मुझे अंडररेटेड एक्टर कहा गया, ओवररेटेड होता तो आउटडेटेड हो चुका होता: संजय मिश्रा

गोलमाल, धमाल, आॅल द बेस्ट, वन टू थ्री, फंस गए रे ओबामा में यादगार किरदार निभाने के बाद आंखों देखी, मसान, कड़वी हवा और अंग्रेज़ी में कहते हैं जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले अभिनेता संजय मिश्रा से प्रशांत वर्मा की बातचीत.

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अभिनेता संजय मिश्रा. (फोटो सौजन्य: लाउडस्पीकर मीडिया)

गोलमाल, धमाल, आॅल द बेस्ट, वन टू थ्री, फंस गए रे ओबामा में यादगार किरदार निभाने के बाद आंखों देखी, मसान, कड़वी हवा और अंग्रेज़ी में कहते हैं जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले अभिनेता संजय मिश्रा से प्रशांत वर्मा की बातचीत.

अभिनेता संजय मिश्रा. (फोटो सौजन्य: लाउडस्पीकर मीडिया)
अभिनेता संजय मिश्रा. (फोटो सौजन्य: लाउडस्पीकर मीडिया)

आपकी नई फिल्म ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं’ लव स्टोरी है, दूसरी प्रेम कहानियों से अलग इसमें क्या है?

देखिए, ये एक लव स्टोरी है. हिंदी सिनेमा में जहां लव स्टोरी ख़त्म होती है कि लड़का-लड़की मिले और शादी हो जाती है, उसके 24 साल बाद ये फिल्म शुरू होती है. उसके 24 साल बाद की कहानी है ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं’. अब बताओ कि हिंदी सिनेमा में ऐसा कहां है. मैं क्यों बोलूं कि ये फिल्म अलग है.

इस लव स्टोरी में घर के कपड़े भी धुलते हैं, घर में राजमा-चावल भी बनता है, चिकन भी है, जीजा-साला भी हैं. मतलब हर कुछ है. तो ये एक आम घर की लव स्टोरी है. हमारे मम्मी-पापा की लवस्टोरी है. हमारी लव स्टोरी है. अब इसके दर्शक कितना अलग करके देखती है, ये मैं क्यों कहूं कि ये अलग है.

फिल्म ‘मसान’ के बाद ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं’ दूसरी फिल्म है जो बनारस शूट हुई है. तो क्या ऐसा माना जाए कि अगर फिल्म बनारस के बैकग्राउंड में शूट हो रही है, उसमें बनारसी संजय मिश्रा को लेना ज़रूरी है?

अरे नहीं भाई! ऐसा थोड़े ही है. बकैती थोड़े ही है. एक कलाकार के तौर पर बनारस मुझे इसलिए पसंद है, क्योंकि उसका कैनवास बहुत बड़ा है. एक अभिनेता को तुम किसी कमरे में बिठा दो या उसे ऐसे ही किसी शहर में घुमा दो. उसके साथ अगर बहुत बड़ा स्टेज है, बहुत बड़ा कैनवास है तो यह बहुत बड़ी बात है.

रियल कैनवास… और हम जैसे एक्टर, वैसे स्मार्ट एक्टर तो हैं नहीं कि भाई साहब इनका पैंटे देख लो… इनका जींसे देख लो, जैकटे देख लो. हम लोगों को चाहिए कि हमारे साथ जो काम कर रहा हो वो भी एक मसाला हो.

बनारस, मेरे अभिनय में एक तड़का है. अच्छा कैमरामैन भी एक तड़का है, हमारे अभिनय में.

छोटे-छोटे कॉमिक किरदार करते-करते बॉलीवुड में संजय मिश्रा का क़द इतना बड़ा हो गया कि उनके हिसाब से फिल्में लिखी जाने लगी हैं. इस बदलाव को कैसे देखते हैं?

इसके पीछे प्रयास है, पूरा एक प्रयास है, एक कलाकार का. रातोंरात तो मुझे ये नहीं मिला कि मैं बहुत बड़ा नाम हो गया. उसके लिए मैंने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे तमाम रोल किए. लेकिन अब जो कंटेंट ड्रिवेन सिनेमा है जिसे विषय आधारित सिनेमा कहते हैं, उसमें तो चरित्र चाहिए और चरित्र अभिनेता.

हमने बहुत छोटे-छोटे चरित्र निभाए हैं. आज किसी ने कहा कि आप कैरेक्टर एक्टर (चरित्र अभिनेता) थे, अब सेंट्रल एक्टर (केंद्रीय अभिनेता) हो गए. तो एक और नाम आ गया कि आप केंद्रीय कलाकार हो गए.

तो यार, मैं अकेला थोड़े हूं, जिसने ऐसा किया है. इरफ़ान भाई (इरफ़ान ख़ान) भी एक चरित्र अभिनेता से शुरू हुए. उन्होंने, नवाज़ (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) ने, मिथुन दा (मिथुन चक्रवर्ती) ने ये किया है. तो हम जैसे कलाकारों ने इसे करके दिखाया है.

तो अब पता चला कि संजय मिश्रा जो स्टीरियोटाइप किरदारों में बंध गया था वो कुछ और है. जैसे कोई कॉमिक किरदार कर लेता है तो उसे वैसे ही रोल मिलने शुरू हो जाते हैं. ये ऐसा ही जैसे- चोपड़ा की कुल्फी बड़ी अच्छी है तो लोग उससे अच्छी कुल्फी की ही उम्मीद करते हैं. उनके यहां कोई चाउमिन लेने नहीं जाएगा.

बहरहाल, सिनेमा अब बदल रहा है और यहां पूरी चर्चा फिल्म के विषय को लेकर है.

तो क्या विषय आधारित फिल्मों को लेकर दर्शकों के नज़रिये में भी बदलाव आया है? 

दर्शकों में बदलाव है तभी तो ऐसा सिनेमा (विषय आधारित) बनाने की हिम्मत हो रही है. दर्शक अगर इस तरह के सिनेमा को नकारे होते तो क्यों बनतीं ऐसी फिल्में?

हमने हमेशा ये कहा है कि दर्शक को ये पसंद है, किसी ने उनसे ये पूछा ही नहीं कि दर्शकों! तुम्हें क्या पसंद है? तो दर्शकों में भी बदलाव आया है. खास म्यूज़िक के प्रति भी बदलाव है.

अभिनय के अलावा आपको खाना बनाना पसंद है. ऐसा सुनने में आया है कि हर शहर में आपका अपना सिलेंडर होता है.

खाना बनाना, मेरा एक शौक है. जैसे यहां (मुंबई) से दिल्ली गए. दिल्ली के आसपास शूटिंग है. इसमें ज़्यादा का इनवेस्टमेंट नहीं होता. हजार-पंद्रह सौ का इनवेस्टमेंट है. सिलेंडर मतलब बड़ा वाला सिलेंडर नहीं, छोटा वाला ख़रीद लो.

छोटा वाला सिलेंडर है उसे बाल्टी की तरह उठा लो. एक प्रेशर कुकर रख लो. कम से कम खाना अपने पसंद का खाओ यार. ख़ुद ही कहो कि आज खाने में दालचीनी डालूंगा, देखते हैं दालचीनी का अकेले में क्या स्वाद है.

फिल्म आंखों देखी में संजय मिश्रा ने बाउजी का किरदार निभाया था, जिसे काफी सराहना मिली थी. (फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)
फिल्म आंखों देखी में संजय मिश्रा ने बाउजी का किरदार निभाया था, जिसे काफी सराहना मिली थी. (फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)

जैसे संजय मिश्रा का अकेले में क्या स्वाद है. नवाज़ुद्दीन का अकेले में क्या स्वाद है. तो ये मेरे अंदर है. मैं फिल्में कर रहा होता या नहीं कर रहा होता, ये शौक मेरा चलता रहता.

एक समय था जब आपके पिता चाहते थे कि आप कोई भी नौकरी कर लें लेकिन उनके मित्र लेखक मनोहर श्याम जोशी के कहने पर आपने नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा जॉइन किया. 

मेरे पिता और लेखक मनोहर श्याम जोशी दोस्त थे. शाम होती थी तो वो कभी-कभी मेरे पिता के पास आकर बैठते थे. ऐसे में एक दिन वो मेरे पिता शंभूनाथ जी के दफ़्तर पहुंचे तो देखे कि शंभू जी का मुंह लटका हुआ है. मेरे पिता पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) में उप सूचनाधिकारी थे.

तो उन्होंने पूछा, क्या हुआ भाई शंभू, कहां गई रौनक चेहरे की. तो उन्होंने कहा, यार जोशी जी! बड़ा बेटा (मैं) कोई रास्ता नहीं पकड़ रहा है. लग ही नहीं रहा है कि कोई रास्ता (रोज़गार) उसे भा रहा है.

जोशी जी का कुंडली-उंडली में थोड़ा रुझान था. तो उन्होंने मेरी जन्मकुंडली भेजने को कही और देखने के बाद मेरे पिता से कहा, कहां तुम इसको कहीं नौकरी लगाने के चक्कर में हो. ज़्यादा से ज़्यादा ये क्या बन जाएगा. कुछ और ही लिखा हुआ है. शायद तुम इसके नाम से जाने जाओगे शंभूनाथ!

अब उस समय पता नहीं उन्होंने किस तरह रिऐक्ट किया होगा, लेकिन फिर भी पापाजी ने कहा, फिलहाल तो नाव डूब ही रही है सरजी. आप बोलते हैं तो करता हूं. आप कहते हो कि 20-25 साल इंतज़ार करो तो अगर मैं ज़िंदा रहा तो मैं करता हूं.

मैं आज भी पापाजी को मिस करता हूं. मतलब ऐसा नहीं कि उन्होंने कभी मुझे कलाकार के तौर पर नहीं देखा. उन्होंने मेरी आख़िरी पिक्चर ‘आलू चाट’ देखी थी.

उस समय तक उन्होंने धारावाहिक ‘आॅफिस-आॅफिस’ देख रखा था. ‘गोलमाल’ देख रखी थी, आज का दौर देख पाते कि संजय इस तरह के रोल भी कर ही लेता है तो मज़ा आ जाता.

कलाकार बनने की इच्छा पर पिताजी ने कोई आपत्ति नहीं जताई. मतलब किसी तरह की अड़चन नहीं आई.

उन्होंने मेरे कलाकार बनने पर कोई रोक-टोक नहीं की. उन्हें लगा जब कुछ कर ही नहीं रहा तो यही कर ले.

अड़चन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से निकलने के बाद आई. वहां से निकलने के एक-डेढ़ साल बाद तक मैं यहीं दिल्ली में मम्मी-पापा के साथ ही था. पापाजी ने ही मुझे मार कर बंबई भगाया.

उन्होंने अपने दूर के एक भाई जो बंबई में ही थे से कहा कि ले जाओ यार, इसे यहां से… बंबई दिखाओ. उनके साथ भेजा गया मुझे.

तो सब वक़्त के साथ होता है. बस, आपको तैयार रहना होता है मौके पर चौका मारने के लिए.

1991 में आप मुंबई पहुंचे थे, अब तक के सफ़र और संघर्ष के बारे में बताइए.

मतलब अगर इसमें तुम घुसोगे न तो एक्टर वाली कोई क्वालिटी मुझमें दिखती नहीं है. एक दकियानूसी एक्टर की जो क्वालिटी होती है, वो चीज़ कभी मुझमें दिखी ही नहीं. ये भी एक तरह का संघर्ष था. इस शहर में एक अकेलापन, वो भी एक संघर्ष था.

इस शहर में दोस्त बनाना भी एक संघर्ष था. दोस्त जो रिश्तेदारों से बड़े हो जाते हैं. जो हमारे जीने-मरने, कम-ज़्यादा में साथ रहते हैं. तो मुंबई आने के आठ-नौ साल बाद तक एक तरह का ग्रहण लगा रहा. और ये समय मेरे लिए बहुत ही बढ़िया रहा. उस समय ने मुझे ख़ुद को जानने का मौका दिया.

मैं आर्ट डायरेक्शन करने लग गया. कुछ तो करना है और क्रिएटिव करना है, कलाकारी करनी है. वक़्त ने फिर से टूटा हुआ सितार पकड़ा दिया कि टुनटुनाते रहो बेटा. तुमको बचा के रखना है अपने आपको. वो मैं करता गया.

मुझे अंडररेटेड एक्टर (जिसे कम तवज्जो मिली) कहा गया. वो भी एक दुआ ही हुई. अगर मैं ओवररेटेड (ज़्यादा तवज्जो मिलना) होता तो कब का आउटडेटेड (चलन से बाहर) हो चुका होता. तो चम्मच-चम्मच भरकर चीजें मिली ना तो उससे आज मैं एक गिलास लस्सी बन चुका हूं, स्वादिष्ट. इस बीच में आप अभिनय भी तलाशते हैं.

मुझे गोविंदा बड़ा सही लगता है. वो एक सटीक हिंदी सिनेमा का एक्टर है. जितने भी अभी तक एक्टर हुए हैं, उसने सबको घोलकर पी लिया है. वो कभी धर्मेंद्र हो जाते हैं… कभी अमिताभ… कभी विनोद खन्ना… कभी संजीव कुमार… मतलब वह हर चीज़ का घोल है.

इसी तरह अलग-अलग रोल करके कई तत्वों का मेल मैं बन गया. ये बड़ी अच्छी यात्रा रही और करियर वाली यात्रा से ज़्यादा ये अपनी ज़िंदगी वाली यात्रा रही. मैं टनाटन वेल एजुकेटेड आदमी नहीं हूं, लेकिन मेरी अपनी एक किताब है. इस किताब को मैं ख़ुद लिखता जा रहा हूं.

(फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)
(फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)

इन सबके बीच में रोज़ी-रोटी के लिए काम भी कर रहा हूं. मान लो, पहले मेरा गोलगप्पे ठेला था, जो थोड़ा बड़ा हुआ और अब एक दुकान मिल गई है, सरकार की तरफ़ से कि अब आप कृपया अपना ठेला हटा दीजिए.

अभिनय के अब तक के सफ़र में धारावाहिक ‘आॅफिस-आॅफिस’ के ‘शुक्लाजी’ और फिल्म ‘आंखों देखी’ का बाउजी का किरदार को काफी सराहा गया. इस बारे में क्या कहेंगे?

‘आॅफिस-आॅफिस’ समाज पर एक बेहतरीन तंज़ था. ब्यूरोक्रेसी या लालफीताशाही के ऊपर तंज़ है. एक था पंकज कपूर. एक समय में हम सब लोग पंकज कपूर से बहुत प्रभावित थे. पांच-सात साल यह धारावाहिक चला.

उस समय कोई अपने कमरे में रिहर्सल नहीं करता था. सब लोग साथ बैठते थे, 15-16 बार डायलॉग रिहर्सल होता था. इस प्रक्रिया ने एक संस्थान की तरह काम किया. इसके जितने भी कलाकार हैं- मनोज पाहवा, असावरी जोशी, देवेन भोजानी, व्रजेश हिरजी, इवा ग्रोवर, हेमंत पांडेय, पंकज कपूर.

इन सबका बहुत बड़ा योगदान है मेरे करियर में. इन सब लोगों से हमने कुछ न कुछ सीखा है. तो वो मैच इतना तगड़ा खेला गया, इतना तगड़ा रिहर्सल हुआ कि ‘आॅफिस-आॅफिस’ बहुत आसान हो गया.

इन दोनों माइलस्टोन के बीच में जो अन्य रोल आए, वो सब एक प्रयास था, एक रिहर्सल थी ‘आंखों देखी’ होने के लिए.

आपको फोटोग्राफी पसंद है और संगीत का अच्छा-खासा कलेक्शन भी रखते हैं. एक वक़्त ऐसा भी था जब फोटोग्राफी से आपने ख़र्च चलाया? इस बारे में कुछ बताइए.

देखिए, मैं एकदम ख़ाली रहा करता था. कुछ काम-धंधा नहीं. बैठकर या तो किसी के साथ बकर-बकर करता रहता या इससे बढ़िया चीज़ है कि कैमरा करो. एक बार नाना पाटेकर बहुत सही बोले थे कि बेटा यहां लोग एक-दूसरे की खींचते (टांग खींचना) हैं, तू फोटो खींचता है.

इसलिए कभी फोटो खींचता था, कभी सितार बजाता था, कभी कुछ तो कभी कुछ, ताकि अंदर का कलाकार ज़िंदा रहे. ये सब बहुत काम आया, लेकिन मुझसे अब फोटोग्राफी छीन ली गई. मैं इतना बिज़ी हूं कि स्विटज़रलैंड जाकर फोटोग्राफी नहीं कर सकता. भारत में करना चाहूं तो सब मेरे साथ ही सेल्फी खिंचवाने आ जाते हैं.

(फोटो साभार: फेसबुक/अंग्रेज़ी में कहते हैं)
(फोटो साभार: फेसबुक/अंग्रेज़ी में कहते हैं)

मेरा शौक था कि थोड़ा साधुओं की फोटो खींचूं, थोड़ा हिंदुइज़्म का कलर, फिरोज़ी कलर, कोई और कलर का फोटो खींचूं, लेकिन मेरे काम ने ये शौक छीन लिया. मतलब अब मैं कैमरा निकालता भी हूं तो चार लोग मेरे साथ सेल्फी लेने पहुंच जाते हैं.

संगीत के शौक की बात करें तो ये खानदानी है. ये मेरे ख़ून में मिला हुआ है. बहुत लोगों को मिलता है, लेकिन लोग भूल जाते हैं. मेरी फैमिली में मेरी दादी रेडियो में गाती थीं और मेरे पिताजी बहुत बढ़िया श्रोता थे.

इस शौक को मैंने अभी भी बचा रखा है. मेरी दादी मैथिली में पटना रेडियो से गाती थीं. दशहरा के समय सारी बुआओं को बुला लिया जाता था. तीन बुआ थीं, दो लखनऊ से आती थीं, एक पटना में ही थीं. सब मिलकर रिहर्सल करते थे. हम अपना डेगची, बाल्टी लेकर ढोलक की तरह बजाते थे.

एक समय था बिहार में अब पता नहीं क्या हो गया, किसकी नज़र लग गई. पटना-ओटना में दशहरा के समय हर तरह के कलाकार परफॉर्म करने आते थे. बॉबी पिक्चर रिलीज़ हुई थी तो हम लोग छोटे थे और मैं शायर तो नहीं… गाने वाले शैलेंद्र सिंह आए थे.

एक तरफ़ वो चल रहा होता था, एक तरफ़ रविशंकर सितार चला रहे होते थे तो कहीं गिरजा देवी की गायकी चल रही होती थी. कहीं लच्छू महाराज का तबला चल रहा होता था.

पूरी रात हम लोग जागकर बिताते थे कि भाई यहां दो बज गए अब वहां चलो तीन बजे से बिस्मिल्ला ख़ां का शहनाई प्रोग्राम है. तो इस तरह से संगीत का एक कल्चर हमें मिला और हम इसे टेप रिकॉर्डर से रिकॉर्ड भी करते थे.

लाउडस्पीकर पर बिस्मिल्लाह ख़ां बजाते रहते थे. हम और मेरे पापाजी सुनते रहते थे. हम लोगों का और मेरे पिता का संगीत से इतना प्यार था कि 1971 में उन्होंने ज़मीन ख़रीदने के लिए लोन लिया था. उन दिनों सस्ती ज़मीन हुआ करती थी. वो ज़मीन दो हज़ार की थी.

मसान फिल्म के एक दृश्य में संजय मिश्रा. (फोटो साभार: फेसबुक/मसान)
मसान फिल्म के एक दृश्य में संजय मिश्रा. (फोटो साभार: फेसबुक/मसान)

सरकार से पैसा लोन के लिए लिया था लेकिन जाकर टेप रिकॉर्डर ख़रीद लिया. आज वैसे-वैसे कितने टेप रिकॉर्डर हमारे घर में शहीद हो चुके हैं, लेकिन उस ज़मीन की कीमत करोड़ों हो चुकी है.

ये शौक मेरे साथ ही रहा जिसने मेरे ख़ाक़बाज़ी (बेरोज़गारी) वाले दिनों में मेरी बहुत मदद करता था.

संगीत की बात करें तो आजकल हर दूसरी फिल्म में किसी पुरानी फिल्म का गाना तड़क-भड़क वाले संगीत के साथ डाल दिया जा रहा है. ऐसा लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री में संगीत देने वाले और गीत लिखने वाले अब नहीं हैं.

ये म्यूज़िक बिकाऊ म्यूज़िक है. मतलब हम नया कुछ कर नहीं पा रहे हैं तो लाओ भई ये लो. देखो न आजकल गाने, उसको वेस्टर्न बनाने के चक्कर में भाषा का भाव ख़त्म कर दिया जा रहा है.

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे… ये गाना सालों से चल रहा है. एक बार सुनो तो बंद करने का मन नहीं करता है.

अब दो मिनट की पॉपुलैरिटी है. आप चार बोतल वोदका… का कलेक्शन नहीं करेंगे, अगर आप अपने कलेक्शन में हनी सिंह को शामिल करते हैं तो आपका चरित्र दिखता है.

और दूसरी चीज़ हमारी सरकारों ने हमें सिर्फ़ वोट के लिए ही इस्तेमाल किया. उन्होंने कभी इन चीज़ों (संस्कृति, गीत, संगीत, सिनेमा) को बढ़ावा नहीं दिया, क्योंकि सरकार की ही सारी संस्थाएं होती हैं. सरकार को इससे मतलब ही नहीं है.

उनको मतलब सिर्फ़ कुछ चीजों से है. धर्म-जाति, छोटा जात-बड़ा जात… अरे! तुम सरकार बने हो सरकार का काम है संस्कृति को उठाकर ऊपर लाना. ताकि जो सामाजिक संरचना हो उसमें भारतीयता दिखे.

आर्थिक मंदी पर बनी फिल्म फंस गए रे ओबामा का पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक)
आर्थिक मंदी पर बनी फिल्म फंस गए रे ओबामा का पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक)

अब भारतीय संस्कृति कहां है? सब शहर एक जैसे हैं. तो कला को बड़ा नुकसान पहुंचा है. इन लोगों (सरकारों ने) ने कभी इसे समझा ही नहीं. इनको सिर्फ़ इस बात से मतलब था कि सिर्फ़ पांच साल टिक लो और अगले पांच साल के लिए जो लड़ाई लड़नी है लड़ते रहो.

ये बड़ा दुखदायी है. मैं दुखी हो जाता हूं. ‘दिल से’ फिल्म के गाने थे, मेरी फिल्म थी ‘मसान’. उसका गाना, तू किसी रेल से गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं…

कल मेरी किसी से बात हो रही थी मेरी फिल्म ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं’ के गीतों को लेकर. इस फिल्म के सारे गाने ख़ूबसूरत हैं. अब उनका तर्क सुनिए वो पूछते हैं, यूट्यूब पर कितने लाइक मिले आपको. अगर आपका गाना अच्छा है तो यूट्यूब पर क्यों नहीं चला?

तो पैमाना यूट्यूब हो गया है. कितने लाइक मिले, लोग पैसा देकर तुरंत लाइक बढ़वा ले रहे हैं. ऐसी चीज़ों पर मुझे भरोसा नहीं है, गाना दिल को अच्छा लगना चाहिए.

आप उन चुनिंदा कलाकारों में से हैं जिसे उनके नाम के अलावा उसके किरदारों के नाम से भी पहचाना जाता है. इसे कैसे देखते हैं?

मैं एक ऐसा कलाकार हूं जो बहुत साल तक अपने किरदारों के नाम से ही जाना जाता था. मुझे बहुत सुकून मिलता है कि मैं अपने किरदारों के नाम से जाना जाता हूं.

जैसे- यशवंत का किरदार संजय मिश्रा ने किया है, संजय मिश्रा ने यशवंत का किरदार नहीं किया है. लोग पहले मेरे किरदार का नाम लेते हैं, बाद में मेरा नाम आता है, जो बहुत ही अलग एहसास है और अच्छी बात है. नाम में क्या रखा है.

अपनी फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ को आपने मां और ‘मसान’ फिल्म को पिता को समर्पित किया है. ऐसा क्यों?

ऐसा इसलिए है क्योंकि गंगा की दो धाराएं हैं, एक हरिद्वार वाली गंगा हैं और एक बनारस वाली. हरिद्वार वाली गंगा मेरी माताजी की जान है. हरिद्वार में गंगा के बिना कुछ सोच भी नहीं सकते. बनारस वाली गंगा में मेरे पापाजी की जान थी और मैं दोनों तटों पर शूटिंग कर चुका हूं.

ये मेरी तरफ़ से उन दोनों के लिए एक छोटा सा प्रयास है कि मम्मीजी के लिए ‘दम लगा के हईशा’ और पापाजी के लिए ‘मसान’. ये मेरी बहुत ही निजी भावना है.

पिता से इतना लगाव था कि उनके निधन के बाद आपने कुछ समय के लिए अभिनय छोड़ दिया और एक ढाबे पर नौकरी करने लगे थे. ऐसा ख़्याल कैसे आया?

मैं समझता हूं कि ये बच्चों पर है कि वे अपने पिता के किए गए कामों को अंडरलाइन करें या न करें. मेरी ज़िंदगी का सारा योगदान उन्हीं का था कि आज लोग मुझे पहचान रहे हैं, मेरे काम को अच्छा बोल रहे हैं.

(फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)
(फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)

मेरा छोटा भाई पिछले आठ महीने से अस्पताल में है. मैं कहता हूं कि चलिए न मम्मी मेरी फिल्म देख लीजिए न. तो वो कहती हैं- अरे बेटा, बिल्कुल मन नहीं कर रहा है. गुड्डू की हालत फिर ख़राब है.

मेरे साथ एक चीज़ रही हैं, ये अच्छी है या बुरी, मुझे नहीं मालूम. जब-जब मुझे सितारा चढ़ाता है, तब-तब नीचे भी गिरा कर रखता है. मतलब लोग आपको पसंद कर रहे कि वाह सर, आपका काम और मेरा दिल भाई के पास लगा हुआ है.

इस सफलता का जो पूर्ण आनंद होता है, वो चीज़ दब गई. अभी भाई का ख़्याल हर वक़्त लगा रहता है.

पापाजी के जाने के बाद फिल्म करना छोड़ देना या फिर वापसी करना… ये बड़ा क्षणभंगुर निर्णय था. जानता था कि शायद इस निर्णय को मैं निभा नहीं पाऊंगा. घर में मां हैं… भाई है… अच्छा-भला फिल्म गोलमाल रिलीज़ हो चुकी थी.

उस समय एक एक्टर जो चाहता है, वो लगभग मिल चुका था. उस वक़्त में सब छोड़कर भागना मुश्किल तो था लेकिन दिल कहता था कि नहीं यार चलो… सब कुछ छोड़कर कहीं चलते हैं… ख़त्म करो सब…

मैं अभी बात कर रहा हूं तब भी लग रहा है कि चलो यार, कहीं चलो. जहां ट्रैफिक न हो… कोई शोर न हो… बस चुपचाप बैठे रहें. उस चक्कर में मैं गया था. ढाबे पर काम करना ऐसा नहीं था कि घर पर पैसे नहीं हैं.

मतलब कुल मिलाकर लोगों ने मुझे वापस बुला लिया. अभी भी मैं एक दो साल ग़ायब हो जाता हूं लेकिन उस वक़्त जो ग़ायब हुआ था, वो बहुत ही ख़तरनाक था.

बहुत सारी फिल्मों में आपने पिता का किरदार निभाया है. ऐसा कौन सा किरदार है जो आपके पिता के व्यक्तित्व के क़रीब है?

फिल्म ‘मसान’ वाला किरदार मेरे पिता के क़रीब है. सरकारी तनख़्वाह के अलावा परिवार का ख़र्च चलाने के लिए मेरे पिता भी इंग्लिश टू हिंदी, बंगाली टू हिंदी, मराठी टू हिंदी ट्रांसलेशन करते थे.

फिल्म आंखों देखी के एक दृश्य में संजय मिश्रा. (फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)
फिल्म आंखों देखी के एक दृश्य में संजय मिश्रा. (फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)

‘मसान’ में जो बेटी का किरदार था वैसा नहीं हुआ था उनके साथ, लेकिन मेरे पिताजी वैसे ही थे एकदम. वो किरदार मेरे भी क़रीब है. फिल्म ‘आंखों देखी’ में भी मैंने पिता का ही किरदार निभाया है, ‘कड़वी हवा’ में भी पिता ही बना हूं लेकिन ‘मसान’ के पिता का किरदार बहुत क़रीब था. एक पढ़ा-लिखा समझदार व्यक्ति.

आपने अभी राजनीति की बात करते हुए कहा कि राजनीति की वजह से संस्कृति को नुकसान पहुंचा है. ऐसे में आज के राजनीतिक परिदृश्य के बारे में क्या सोचते हैं?

ये बड़ा ही डरावना है. मुझे लगता है संस्कृति ख़त्म हो जाएगी. आप जिसको नेता बोलते हैं न, उसको सुनने का मन करता है. लोग बताते हैं कि अटल जी (अटल बिहारी वाजपेयी) का भाषण सुनने के लिए लोग बहुत दूर-दूर तक जाते थे.

अब तो भाषा ही ख़त्म हो गई है. एक-दूसरे को नंगा करना, अगर राजनीति है तो मैं इसमें शामिल भी नहीं हूं.

सवाल ये है कि कितने साल हो गए आज़ाद हुए. ऊपर से आपका मीडिया, क्या-क्या दिखा रहा है. अब बहुत हो गया यार, धरम-करम… अब थोड़ा इंसानियत, थोड़ा हिंदुस्तानियत, थोड़ी भारतीयता… इन चीज़ों पर भी नज़र डालो न भाई.

कोई भी शहर देख लो. सिर्फ़ पत्थर-पत्थर दिखता है. सब एक जैसे नज़र आते हैं. शराब पर प्रतिबंध लगा दिया लेकिन पेड़ लगाने को लेकर कोई नियम नहीं बनाया गया. पटना जाकर तुम देखो न, सिर्फ़ सड़कें घर और ब्रिज दिखेंगे, कहीं एक भी पेड़ नहीं दिखेगा.

कहीं दूर चालीस घरों के बीच में एक पेड़ दिखेगा, सूखा हुआ. गाज़ियाबाद जाओ, मेरठ जाओ… हर तरफ़ यही हाल है. पेड़ लगाने का संस्कार कौन देगा?

बस साहब! शराब बंद दिया. क्यों नहीं पूरी ताक़त के साथ बोला गया कि जितने भी घर हैं, वहां पेड़ लगा होना चाहिए, गमला नहीं. पेड़ नहीं लगाने पर आपको 100 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से एक साल बाद जुर्माना देना पड़ेगा.

(फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)
(फोटो साभार: फेसबुक/संजय मिश्रा)

गंगा पटना से तीन किलोमीटर दूर चली गई हैं. जो ज़मीन गंगा ने छोड़ दी वो ज़मीन किसकी ज़मीन है, वो ज़मीन गंगा की है. जिस वजह से वह दूर हुईं फिर वहां तक इमारतें खड़ी कर दी गईं और उस जगह पर पेड़ नहीं लगाए गए हैं.

चलो, वहां पर मकान नहीं बनाते, उस जगह को बढ़िया हरा-भरा कर देते तो लोगों को आॅक्सीजन तो मिलता. वो ज़मीन किसने एलॉट कर दिया, कैसे एलॉट हो गई, मुझे समझ नहीं आया. मैं गया था वहां, मुझे दुख हुआ.

गंगा ने ख़ुद ही किनारा कर लिया हमसे कि भइया हमको नहीं रहना तुम ही रहो, मैं जा रही हूं, लेकिन जो जगह उन्होंने छोड़ी वहां हमने फिर मकान बना दिए, इसलिए तो हमने वोट नहीं दिया था.

आप चुनाव किसके लिए करते हैं, जनता के लिए न? और आपके हिंदी अख़बार में क्या हेडिंग होती है यार. कर्नाटक चुनाव से जुड़ी ख़बरें होती हैं और उसी दिन बनारस में 15-17 लोग मारे जाते हैं, वो ख़बर ही दब जाती है.

हिंदी अख़बारों को मतलब देखने का दिल नहीं करता. मैं पूछता हूं पत्रकारों से कि आपने फिल्म देखी मेरी, तो वो बोलते हैं नहीं, आपका इंटरव्यू लेने आए हैं. मेरा दिमाग ख़राब होता है कि तुम अपना काम नहीं कर रहे हो और इंटरव्यू लेने आ गए हो. कुछ नहीं कर पाए तो पत्रकार बन गए.

‘मसान’, ‘आंखों देखी’, ‘कड़वी हवा’ जैसी फिल्में करने के बाद भी उनके लिए मैं अभी हास्य अभिनेता हूं. वो क्यों कुछ जाने, किसी के बारे में, सवाल ही नहीं उठता. तैमूर (सैफ़ अली ख़ान और करीना कपूर के बेटे) उन पर पूरी मीडिया का ध्यान है और बाकी सारे काम बर्बाद हैं.

ये किस किस्म का पाठक तैयार कर रहे हो यार. आजकल डराने वाली ख़बरें चलाई जाती हैं. ये नहीं करने या देने पर हो सकती है जेल… अरे तेरी! हफ़्ता वसूल रहे हो क्या भाई. ऐसा है तो बोलो खुलकर.

हमारे यहां वोट कौन देता है, हम लोग तो सिर्फ़ टैक्स देते हैं. वोटर अभी भी वहीं हैं जो ट्रक में चढ़कर आ रहे हैं. न उनको चुनाव के पहले चैन था, न चुनाव के बाद चैन है, ये तो है.

मुझे तो लगता है कि राजनीति आउटडेटेड हो जाएगी, इसे हो भी जाना चाहिए. छोड़ो यार… इस सबको… बहुत गुस्सा आता है.

आपने अपनी बेटियों का नाम ‘पल’ और ‘लम्हा’ रखा है. वक़्त से इतने लगाव की वजह?

समय मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था और है. एक ‘था’ होता है और एक ‘है’ होता है. एक वक़्त ही तो होता है जो सब कुछ बदल देता है. आप क्या याद करते हो कि यार उस दिन उनके यहां गए थे उन्होंने चटनी बहुत अच्छी बनाई थी, वैसी दोबारा नहीं खाई कभी. या फिर उनसे मिलकर रुलाई आ गई. वहीं मूमेंट है, ‘पल’ और ‘लम्हा’.

गाड़ी चल रही है तो चल रही है रुक गई तो सब ख़त्म. सारा खेल वक़्त का है. यंग जेनरेशन कहा जाता है, ये क्या होता है. कौन सा जेनरेशन यंग होता है भइया?

हम काम कर रहे हैं तो क्या हम बुढ़ापा जेनरेशन के हैं. सिर्फ़ एक ही जेनरेशन होता है उसको बांटो मत कि ये यंग जेनरेशन है, ये फलना जेनरेशन है, ये चिलना जेनरेशन है.

अब अमिताभ बच्चन कौन से जेनरेशन के हैं. अभी भी कर रहे हैं न भाई काम. दो रुपये का कर रहे हो या करोड़ों रुपये का, लेकिन काम कर रहे हैं काम. तो वक़्त बड़ा क़ातिल चीज़ है यार.

एक समय राज कपूर सुपरस्टार थे, आज नहीं हैं. शायद कुछ लोग याद करते हों कुछ नहीं करते हों. तो वक़्त ही सबसे बलवान है. सबसे बलवान वो सूरज है जो सुबह-सुबह आ जाता है और चांद है जो शाम होते ही आ जाता है.

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