जिन्ना को आरोपों से बरी करने का वक़्त आ गया है

यह सही है कि विभाजन से भारतीय मुसलमानों का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ, लेकिन इसके लिए जिन्ना या मुस्लिम लीग को क़सूरवार ठहराना इतिहास का सही पाठ नहीं है.

//

यह सही है कि विभाजन से भारतीय मुसलमानों का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ, लेकिन इसके लिए जिन्ना या मुस्लिम लीग को क़सूरवार ठहराना इतिहास का सही पाठ नहीं है.

jinnah-2.jpg-ns-1024x574
मोहम्मद अली जिन्ना (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

जब भी मोहम्मद अली जिन्ना खबरों में आते हैं, भारतीय मुसलमान अपने हिंदू राष्ट्रवादी मित्रों की असुरक्षा की भावना को बिना किसी आधार के बढ़ावा देने लगते हैं और देश व समुदाय को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान के संस्थापक की आलोचना करने के लिए बाहर निकल आते हैं.

ऐसा तब भी हुआ जब 2005 में एलके आडवाणी ने उनकी मजार की यात्रा की थी. एक दशक के बाद, ऐसा एक बार फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के प्रकरण में हो रहा है.

आधुनिक भारतीय मानस और जिन्ना के बीच का रिश्ता काफी उलझा हुआ है. उनके प्रति, खासतौर पर हिंदुओं का रवैया जबरदस्त गुस्से और धिक्कार का है. जिन्ना की राष्ट्रवादी पृष्ठभूमि इसमें एक और आयाम जोड़ देती है.

उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है, जिसने कुर्सी पाने की निजी महत्वाकांक्षा में सांप्रदायिक कैंप का दामन थाम लिया और जिसके कारण इस देश का विभाजन हुआ. लेकिन, पीढ़ियों से पढ़ाए जा रहे पाठ के बावजूद भारतीय मुसलमानों में आज भी विभाजन और जिन्ना की कुछ स्मृतियां बची हुई हैं.

उनमें से कइयों के लिए जिन्ना विभाजन के सूत्रधार हैं, लेकिन इसके साथ ही वे पिछली सदी में ‘मुस्लिम भारत’ के सबसे महान नेता भी हैं, जिन्होंने ब्रिटिश भारत में इस छोर से उस छोर तक लाखों मुसलमानों को लामबंद करके मुस्लिम लीग को एक राष्ट्रीय पार्टी बनाया.

जिन्ना की अंतर्विरोधी छवियों को एक दूसरे को बरक्स रखने में स्वाभाविक तौर पर छिपा तनाव समय-समय पर सतह पर आता रहता है, जैसा कि एक बार फिर एएमयू के मामले में हो रहा है.

वहां जिन्ना की तस्वीर 1938 से है, जो हमें इस तथ्य की याद दिलाता है कि कि जिन्ना की अपनी एक खास पहचान ‘मुस्लिम भारत’ के सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में से एक के तौर पर थी. ये अंतर्विरोध और शोरशराबा इस ओर भी इशारा करता है कि भारत की जनता को विभाजन से पहले के उठा-पटक से भरे दस वर्षों में चली बहसों या पाकिस्तान के निर्माण के आंदोलन के बारे में ढंग से पता नहीं है.

इससे यह भी पता चलता है कि हम प्रोपेगेंडा से ज्यादा प्रभावित होते हैं और राष्ट्रवाद पर जुबानी जमाखर्च करने की सामाजिक जरूरत के तहत प्रतिक्रिया देते हैं.

जिन्ना पर पड़े रहस्य के पर्दे को हटाने और ऐसे अंतर्विरोधों को सुलझाने के लिए यह जरूरी था कि विभाजन पर एक व्यापक बहस को हमारे शैक्षणिक ढांचे का हिस्सा बनाया जाता. लेकिन, (जिन्ना को) विभाजन के समय हुई हिंसा का कसूरवार ठहरा दिए जाने की हकीकत ने उन जैसी ऐतिहासिक शख्सियत के बारे में जानने के रास्ते को बंद कर दिया है.

यह आनुपातिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व की वैध मुस्लिम मांगों और आकांक्षाओं के लिए जगह न बना पाने की अपनी नाकामियों को छिपाने की कांग्रेस की कोशिशों का नतीजा है.

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच का झगड़ा

अपने बचाव में कांग्रेस ‘एक राष्ट्र’ के तकिया कलाम को ही बार-बार दुहराती रही है और ‘राष्ट्र’, ‘समुदाय’ या ‘लोकतंत्र’ जैसे गंभीर पदों पर किसी विचारित बहस को इसने नामुमकिन बना दिया है. मुस्लिम प्रतिनिधित्व, निर्वाचन मंडल और केंद्र-राज्य संबंध का सवाल कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच झगड़े की जड़ था. ये वे मसले थे जिनको लेकर ज्यादातर मुस्लिम पार्टियां दो दशकों से ज्यादा वक्त से कांग्रेस से आश्वासन मांग रही थीं.

जिन्ना के लंदन से लौटकर आने और 1934 में मुस्लिम लीग की कमान संभालने के बाद भी उन्होंने इन मसलों पर कांग्रेस के साथ किसी समझौते पर पहुंच जाने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी. जिन्ना ने समझौते पर पहुंचने के लिए कांग्रेसी नेताओं पर यकीन जताने की कोशिश भी की. ऐसा समझौता कांग्रेस नेतृत्व के प्रति भारतीय मुसलमानों के मोहभंग को टाल सकता था.

लेकिन, विभाजन पर बात करते वक्त इन तीन पदों पर शायद ही कभी बात किया जाता है. इसकी जगह विभाजन के भारतीय वृत्तांत में सांप्रदायिकता, सार्वदेशिक इस्लामवाद (पैन इस्लामिज्म) या ‘न्यू मदीना’ जैसी फंतासियों पर ज्यादा जोर दिया जाता है.

ज्यादातर मुस्लिम पार्टियों ने विधायिका, सेवाओं और सेना में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की गारंटी की मांग की थी. प्रशासन में मुसलमानों की एक निश्चित हिस्सेदारी तय करने की मांग की गई थी ताकि वे भेदभाव के कारण पीछे न रह जाएं, जो बार-बार होने वाली मुस्लिम विरोधी गिरोहबंद हिंसा को देखते हुए एक वास्तविक खतरा था.

मोमिन कॉन्फ्रेंस जैसी कुछ पिछड़ी मुस्लिम पार्टियों ने और ज्यादा सुरक्षा उपायों और मुस्लिमों के भीतर पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण की मांग रखी थी. इससे भी ज्यादा अहम है कि मुस्लिम लीग के अध्यक्ष के तौर पर जिन्ना ने कांग्रेस से सेना में मुस्लिमों की हिस्सेदारी तय करने की मांग की थी, क्योंकि उनका मानना था कि ‘राजनीतिक अधिकार, राजनीतिक ताकत से मिलते हैं’ और अगर दोनों समुदाय ‘एक-दूसरे का सम्मान करना और एक-दूसरे से डरना’ नहीं सीखते हैं, तो कोई भी समझौता कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं है.

तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा भविष्य के भारत में केंद्र को दिए जाने वाले सापेक्षिक महत्व का था. मुस्लिम बहुमत वाले प्रांतों ने ज्यादा अधिकार दिए जाने की मांग रखी जबकि कांग्रेस दिल्ली में एक ज्यादा मजबूत केंद्र वाली सरकार के पक्ष में थी. वीटो का मुद्दा इस केंद्र-प्रांत संबंध के मसले से ही जुड़ा है.

AMU-Jinnah_PTI-768x430
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन (फोटो: पीटीआई)

अगर मजबूत केंद्र वाले शासन में संसद में हिंदुओं की संख्या मुस्लिमों के अनुपात में तीन गुनी हो और एक ऐसा विधेयक आता है जिसके पक्ष में सारे हिंदू वोट करते हैं और कोई भी मुस्लिम वोट नहीं करता है, तो वह विधेयक तीन चौथाई बहुमत से पारित हो जाएगा. इस तरह से किसी भी मुस्लिम प्रतिनिधि द्वारा वोट न किए जाने की स्थिति में भी इस बड़े उपमहाद्वीप की पूरी व्यवस्था को प्रभावित करने वाला कोई कानून बनाया जा सकता था.

जिन्ना इसे आनुपातिक ढंग से लोकतांत्रिक नहीं मानते थे और उन्होंने कहा कि यह ‘बैलट बक्से के सहारे’ एक देश द्वारा दूसरे देश पर राज करने के जैसा है और इससे बचाव का एक ही रास्ता मुस्लिम समुदाय को विधायिका में वीटो शक्ति देना है.

ऊपर की सारी मांगों का संबंध सांप्रदायिक अधिकारों से था. कांग्रेस ने इस शब्द को इस स्तर तक बदनाम कर दिया कि हम इस शब्द के पुराने और ज्यादा तार्किक अर्थ को ही भूल गए हैं. सांप्रदायिक का अर्थ संप्रदाय से जुड़ा हुआ है.

