भारत में दलितों की परवाह किसे है?

अनेक ‘शुभचिंतक’ दलों के बावजूद भेदभावों के ख़िलाफ़ दलितों की लड़ाई अभी लंबी ही है. ये ‘शुभचिंतक’ दल दलितों के वोट तो पाना चाहते हैं लेकिन उन पर हो रहे अत्याचारों के लिए जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं.

/
(फोटो: पीटीआई)

अनेक ‘शुभचिंतक’ दलों के बावजूद भेदभावों के ख़िलाफ़ दलितों की लड़ाई अभी लंबी ही है. ये ‘शुभचिंतक’ दल दलितों के वोट तो पाना चाहते हैं लेकिन उन पर हो रहे अत्याचारों के लिए जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं.

dalit-pti-1024x729
(फोटो: पीटीआई)

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने 1989 के अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए इससे जुड़े मामलों के अभियुक्तों की तुरंत गिरफ्तारी की जगह शुरुआती जांच की बात कही और दलित संगठनों ने इसको लेकर ‘भारत बंद’ का आह्वान किया कई स्वनामधन्यों को उनका गुस्सा ही ‘समझ’ में नहीं आया.

ऐसे कई महानुभावों ने तो ‘ऐसे गुस्से का सबब?’ पूछने से भी गुरेज नहीं किया. गत दो अप्रैल के उस बंद के दौरान कई राज्यों में टकराव और हिंसा हुई तो ज्यादातर दलितों के ही पीड़ित होने के बावजूद उसे ‘दलितों द्वारा की गई हिंसा’ कहकर ही प्रचारित किया गया. अवधी की पुरानी कहावत ‘जबरा मारै अऊर रोवै न देय’ यकीनन, ऐसे ही महानुभावों के संदर्भ में सृजित की गई होगी.

इधर महात्मा गांधी के गुजरात तक में (जो अब गुजराती अस्मिता की बात करते-करते थक चुके देश के प्रधानमंत्री का गृहराज्य भी है) ‘जबरों’ ने दलितों पर अत्याचारों की जो ‘नई मिसालें’ पेश की हैं, उनके आईने में, कोई समझ-समझ कर भी न समझने की जिद से बावस्ता न हो, तो आसानी से समझ सकता है कि दलित क्योंकर अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में त्वरित कार्रवाई के प्रावधान से सुरक्षा का अनुभव करते थे, गो कि न थे और न अभी हैं, और क्यों गुजरात के ही उना में दलित युवकों को बेरहमी से पीटे और लंबी मूंछें रखने, नाम में ‘सिंह’ लगाने या घुड़सवारी करने को भी उनपर कोपों का बहाना बनाये जाने के ‘गवाह’ होने के बावजूद कई ‘जबर’ न दलितों की दुर्दशा समझ पाते हैं और न गुस्सा.

दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़कर न जाने देने, दलित सरपंच को स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर तिरंगा न फहराने देने और मिडडे मील के वक्त दलित छात्रों को अलग बैठाये जाने जैसी घटनाएं भी उनकी मानवसुलभ संवेदनाओं को नहीं ही जगा पातीं.

तभी तो पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हाथरस निवासी संजय जाटव को कासगंज के ठाकुर बहुल निजामपुर गांव में अपनी बरात ठाकुर-बस्ती की निगाह से बचाने के लिए दूसरे रास्ते से ले जाना कुबूल नहीं हुआ तो कोर्ट-कचेहरी के चक्कर लगाने के बावजूद जिलाधिकारी की मार्फत उन्हें ‘बीच का रास्ता’ ही मिल सका.

ऐसे अत्याचारों की सबसे ताजा घटना पर जाएं तो अहमदाबाद से, जहां गुजरात सरकार निवास करती है, महज 40 किलोमीटर दूर वालथेरा गांव में एक दलित महिला को ‘ऊंची’ जाति के वर्चस्ववादियों ने सिर्फ इसलिए पीट डाला कि वह उनके सामने कुर्सी पर बैठी हुई थी. गोकि वह जहां बैठी थी, वह जगह वर्चस्ववादियों की नहीं थी.

वह गांव की पंचायत द्वारा एक स्कूल में आधार कार्ड बनवाने के लिए आयोजित शिविर में एक ‘ऊंची’ जाति के लड़के की उंगलियों के निशान लिए जाने में मदद कर रही थी. लेकिन जब तक वह उस पर तिरछी हुई भृकुटियों को पढ़ पाती, जातीय दंभ के मारे लोगों ने लात मारकर उसे कुर्सी से नीचे गिराया और लाठियों से पीटना शुरू कर दिया. उसके पति और पुत्र वहां पहुंचे तो उन्हें भी नहीं बख्शा.

यह मानने का एक नहीं, अनेक कारण हैं कि बड़े-बड़े बांधों, फ्लाईओवरों और कथित विदेशी निवेश की बिना पर गुजरात को देश का सबसे उन्नत राज्य और उसके आर्थिक माडल को सर्वश्रेष्ठ बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी पार्टी और सरकारों को महात्मा गांधी के अछूतोद्धार कार्यक्रमों की आधारभूमि होने के बावजूद गुजरात में आजादी के सात दशकों बाद तक चली आ रही सामाजिक असमानताओं व असामाजिकताओं का पता देने वाली इस घटना की शर्म किंचित भी महसूस नहीं होगी.

उन्हें इस शर्म को महसूस ही करना होता तो क्यों समानता जैसे पवित्र संवैधानिक मूल्य को पहले समरसता के छद्म से प्रतिस्थापित करते, फिर उसको भी भाजपा नेताओं द्वारा अपने घरों या बाजारों से ले जाये गये भोजन को दलितों के घर जाकर खाने के कर्मकांड तक सीमित कर देते?

क्यों लगातार ऐसी परिस्थितियां निर्मित करते रहते, जिनके चलते दलितों पर हाथ उठाना ‘सबसे आसान’ बना रहे? विकास के अर्थ को सिर्फ और सिर्फ असमानताओं के विकास तक सीमित कर देते और उसमें सौहार्द, व्यक्ति की गरिमा व राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता (जो अपने आप में एक संवैधानिक संकल्प है) और सामाजिक समझदारी के लिए कोई जगह न रहने देते?

संवैधानिक प्रावधानों और सामाजिक हकीकत के बीच की खाई भी तब वे इतनी चौड़ी क्यों कर होने देते? लोकतांत्रिक मूल्यों को सामाजिक चेतना का हिस्सा क्यों नहीं बनाते? असंवैधानिक करार दिये जाने के बावजूद छुआछूत के प्रति आज तक ‘सहिष्णु’ क्यों बने रहते?

(फोटो साभार: ट्विटर/विजय परमार)
(फोटो साभार: ट्विटर/विजय परमार)

तब दलित जातियां भी अभी तक तमाम ऊंची-नीची उप-जातियों में बंटी हुई क्यों रहतीं और दिवंगत वीरेन डंगवाल को यह क्यों पूछना पड़ता कि आखिर हमने कैसा समाज रच डाला है, जिसमें जो कुछ भी चमक रहा है, काला है?

प्रसंगवश, देश की कुल आबादी के 16.6 प्रतिशत दलितों को पहले अछूत कहा जाता था. उन्हें महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ नाम दिया और अब सरकारी आंकड़ों में अनुसूचित जातियों/जनजातियों के नाम से जाना जाता है.

1850 से 1936 तक गोरी सरकार इन्हें दबे-कुचलों के नाम से बुलाती थी, जबकि अब बांबे हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा है कि वह मीडिया को दलित शब्द के इस्तेमाल से रोकने का निर्देश जारी करने पर विचार करे.

राजनीतिक विश्लेषक आनंद तेलतुम्बड़े कहते हैं कि इन दलितों में दो करोड़ दलित ईसाइयों और दस करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ लें, तो देश में दलितों की आबादी 32 करोड़ हो जाती है, जो कुल आबादी की एक चौथाई है.

अब यह तो कोई बताने की बात ही नहीं कि इतनी बड़ी आबादी को हर तरह के भेदभाव, अपमान और त्रास के हवाले किए रखकर देश न विकास के लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, न ही सभ्यता व संस्कृति के. लेकिन कई महानुभावों को यह सीधी बात भी समझ में नहीं आती.

इसीलिए, जैसा कि तेलतुम्बड़े कहते हैं, ‘आधुनिक पूंजीवाद और साम्राज्यवादी शासन ने भारत की जाति व्यवस्था पर तगड़े हमले किए तो भी दलितों को इस व्यवस्था की बुनियादी ईंट की तरह हमेशा ‘बचाकर’ रखा गया, ताकि हिंदू जाति व्यवस्था फलती-फूलती रहे.’

बहरहाल, ये महानुभाव अपनी जगह पर रहें, आज की तारीख में दलितों पर अत्याचार इसलिए भी कम या खत्म नहीं हो पा रहे कि जहां बाबासाहेब आंबेडकर का सपना था कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित दूसरे दलितों को दबे-कुचले वर्ग से बाहर लाने में मदद करेंगे, वहां कुछ ऐसा सिलसिला बन गया है कि आगे बढ़ गए दलित खुद को अन्य दलितों से ऊंचे दर्जे का समझने लग जाते और उनसे दूर होते जाते हैं.

दूसरी ओर भूमि सुधारों के अभाव में कृषि व्यवस्था के बढ़ते संकट भी ऊंचे तबके के किसानों और दलितों के रिश्तों में तनातनी बढ़ा रहे हैं. आंकड़ों पर जाएं तो गैरदलितों के मुकाबले दलित आबादी का शहरीकरण आधी रफ्तार से हो रहा है, जबकि ऊंचे दर्जे की पढ़ाई छोड़ने की दलितों की दर, गैरदलितों के मुकाबले दो गुनी है.

गांवों में दलित आज भी ज्यादातर भूमिहीन मजदूर और सीमांत किसान ही हैं. उनके पास कृषि भूमि ज्यादा है नहीं, जो थोड़ी-बहुत जमीन है, वह भी छिनती जा रही है.

आनंद तेलतुम्बड़े द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार 1990 के दशक में उदार अर्थनीतियां लागू हुईं, तो वे भी दलितों के प्रति अनुदार ही सिद्ध हुईं और उनकी हालत ‘और खराब’ करने लगीं.

डार्विन के योग्यतम की उत्तरजीविता और समाज के ऊंचे तबके के प्रति एक खास लगाव की वजह से नए उदारीकरण ने दलितों को और भी नुकसान पहुंचाया है क्योंकि उसकी वजह से आरक्षित सरकारी नौकरियां और रोजगार के दूसरे मौके कम होते जा रहे हैं.

ग्रामीण इलाकों में दलितों व गैरदलितों के बीच सत्ता के असंतुलन ने कोढ़ में खाज पैदा किया है, तो हिंदुत्व के उभार और साथ ही सत्ता पर काबिज होने से भी दलितों पर जुल्मों की तादाद तेजी से बढ़ी है. रोहित वेमुला, उना, भीम आर्मी और भीमा कोरेगांव की घटनाओं से यह एकदम साफ हो चुका है.

ऐसे में यह भी साफ ही है कि अनेक ‘शुभचिंतक’ दलों के बावजूद भेदभावों के खिलाफ दलितों की लड़ाई अभी भी लंबी ही है. इसलिए कि ये शुभचिंतक दल दलितों के वोट तो पाना चाहते हैं, पर न उन पर हो रहे अत्याचारों के, जिनमें से कई का रूप इतना बदल गया है कि अब वे अत्याचार लगते ही नहीं हैं, कारणों से मुठभेड़ करना चाहते हैं और न उनके लिए कोई जोखिम उठाने को ही तैयार हैं.

पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक ने ठीक ही लिखा कि ये दल तो यह भी नहीं समझते कि राजनीति का काम सत्ता हासिल करना ही नहीं, समाज को बदलना भी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq