे एवं व्यवस्था को सुदृढ़ करना होगा.

Srinagar: Women and children try to cross barbed wire placed to block a road during restrictions, in Srinagar on Thursday. Authorities have imposed restrictions in many parts of Srinagar and Kulgam district to maintain law and order. PTI Photo by S. Irfan (PTI4_12_2018_000164B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

इसी तरह सोलहवें लक्ष्य में शांतिपूर्ण और समावेशी समाज की स्थापना के लिए सभी को न्याय उपलब्ध कराने का वायदा है. इसमें ही शामिल है बच्चों के प्रति दुराचार, उनका शोषण, तस्करी, हिंसा और उत्पीड़न समाप्त करना.

भारत के अनुभव और ज़मीनी सच्चाई बता रही है कि समाज और सरकार कम से कम बच्चों का संरक्षण सुनिश्चित कर पाने में तो नाकाम है ही और आगे भी इनके नाकाम ही रहने की आशंका है.

भारत में वर्ष 2001 से 2016 के बीच बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में 889 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इन सोलह सालों में बच्चों के प्रति अपराध 10,814 से बढ़कर 1,06,958 हो गए. इसी अवधि में दुनिया की सरकारें और विकास अभिलाषी ताकतें सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों (जिन्हें एमडीजी कहा जाता रहा) को हासिल करने की कोशिश कर रही थीं.

भारत की राजधानी दिल्ली में ही ये अपराध वर्ष 2001 में 912 से बढ़कर वर्ष 2016 में 8,178 हो गए. कर्नाटक में ऐसे दर्ज अपराधों की संख्या 72 से बढ़कर 4,455 (6088 प्रतिशत), ओडिशा में 68 से बढ़कर 3,286 (4732 प्रतिशत), तमिलनाडु में 61 से बढ़कर 2,856 (4582 प्रतिशत), महाराष्ट्र में 1,621 से बढ़कर 14,559, उत्तर प्रदेश में 3,709 से बढ़कर 16,079 (334 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश में 1,425 से बढ़कर 13,746 (865 प्रतिशत) हो गई.

इन सोलह सालों में भारत में बच्चों के प्रति अपराध के कुल 5,95,089 मामले दर्ज हुए, सबसे ज़्यादा मामले मध्य प्रदेश (95,324-16%), उत्तर प्रदेश (88,103 -15%), महाराष्ट्र (74,306-12%), दिल्ली (59,347-10%) और छत्तीसगढ़ (31,055-5.2%) मामले दर्ज हुए.

बच्चों से बलात्कार और यौन अपराध (दर्ज़)

बच्चे यौन हिंसा नहीं बल्कि यौनिक युद्ध का सामना कर रहे हैं. इस सदी के पहले सोलह सालों में बच्चों से बलात्कार और गंभीर यौन अपराधों की संख्या 2,113 से बढ़कर 36,022 हो गई. यह वृद्धि 1705 प्रतिशत रही.

वर्ष 2001 से 2016 के बीच के सोलह वर्षों में भारत में बच्चों के बलात्कार और यौन अपराध के कुल 1,53,701 मामले दर्ज किए गए. जहां बच्चों से बलात्कार और गंभीर यौन उत्पीडन (पॉक्सो के तहत) सबसे ज़्यादा मामले दर्ज हुए हैं, उनमें मध्य प्रदेश (23,659-15%), उत्तर प्रदेश (22,171-14%), महाराष्ट्र (18,307-12%), छत्तीसगढ़ (9,076-6%) और दिल्ली (7,825-5%) शामिल हैं.

New Delhi: A lady and her child wait to hail a vehicle in New Delhi on Friday. PTI Photo by Arun Sharma (PTI4_6_2018_000158B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

इन राज्यों में पिछले एक दशक में विकास और उन्नति के सबसे ज़्यादा दावे किए गए हैं और सत्ता के हर स्तर पर बच्चों की असुरक्षा के सच को हमेशा दबाने की कोशिश हुई है.

हालांकि अब तो मध्यमवर्गीय लोग सड़क पर भी आने लगे हैं. शायद उन्हें हिंसा की बढ़ती आग की आंच लगने लगी है.

इस अवधि में बच्चों से बलात्कार और यौन अपराधों के दर्ज मामलों में कर्नाटक में संख्या 11 से बढ़कर 1,565 (14227% वृद्धि) हो गई. ओडिशा में 17 से बढ़कर 1,928 (11341%), पश्चिम बंगाल में 12 से बढ़कर 2,132 (17767%) राजस्थान में 35 से बढ़कर 1,479 (4226%), उत्तर प्रदेश में 562 से बढ़कर 4954 (881%) हो गई.

इसका एक पहलू यह भी है कि बलात्कार के घटित हुए सभी मामलों में अपराधी कोई अपरिचित नहीं, बल्कि क़रीबी ही शामिल है.

2016 में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक देश में घटित हुए बलात्कार के कुल 38,947 अपराधों में 95 प्रतिशत मामलों (38,947) में अपराध करने वाला व्यक्ति कोई परिचित और क़रीबी रिश्तेदार ही था.

मध्य प्रदेश में 4,882 में से 4,789 मामलों में, उत्तर प्रदेश में 4,816 में से 4,803 मामलों में, राजस्थान में 3,656 मामलों में से 3,626 मामलों में, महाराष्ट्र में 4,189 मामलों में 4,126 मामलों में बलात्कार करने वाले परिचित और रिश्तेदार ही थे.

आज के समाज और मौजूदा वक़्त की सबसे बड़ी चुनौती है कि बच्चे और महिलाएं किन पर और किस हद तक विश्वास कर सकती हैं?

बच्चों का अपहरण

अब तो बाज़ार और आर्थिक विकास का ज़माना है. नीति निर्माताओं, नियामकों और राजनीतिक नेतृत्व भी यही मानने लगे हैं कि किसी भी क़ीमत पर हो, बस आर्थिक विकास होना चाहिए.

परिणाम यह भी है कि बच्चों की तस्करी, बंधुआ मज़दूरी/बेगारी, यौन उपभोग और विवाह के लिए बच्चों के अपहरण के मामलों में बहुत वृद्धि हुई है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

भारत में वर्ष 2016 में बच्चों के अपहरण के 54,723 मामले दर्ज हुए, जबकि वर्ष 2001 में ऐसे दर्ज मामलों की संख्या 2,845 थी. इन सोलह सालों में बच्चों के अपहरण के मामलों में 1,823 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

वर्ष 2016 में बच्चों के अपहरण के 54,723 मामलों में से 39,842 (73%) लड़कियां थी. इनमें से 16,937 का अपहरण शादी के मक़सद से किया जाना दर्ज किया गया है.

वर्ष 2001 से 2016 के बीच भारत में 2,49,383 बच्चों का अपहरण हुआ. इनमें 55 प्रतिशत मामले तो केवल चार राज्यों- उत्तर प्रदेश 45,953 (18.4%), दिल्ली 43,175 (17.3%), महाराष्ट्र 25,626 (10.3%) और मध्य प्रदेश 23,563 (9.4%) में ही दर्ज हुए हैं.

बच्चों के प्रति अपराध के अदालतों में लंबित मामले

बच्चों के प्रति अपराध हो रहे हैं किन्तु न्यायिक व्यवस्था उनके पक्ष में नहीं है. ऐसा लगता है कि निष्पक्षता का सबसे अमानवीय उपयोग न्याय व्यवस्था में ही हुआ है और भ्रष्टाचार का सबसे गहरा आघात बच्चों पर हुआ है.

हमारी न्याय व्यवस्था बच्चों के मामले में भी आंखों पर पट्टी बांधे रहती है, जबकि वास्तव में उसे बच्चों की तरफ़ देखना चाहिए.

अदालतों में बच्चों के प्रति हुए अपराधों में से ज़्यादातर का निराकरण नहीं हो रहा है. लापरवाही, कमज़ोर जांच, असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार के कारण आरोपी दोषमुक्त हो रहे हैं.

भारत में बच्चों से अपराध के अदालत में परीक्षण लंबित मामलों की संख्या (जिनका परीक्षण पूर्ण होना बाकी था) वर्ष 2001 के 21,233 लंबित प्रकरणों की संख्या सोलह सालों में यानी वर्ष 2016 तक लगभग 11 गुना बढ़कर 2,27,739 हो गई.

सबसे ज़्यादा मामले उत्तर प्रदेश (39,749), महाराष्ट्र (37,125), मध्य प्रदेश (31,392), पश्चिम बंगाल (15,538), गुजरात (12,035) अटके हुए हैं.

A girl in Kochi, in the south-western state of Kerala, protests against the rape in Kathua, near Jammu, northern India. Photograph: Sivaram V/Reuters
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

मध्य प्रदेश में वर्ष 2001 में बच्चों के प्रति अपराध से संबंधित 2065 मामले अदालत में परीक्षण के लिए लंबित थे, जो वर्ष 2016 तक बढ़कर 31,392 हो गए. यानी केवल अपराध ही नहीं बढ़े, बल्कि लंबित मामलों में ही 1420 प्रतिशत की वृद्धि हो गई.

वर्ष 2016 में राज्य में कुल 5,444 मामलों में परीक्षण पूरा हो पाया और इनमें से 30 प्रतिशत यानी कि 1642 ही अपराधी पाए गए.

बच्चों के प्रति अपराध के मामले में परीक्षण पूरा होने के बाद ज़्यादातर लोग दोषमुक्त क़रार दिए जाते हैं. इसका मतलब यह है कि पहले तो जांच-पड़ताल को कमज़ोर किया जाता है और फिर न्यायिक प्रक्रिया की कमज़ोरियों से आरोपी स्वतंत्र हो जाते हैं.

वर्ष 2001 में भारत के स्तर पर 3,231 मामलों में परीक्षण पूर्ण हुआ, जिसमें से 1,531 (47.4%) मामलों में किसी को सज़ा हुई. मध्य प्रदेश में 404 मामलों में परीक्षण पूर्ण हुआ और 157 (38.9%) मामलों में ही किसी को दोषी क़रार दिया गया.

बिहार में 15 में से 2 (13.2%), आंध्र प्रदेश में 77 में से 7 (9.1%), महाराष्ट्र में 263 में से 37 (14.1%) और दिल्ली में 132 में से 42 (31.8%) मामलों में कोई दोषी क़रार हुआ.

वर्ष 2016 में ये हालात नहीं बदले हैं. भारत में कुल 22,763 मामलों में परीक्षण पूर्ण हुआ, जिनमें से 6,991 (31%) मामलों में ही किसी को दोषी क़रार दिया गया.

मध्य प्रदेश में 5,444 में से 1,642 (30%), बिहार में 316 में से 75 (24%), आंध्र प्रदेश में 1012 में से 113 (11%), महाराष्ट्र में 1813 में से 399 (22%) और दिल्ली में 704 में से 294 (42%) को दोषी क़रार दिया गया. शेष मामलों में अपराध हुआ पर कोई अपराधी साबित नहीं हुआ!

इन आंकड़ों पर पैनी नज़र डालने पर यह चिंता गंभीर हो जाती है कि वास्तव में बच्चों के लिए भारतीय समाज और व्यवस्था में कदम-कदम पर कांटे ही कांटे बिछे हुए हैं!

(लेखक सामाजिक शोधकर्ता, कार्यकर्ता और अशोका फेलो हैं.)