उपनिवेशवादी दौर में कई विचारकों और राजनेताओं ने इसी अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है. लेकिन कांग्रेस ने इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया कि हम सांप्रदायिक को एक नकारात्मक चीज मानने लगे हैं. ‘सांप्रदायिक’ का अर्थ सामने वाले के खिलाफ नफरत या पूर्वाग्रह रखना नहीं है. इसका अर्थ, अपनी पहचान को अपने संप्रदाय से जोड़ना है.

अल्पसंख्यक अधिकार

ब्रिटिश भारत में कई ऐसे संप्रदायों का वास था जिनमें आपस में शादियां नहीं होती थीं. जो लंबवत और क्षैतिज तौर बंटे हुए थे. मुस्लिम और हिंदू ऐसे दो लंबवत विभाजित संप्रदाय थे. इसके अलावा इनके भीतर क्षैतिज जाति-विभाजन भी थे. हम आज भी बेनेडिक्ट एंडरसन की किताब इमैजिन्ड कम्युनिटीज के अकादमिक अर्थ में एक राष्ट्र नहीं हैं.

जिन्ना का कहना था कि हम एक राष्ट्र तभी बन पाएंगे, जब हम अल्पसंख्यक समुदाय को सुरक्षित होने का एहसास दिला पाएंगे. अल्पसंख्यकों की तरफ से बोलने वाली पार्टी एक सांप्रदायिक पार्टी थी. कांग्रेस ने ‘सांप्रदायिक’ का अर्थ बदल दिया और इसे एक तिरस्कार लायक शब्द बना दिया.

इसी तरह से इसने ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का गलत अर्थ निकाला और इसका दुरुपयोग किया और इसे मुस्लिमों को किसी भी संवैधानिक शक्तियों और अधिकारों से महरूम रखने का औजार बना दिया.

इस तरह से संप्रभुता का मसला, संप्रदाय और राष्ट्र के बीच के रिश्ते को लेकर बहस, या क्या ‘कौम’ का मतलब संप्रदाय से है या राष्ट्र से है, ये सवाल विभाजन की बहस के केंद्र में हैं.

क्या मेरे पड़ोसी को बगैर किसी योग्यता और अंकुश के मेरे बदले कानून बनाने का अधिकार सिर्फ इसलिए है कि वह मेरा पड़ोसी है? क्या दो समुदायों को एक राष्ट्र कहा जा सकता है, जब वे आपस में शादी की बात तो दूर, एक साथ खाना भी नहीं खाते हैं?

क्या अल्पसंख्यक समुदाय को, जिनके खिलाफ बहुसंख्यक समुदाय में पूर्वाग्रह लबालब भरा हो, अपने सारे अधिकारों का समर्पण बहुसंख्यक समुदाय के नेताओं के झूठे दिलासे के आधार पर कर देना चाहिए?

क्या एक मजबूत केंद्र में अल्पसंख्यकों को वीटो का अधिकार दिए बगैर बहुसंख्यक समुदाय के वर्चस्व की इजाजत होनी चाहिए, जबकि वह इस बड़े महाद्वीप में आपसे तीन गुनी संख्या में हो? क्या बहुसंख्यक समुदाय तीन चौथाई बहुमत होने के बल पर संविधान को एकतरफा तरीके से संशोधित कर सकता है?

क्या इन चिंताओं के मद्देनजर कुछ प्रांत, मसलन, उत्तर पश्चिम और पूर्व के प्रांत अलग होने का फैसला नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि उनके साथ अन्याय और गलत व्यवहार किया जा सकता है?

इन सारे सवालों पर बड़े से बड़ा उदारपंथी भी एक कट्टर राष्ट्रवादी बन जाता है और भारत की एकता और जनता के भाईचारे की बात करने लगता है. लेकिन, मेरा मानना है कि ये सवाल एक अक्सर होने वाली बड़ी बहस का सिर्फ आरंभिक बिंदु हैं और जैसे-जैसे भारतीय मुसलमानों की स्थिति बदतर बनती जाएगी, यह बहस बार-बार होगी.

जिन्ना और मुस्लिम लीग

जिन्ना पर वापस लौटते हुए हम याद कर सकते हैं कि मुस्लिम लीग की कमान संभालने के बाद उन्होंने दो चुनावों में पार्टी का नेतृत्व किया. कांग्रेस ने 1937 में हिंदू वोटरों को संगठित करते हुए 70 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू वोट अपने खाते में डाल लिया, लेकिन मुस्लिम वोट यूनियनिस्ट पार्टी, मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी और कृषक प्रजा पार्टी जैसी कई क्षेत्रीय पार्टियों में बंट गया था.

muslim-league_wikimedia
1940 में मुस्लिम लीग के नेता. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

हालांकि, मुस्लिम लीग एकमात्र पार्टी थी, जिसे पूरे भारत में वोट मिले और जिसके खाते में 10 प्रतिशत मुस्लिम वोट गये. इस बिंदु पर कांग्रेस ने मुस्लिम दलों के साथ किसी भी गठबंधन की संभावना को खारिज कर दिया. कई कांग्रेसी और जमायती मुसलमानों ने इसके बारे में लिखा भी है.

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रांतों में उनके दो सालों के शासन के दौरान मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा में बढ़ोतरी देखी गयी और मुसलमानों के बीच मुस्लिम लीग की लोकप्रियता बढ़ती गई.

यह याद करना उपयोगी होगा कि मुस्लिम लीग को मुस्लिम पार्टियों को हराना था, क्योंकि कांग्रेस को अपवाद के तौर पर ही कोई मुस्लिम वोट मिल रहा था. इन वर्षों में जिन्ना ने झारखंड की जनजातीय पार्टियों और बीआर आंबेडकर जैसे अनुसूचित जाति के प्रतिनिधियों के साथ गठबंधन बनाने की पेशकश की और इसे मूर्त रूप भी दिया.

1946 में, जब अंग्रेज भारत छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे, मुस्लिम निर्वाचन मंडल जिन्ना के पीछे लामबंद हो गया था और मुस्लिम लीग को पूरे ब्रिटिश भारत में करीब 80 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले. कांग्रेस इसी संभावना से डरी हुई थी, क्योंकि न के बराबर मुस्लिम वोट मिलने के बावजूद यह मुस्लिमों की नुमाइंदगी करने का दम भर रही थी.

इस तरह आखिरी चरण की बातचीत में, जिन्ना सभी मुस्लिम राजनीतिक धड़ों के संयुक्त नेता के तौर पर उभर कर आए और उन्होंने उन मांगों को दोहराया, जो दशकों से बातचीत की मेज पर रखे हुए थे. इनमें से ज्यादातर मांगें कांग्रेस को स्वीकार्य नहीं थीं और उन्होंने कैबिनेट मिशन योजना को भी स्वीकार कर लेने के बाद ठुकरा दिया.

यह एक तथ्य है, जिसका जिक्र मौलाना आजाद ने अपनी किताब इंडिया विंस फ्रीडम में किया है. यह देखते हुए यह तर्क देना मुश्किल है कि मुसलमानों के पास विभाजन या गृहयुद्ध के अलावा और भी कोई विकल्प बचा हुआ था?

विभाजन के बाद के भारत में जिन्ना

विभाजन के बाद के भारत में जिन्ना पर होने वाली बहसों में कुछ चीजों को बार-बार दोहराया जाता है: उनमें धार्मिकता की कमी, उनकी सांप्रदायिकता, किस तरह अंग्रेजों ने अपनी बांटों और राज करो की नीति के तहत उनका इस्तेमाल किया और किस तरह से उन्होंने भारतीय मुसलमानों को और कमजोर करके उनका नुकसान किया.

अधार्मिक होने के आरोप को साबित कर पाना मुश्किल है, क्योंकि ऐसी मानसिकताओं को नापने का कोई मानक पैमाना नहीं है. इस्लामी कानूनों को लेकर उनके विचार कैसे थे, या इस्लाम कैसे सामाजिक ढांचों को जन्म देता है या मुस्लिम राष्ट्रों की भू-राजनीतिक स्थिति आदि को लेकर उनकी समझ का अंदाजा लगाने के लिए उनके भाषणों को पढ़ना और उनके लंबे विधायी कॅरियर के दौरान उनके द्वारा प्रस्ताविक सुधारों के बारे में जानना काफी होगा.

उनकी उपनिवेशी शिक्षा को अक्सर भारतीय सच्चाइयों से उनके कटे होने की वजह बताया जाता है. लेकिन, इस आरोप में भी कोई दम नजर नहीं आता, क्योंकि ज्यादातर शीर्ष नेता विलायत से शिक्षा लेकर लौटे थे.

जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की, जिन्ना की सांप्रदायिकता सकारात्मक सांप्रदायिकता थी और इसे इस शब्द के समकालीन अर्थ के प्रिज्म के सहारे नहीं समझा जाना चाहिए. वे यह नहीं मानते थे कि भारत एक राष्ट्र है, जैसा कि उनके द्वारा बार-बार इस्तेमाल किए जाने वाले पद ‘महाद्वीप’ और ‘उपमहाद्वीप’ से मालूम पड़ता है.

वे समुदायों के इस महासमुद्र में एक समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और इस प्रक्रिया में वे सिर्फ संख्या की दृष्टि से कमजोर समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे.

यह एक बार-बार लगाया जाने वाला आरोप है और बाकी चीजों के अलावा पृथक निर्वाचन मंडलों पर सवाल उठाता है. मैंने पृथक निर्वाचन मंडल पर ऊपर चर्चा की है. इसके अलावा, मोमिन कॉन्फ्रेंस भी पृथक निर्वाचन मंडलों के चरमराने के बाद अपना अस्तित्व नहीं बचा सका और पिछड़े मुस्लिमों के संगठन भी सुरक्षा कवचों को हटा लिए जाने के बाद नहीं टिक सके.

दूसरी तरफ पूर्वी पाकिस्तान के पहले चुनावों में पाकिस्तान कांग्रेस ने 30 से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज की, क्योंकि वहां पृथक निर्वाचन मंडलों को बनाए रखा गया था. इसलिए यह सही है कि अंग्रेजी मुस्लिमों और हिंदुओं को विभाजित करने में दिलचस्पी रखते थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पृथक निर्वाचन मंडल या ऊपर चर्चा किए गए संप्रभुता के मसलों का यथार्थ में कोई आधार नहीं है और यह सिर्फ सत्ता के लिए शासक वर्ग द्वारा की जाने वाली चालबाजी है.

भारतीय मुसलमान

आखिर में, विभाजन द्वारा और कमजोर कर दिए गए भारतीय मुसलमानों की शिकायतों पर आते हैं. पहली बात, यह सही है कि विभाजन से भारतीय मुसलमानों का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, लेकिन इसके लिए जिन्ना या मुस्लिम लीग को कसूरवार ठहराना इतिहास का सही पाठ नहीं है.

जिन्ना का कहना था कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम संख्या के हिसाब से 15 प्रतिशत हैं या 25 प्रतिशत हैं. जब तक हमारे लिए विशेष सुरक्षा उपाय नहीं किये जाएंगे, उनके पास सत्ता पर एकाधिकार कायम करने के सारे संसाधन हैं.

11509822075_37e1ef708d_b
मोहम्मद अली जिन्ना. फोटो क्रेडिट: junaidrao/Flickr (CC BY-NC-ND 2.0)

दूसरे शब्दों में मुस्लिम बहुसंख्य प्रांतों ने हिंदू वर्चस्व वाले केंद्रीकृत भारत में रहने की जगह अलग होने का फैसला किया, क्योंकि उन्हें इसके अलावा कोई और विकल्प नजर नहीं आया. इसलिए विभाजन के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, यह दरअसल कांग्रेस द्वारा तैयार कर दिए गए हालातों का नतीजा था.

दूसरी बात, विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों की पीड़ा जिन्ना की देन नहीं है. भारत में मुसलमानों को दक्षिणपंथी हिंदू ताकतों के अलावा दमनकारी राज्य द्वारा भी मारा गया है, जिसने उन्हें पहले दिन से ही हर क्षेत्र में नुमाइंदगी से दूर रखा.

जिन्ना के पाकिस्तान में भी हिंदुओं के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था की गई, लेकिन भारत में मुसलमानों को इससे वंचित रखा गया. हमारा नुकसान जिन्ना ने नहीं, बल्कि कांग्रेस और भाजपा जैसे उसके उत्तराधिकारियों ने किया है, जिन्होंने हमारा शोषण किया है.

जिन्ना ने जो सवाल उठाए, वे आज भी प्रासंगिक हैं. दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय होने के नाते भारतीय मुसलमानों को बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र से काफी नुकसान उठाना पड़ा है. इन करोड़ों घिरे हुए मुसलमानों का राजनीतिक संघर्ष आने वाली सदियों में बहुलतावादी लोकतंत्र के मायनों को परिभाषित करेगा.

एएमयू से जिन्ना की तस्वीर नहीं हटायी जानी चाहिए. बल्कि हमें ऐसी और हजारों तस्वीरों की जरूरत है.

(शरजील इमाम जेएनयू से आधुनिक भारत में पीएचडी कर रहे हैं. वे विभाजन और मुस्लिम राजनीति पर काम कर रहे हैं.)

इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq