अंतरात्मा का अभाव वर्तमान भारत का सबसे बड़ा संकट है

आखिर ऐसे लोग कहां हैं, जिनका अनुकरण किया जा सके? यह एक बड़ी चुनौती है. अगर मैं यह चाहता हूं कि मेरा बच्चा एक अच्छा नागरिक बने जो सर्वश्रेष्ठ मूल्यों के लिए आवाज उठा सके, तो आखिर इस मौजूदा पीढ़ी में वे प्रेरणा-पुरुष कहां हैं, जिनकी ओर देखा जा सकता है? हम 21वीं सदी में 19वीं सदी के अनुकरणीय व्यक्तियों की मिसाल कब तक देते रहेंगे?

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आखिर ऐसे लोग कहां हैं, जिनका अनुकरण किया जा सके? यह एक बड़ी चुनौती है. अगर मैं यह चाहता हूं कि मेरा बच्चा एक अच्छा नागरिक बने जो सर्वश्रेष्ठ मूल्यों के लिए आवाज उठा सके, तो आखिर इस मौजूदा पीढ़ी में वे प्रेरणा-पुरुष कहां हैं, जिनकी ओर देखा जा सकता है? हम 21वीं सदी में 19वीं सदी के अनुकरणीय व्यक्तियों की मिसाल कब तक देते रहेंगे?

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(प्रतीकात्मक तस्वीर: पीटीआई)

हाल की कुछ घटनाओं पर नजर डालें, तो वे देश के सामने एक बड़े मसले की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं. कर्नाटक चुनाव, संसद सत्र में कामकाज का न हो पाना, भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट के द्वारा ट्रायल कोर्ट के दो जजों का निलंबन, पंजाब नेशनल बैंक, आईसीआईसीआई बैंक और एक्सिस बैंक आदि से जुड़े मसले, अस्पतालों द्वारा लाखों का बिल बनाना और गलत उपचार करना और कठुआ और उन्नाव के बलात्कार के मामले, जिसमें पुलिस की भी कथित तौर पर संलिप्तता थी; ये सब ऐसी कुछ घटनाएं हैं, जिनको मिलाकर पढ़ने से भविष्य के भारत की चिंताजनक तस्वीर उभरती है.

यह मानना गलत नहीं होगा कि ये छिटपुट या अपवादस्वरूप होने वाली घटनाएं नहीं हैं, बल्कि व्यवस्थागत और सांस्कृतिक नाकामियों का नतीजा हैं.

इसने इस बड़े सवाल को जन्म दिया है कि क्या सत्ता की जगह पर बैठे लोगों में अंतरात्मा जैसी कोई चीज बची है और क्या वे उन कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं, जिसके लिए उन्हें पैसे मिलते हैं? मैं यहां इन मामलों के कारणों को रेखांकित करने के लिए कुछ अनुभवों का हवाला दे रहा हूं.

कुछ महीने पहले, मैं दो वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ यात्रा कर रहा था. चूंकि मैं उनमें सबसे जूनियर था इसलिए मैंने व्यवस्था में बदलाव के सवाल पर उनकी सलाह लेने की आजादी ली, खासकर यह देखते हुए कि उनके पास सरकारी कामकाज का व्यापक अनुभव है.

मैंने पूछा, ‘अगर लोग किसी संगठन में गड़बड़ी और अनियमितता देखते हैं, तो उन्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें इस मसले को उठाना चाहिए या चुप रह जाना चाहिए?’

पहले ने जवाब दिया, ‘राजेंद्र जी, याद रखिए, पहली चीज यह है कि संगठन को झकझोरने से अच्छा है, संगठन के हिसाब से खुद को ‘एडजस्ट’ करना.’ उन्होंने आगे बताया कि वे जहां भी जाते हैं, खुद को संगठन के हिसाब से ढाल लेते हैं. हाल ही में वे महोदय अपने क्षेत्र में शीर्ष पद पर नियुक्त किए गए थे.

दूसरे अधिकारी की सलाह थी, ‘अपना कार्यकाल शांति से पूरा कीजिए और अगले पद के लिए मिलना-जुलना, घेराबंदी शुरू कर दीजिए. सुधारक बनने की क्या जरूरत है? आपके आने से पहले भी संगठन का वजूद था और और आपके बाद भी उसका वजूद रहेगा. व्यवस्था को चाटुकारों की जरूरत है, जो अपने वरिष्ठों का ‘ख्याल’ रख सकें.’

अगर वरिष्ठतम अधिकारियों की सोच और काम करने का यह तरीका है, तो फिर अपने कर्तव्यों को पूरा करने की अंतरात्मा की पुकार या नीयत कहां हैं और फिर भारत में बदलाव कैसे आ सकता है? ज्यादातर लोग बड़ी भूमिकाओं का ख्वाब देखते हैं और उसके लिए कोई भी कीमत चुकाने और कोई भी समझौता करने के लिए तैयार हैं.

अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों को निभाना प्राथमिकता में सबसे पीछे है. यह सब छनकर निचले स्तरों तक पहुंच गया है, जिसने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है, जहां लोग अपने बुनियादी कर्तव्यों के साथ समझौता करके ऊंचे ओहदों तक पहुंचते हैं.

मुझे नेशनल एजुकेशन पॉलिसी कमेटी के सदस्य के तौर पर हुई चर्चाओं की याद आती है. जो कोई भी इनपुट देने के लिए आया, उसने फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली के बारे में बात की और उसे अपनाने की पुरजोर वकालत की.

लेकिन, जिन लोगों ने भी यह सलाह दी, उनमें से कोई भी फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की कामयाबी का राज नहीं बता पाया. मुझे आखिर में यह टिप्पणी करनी पड़ीः ‘फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की कामयाबी के पीछे वहां की सामान्य संस्कृति का हाथ है, जिसका सारतत्व यह है कि अगर आपको किसी चीज के लिए पैसे मिलते हैं, तो उसे पूरा करना आपकी जिम्मेदारी है.’

क्या ऐसा हमारे देश में भी होता है? जरा कहानी के दूसरे पहलू की ओर भी देखिए. अगर आप वह काम करते हैं, जिसके लिए आपको पैसे मिलते हैं, अगर आप सिस्टम को झकझोरते हैं और उसमें बड़े बदलाव लाने की कोशिश करते हैं या भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो आपको या तो अलग-थलग कर दिया जाएगा या आपका तबादला कर दिया जाएगा. यह भी मुमकिन है कि आपके खिलाफ झूठा मामला दर्ज कर दिया जाए.

यहां नेशनल फॉमास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी के प्रमुख के तबादले के मामले को लिया जा सकता है. उन्होंने और कुछ नहीं, बस अपना काम किया था और उद्योग में मुनाफाखोरी पर नकेल कसने की कोशिश की थी.

या फिर उस महिला पुलिस अधिकारी के मामले को लीजिए, जिसने बुलंदशहर में यातायात के नियमों का उल्लंघन करने के लिए स्थानीय नेताओं पर कार्रवाई की थी और इसके इनाम के तौर पर उसका तबादला कर दिया गया.

ये चीजें खराब मिसाल पेश करती हैं: व्यवस्था के अंदर के ईमानदार और साहसी लोगों को इस तरह परेशान किया जाता है कि वे या तो व्यवस्था को छोड़ देते हैं या आखिरकार उन्हें हाशिये पर कर दिया जाता है. अंत में वे या तो झुक जाते हैं या हार मान लेते हैं.

ज्यादातर लोग किसी जुनून या सरोकार के तहत नहीं, बल्कि बस एक अदद वेतन के लिए काम करते हैं और यही कारण है कि लोग अपने वेतन को गंवाना नहीं चाहते. वे इसकी जगह यथार्थ के अनुसार खुद को ढाल लेने (एडजस्ट कर लेने) में ही अपनी भलाई समझते हैं.

जनसंख्या विस्फोट ने भी इसमें योगदान दिया है और यहां एक अच्छा उदाहरण है: 2015 में उत्तर प्रदेश सरकार ने 368 पदों के लिए वैकेंसी निकाली थी और 23 लाख लोगों ने चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन किया, जिसके लिए योग्यता स्कूली शिक्षा और साइकिल चलाने की क्षमता थी.

आवेदकों में से 1.5 लाख ग्रैजुएट, 25,000 पोस्ट-ग्रैजुएट और 250 से ज्यादा डॉक्टरेट (पीएचडी) थे. हर पद के लिए 6,250 आवेदक थे और ऐसी भीड़ में सफलता का रास्ता भ्रष्टाचार से होकर जाता है. जाहिर है, जब आप किसी नौकरी को पाने के लिए पैसे खर्च करते हैं, तो पैसे कमाने में भी आपको कोई झिझक नहीं होगी.

न्यायपालिका की विफलता की भी इसमें भूमिका है. यह एक असफल व्यवस्था है, जिसमें अपराधी और भ्रष्ट व्यक्ति पनाह पाते हैं. यहां जमानत और स्थगन (बेल और स्टे) ले लेना आसान है, लेकिन फैसला आसानी से नहीं आता. मामले दशकों तक घिसटते रहते हैं और इसका नतीजा यह हुआ है कि गलत लोग मजे में रहते हैं और सही लोग पीड़ित किए जाते हैं.

आखिर ऐसे लोग कहां हैं, जिनका अनुकरण किया जा सके? यह भी एक बड़ी चुनौती है. अगर मैं यह चाहता हूं कि मेरा बच्चा एक अच्छा नागरिक बने जो सर्वश्रेष्ठ मूल्यों के लिए आवाज उठा सके, तो आखिर इस मौजूदा पीढ़ी में वे प्रेरणा-पुरुष कहां हैं, जिनकी ओर देखा जा सकता है?

दुख की बात है कि आज साध्य ही साधन को न्यायोचित ठहराता है. हम 21वीं सदी में 19वीं सदी के अनुकरणीय व्यक्तियों की मिसाल कब तक देते रहेंगे?

ऊपर में यूपी के जिस मामले की चर्चा की गई, उसमें 23 लाख आवेदकों में से सिर्फ 398 को नौकरी मिली, जिनमें से सभी बराबर या दूसरे से ज्यादा योग्य थे. बाकी बचे हुए 22,99,632 आवेदकों के लिए क्या कोई प्रावधान है?

जब तक हम बचे हुए लोगों की आजीविका के सवाल का समाधान नहीं खोज पाएंगे, तब तक हमें भूखे पेट वालों को उपदेश देने का कोई हक नहीं है.

जिम्मेदारी शीर्ष पर बैठे लोगों की है और समाधान हर नागरिक को लाभकारी रोजगार मुहैया कराना है. सबसे बढ़कर हर कार्यरत भारतीय को फिनलैंड की संस्कृति के एक पहलू को अपनाने की जरूरत है: ‘जिस चीज के लिए आपको पैसे मिलते हैं, वह काम करके देना आपका जिम्मेदारी है.’

इसी से हम वैसे अनुकरणीय व्यक्तियों (रोल मॉडल्स) की उम्मीद कर सकते हैं, जो एक पीढ़ी को प्रेरणा दे सकें, नहीं तो हमें सबसे बुरे के लिए तैयार रहना चाहिए, जो अभी आने वाला है.

(राजेंद्र प्रताप गुप्ता लोकनीति के जानकार हैं)

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