संसदीय समिति की रिपोर्ट अदालतों में भरोसे योग्य: सुप्रीम कोर्ट

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘संसदीय समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों को न तो किसी अदालत में चुनौती दी जा सकती है और न ही सवाल उठाए जा सकते हैं.’

(फोटो: पीटीआई)

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘संसदीय समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों को न तो किसी अदालत में चुनौती दी जा सकती है और न ही सवाल उठाए जा सकते हैं.’

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नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जरूरत पड़ने पर कानूनी प्रावधानों की व्याख्या के लिए अदालतों में संसदीय समिति की रिपोर्ट पर भरोसा किया जा सकता है. न्यायालय ने साथ ही यह भी साफ कर दिया कि संसदीय समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों को न तो किसी अदालत में चुनौती दी जा सकती है और न ही उनपर सवाल उठाये जा सकते हैं.

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि अदालतें संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट का संज्ञान ले सकती हैं. ये साक्ष्य अधिनियम के तहत स्वीकार्य हैं.

पीठ ने कहा, ‘किसी कानूनी प्रावधान की व्याख्या के लिये जरूरत पड़ने पर संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट की सहायता ली जा सकती है और ऐतिहासिक तथ्य के अस्तित्व के रूप में इसका संज्ञान लिया जा सकता है. साक्ष्य अधिनियम की धारा 57(4) के तहत संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट का न्यायिक संज्ञान लिया जा सकता है और यह अधिनियम की धारा 74 के तहत स्वीकार्य है.’

पीठ ने कहा, ‘संविधान के अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 136 के तहत दायर मुकदमे में यह अदालत संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट को रिकॉर्ड में ले सकती है. हालांकि, रिपोर्ट को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है.’

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल हैं. पीठ ने 338 पन्ने का फैसला उन जनहित याचिकाओं पर सुनाया जिनमें आंध्र प्रदेश में 2008 में कुछ लड़कियों को कथित तौर पर सरवाइकल कैंसर का टीका दिये जाने से उनकी असामयिक मृत्यु का मुद्दा उठाया गया था और उनके परिवारों को मुआवजा देने की मांग की गई थी.

याचिकाकर्ताओं ने पीड़ित परिवारों के लिये मुआवजे की मांग करते हुए संसद की स्थायी समिति की 22 दिसंबर 2014 की 81 वीं रिपोर्ट पर भरोसा किया था. इसमें विवादास्पद ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) के टीके का परीक्षण करने के लिये कुछ दवा कंपनियों को कथित तौर पर दोषारोपित किया गया था.

इसके बाद मामले को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास इस बात का निर्धारण करने के लिए भेजा गया था कि क्या न्यायिक कार्यवाही के दौरान संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पर भरोसा किया जा सकता है और क्या इसकी प्रामाणिकता पर सवाल उठाये जा सकते हैं.

मामले पर अपना फैसला सुनाते हुए संविधान पीठ ने कहा कि संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट को साक्ष्य के तौर पर स्वीकार करना संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन नहीं है.

पीठ ने हालांकि कहा कि किसी भी पक्ष को संसदीय समिति की रिपोर्ट पर सवाल उठाने या उसे चुनौती देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है. संसद के बाहर इस पर सवाल नहीं उठाए जाने या इसे चुनौती नहीं दिये जाने का संसदीय विशेषाधिकार दोनों पक्षों पर लागू होता है जिसने अदालत में दावा किया है और जिसने इसपर आपत्ति की है. दोनों पक्ष रिपोर्ट को न तो चुनौती दे सकते हैं और न ही उस पर सवाल खड़े कर सकते हैं.

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