वो पांच लोग जिन पर भीमा कोरेगांव हिंसा और मोदी की हत्या की साज़िश रचने का आरोप लगा है

भीमा कोरेगांव हिंसा के पीछे बताए जा रहे कथित नक्सल कनेक्शन के चलते ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) क़ानून के तहत गिरफ़्तार किए गए पांचों लोगों के प्रति पुलिस और प्रशासन का यह रवैया नया नहीं है.

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भीमा कोरेगांव हिंसा के पीछे बताए जा रहे कथित नक्सल कनेक्शन के चलते ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) क़ानून के तहत गिरफ़्तार किए गए पांचों लोगों के प्रति पुलिस और प्रशासन का यह रवैया नया नहीं है.

Bhima Koregaon Collage
(बाएं से) सुधीर धावले, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, रोना विल्सन और शोमा सेन

मुंबई: 6 जून को पुणे पुलिस ने नागपुर, मुंबई और दिल्ली पुलिस के साथ मिलकर एक ‘संयुक्त कार्रवाई’ में पांच लोगों को गिरफ्तार किया. गिरफ्तारी के बाद से पुलिस ने अब तक इन पांचों के बारे में कई तरह के दावे किए हैं.

कभी पुलिस ने भीमा कोरेगांव में इन पांचों की संलिप्तता की बात कही, तो कभी उन्हें नक्सली बताया और जो सबसे नया दावा पुलिस ने इन पांचों के बारे में किया है वो यह है कि ये पांचों ‘राजीव गांधी की तरह ही’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश कर रहे थे. भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद दायर की गई शुरुआती एफआईआर में बदलाव किए गए हैं और उसमें ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) क़ानून [यूएपीए- Unlawful Activities Prevention Act] के तहत कई सख्त धाराएं लगाई गई हैं.

जिन पांच लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, वे हैं- लेखक और मुंबई स्थित दलित अधिकार कार्यकर्ता सुधीर धावले, नागपुर के वकील सुरेंद्र गाडलिंग, विस्थापन के मुद्दों पर काम करने वाले गढ़चिरौली के युवा कार्यकर्ता महेश राउत, जिन्हें पूर्व में प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री रूरल डेवलपमेंट फेलोशिप भी मिल चुकी है, नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य विभाग की प्रमुख प्रोफेसर शोमा सेन और दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता रोना विल्सन, जो राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए बनी समिति (कमेटी फॉर रिलीज़ ऑफ पॉलिटिकल प्रिजनर्स- सीआरपीपी) की कोर कमेटी के मेंबर हैं.

इन पांचों के लिए पुलिस और सरकार का उनके प्रति ऐसा रवैया नया नहीं है. इनके काम और पृष्ठभूमि के बारे में जानने पर यह बात और स्पष्ट रूप से सामने आती है.

सुधीर धावले: एक ख़ामोश संगठनकर्ता

नागपुर की एक आंबेडकर बहुल इलाके की झुग्गी इंदोरा के एक दलित परिवार में जन्मे 54 साल के सुधीर धावले किसी भी आंदोलन के जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता रहे. अपनी नेतृत्व क्षमता से ज्यादा अपने तालमेल बिठाने के गुर के लिए पहचाने जाने वाले सुधीर महाराष्ट्र में मानवाधिकार हनन को लेकर होने वाले विरोध-प्रदर्शनों और फैक्ट-फाइंडिंग कमेटियों का हिस्सा रहते हैं.

2002 के गुजरात दंगों के बाद उन्होंने द्विमासिक पत्रिका ‘विद्रोही’ निकालनी शुरू की और 2006 में महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के खैरलांजी में एक परिवार के चार लोगों की हत्या के बाद राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन ‘रमाबाई नगर-खैरलांजी हत्याकांड विरोधी संघर्ष समिति’ का गठन किया.

सुधीर धावले (फोटो साभार: यू ट्यूब)
सुधीर धावले (फोटो साभार: यू ट्यूब)

हालांकि यह संगठन कुछ समय ही चला और फिर  6 दिसंबर 2007 को रिपब्लिकन पैंथर्स जातीय अंताची चलवाल (रिपब्लिकन पैंथर्स जातीय उन्मूलन आंदोलन) नाम का संगठन अस्तित्व में आया.

उनके दोस्त और सहकर्मी बताते हैं कि धावले बहुत कम बोलने वाले शख्स है, जो बहुत कम उम्र से ही राजनीतिक सोच-समझ रखने लगे थे. अपने जवानी के दिनों में वो सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वॉर की गतिविधियों में सक्रिय थे. उस वक्त यह एक प्रतिबंधित संगठन नहीं हुआ करता था. 1994 तक वो नागपुर में आंदोलन में सक्रिय रहे और इसके बाद नौकरी की तलाश में मुंबई आ गए.

मराठी फिल्म कोर्ट के मुख्य अभिनेता और लंबे समय से  धावले के दोस्त वीरा सतीधर धावले के राजनीतिक जीवन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहते है कि वो ‘करके सीखने’ के दिन थे. धावले ने वामपंथी आंदोलन से अपनी शुरुआत की और कॉलेज के दिनों में अलग-अलग वामपंथी रुझान वाले सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठनों से जुड़े रहे. लेकिन जल्दी ही उन्हें यह एहसास हुआ कि इस आंदोलन में दलितों के लिए कुछ नहीं है.

सतीधर बताते हैं, ‘उन्हें अपनी दलित पहचान और हमारे जातिगत समाज के अंदर दलितों से जुड़े मुद्दों के बारे में बखूबी पता था. वो वामपंथी आंदोलन से अलग हो गए और कई सालों में अपनी राजनीतिक समझ विकसित की.’

उनकी पत्रिका विद्रोही की शुरुआत चार पन्नों से शुरू हुई थी, लेकिन जल्दी ही ये आठ पन्नों की हो गयी. सतीधर बताते हैं, ‘कुछ ही सालों में यह एक संपूर्ण पत्रिका के रूप में निकलने लगी जो दो महीने में एक बार निकलती थी, जिसमें देश के हालात से जुड़े प्रासंगिक मुद्दों के बारे में बात होती थी. उनकी लेखनी से पता चलता है कि वो एक समझदार और स्वतंत्र विचारक हैं.’

सामाजिक आंदोलनों का हिस्सा रहने की वजह से धावले का सरकार और पुलिस से हमेशा ही पाला पड़ता रहा. उनकी पत्रिका भले ही छोटे स्तर पर निकलती हो लेकिन वो सत्ता को नाराज करने के लिए काफी थी.

2 जनवरी 2011 में नक्सल आंदोलन के साथ कथित जुड़ाव को लेकर उनकी गिरफ्तारी हुई थी. मामले में हुई गलत जांच और निराधार प्रमाणों को ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था और उन्हें 40 महीने के बाद गोंदिया जेल से रिहा कर दिया गया.

मई 2014 में लौटने के बाद अपनी पत्रिका को और अधिक लोगों तक ले जाने को लेकर धावले का इरादा और मजबूत हो गया था. इस बीच, उनकी पत्नी, जो उनके साथ गिरफ्तार हुए सुरेंद्र गाडलिंग की बहन हैं, उनसे अलग हो गईं और अपने दोनों बच्चों के साथ नागपुर वापस लौट गईं.

जून 2017 में धावले ने एक महत्वकांक्षी योजना बनानी शुरू की. उन्होंने सभी धाराओं के दलित नेताओं को मौजूदा सरकार के खिलाफ एक मंच पर लाने की कवायद शुरू की. इसी समय 200 संगठनों को एक साथ बड़े पैमाने पर लाकर एल्गार परिषद कार्यक्रम की योजना बनाई गई. सतीधर बताते हैं, ‘उन नेताओं, जो सिर्फ तत्कालीन आंदोलन में कुछ समय के लिए दिखाई देते हैं और फिर गायब हो जाते हैं, से उलट धावले हमेशा संघर्ष में लगे रहने वाले ‘फुलटाइमर’ थे.’

एल्गार परिषद में भी धावले योजना बनाने और उसे ज़मीन पर उतारने में लगे हुए थे. सतीधर बताते हैं, ‘वो बड़ी समझदारी से हर चीज को करते हैं. उन्होंने योजना बनाई थी कि एल्गार परिषद के दौरान सिर्फ दलित और बहुजन ही मुख्य मंच पर दिखेंगे. वो राज्य सरकार को बहुजनों की ताकत दिखाना चाहते थे. वो इसमें कामयाब रहें.’

सतीधर को लगता है कि इस कार्यक्रम की कामयाबी की वजह से ही उनकी गिरफ्तारी हुई है.

सुरेंद्र गाडलिंग: लोगों का एक हितैषी वकील

नागपुर में धावले जैसे परिवेश में जन्मे 47 साल के सुरेंद्र गाडलिंग के जीवन में हर फैसला ‘राजनीतिक’ ही रहा है. कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने रेलवे में एप्रेंटिस के तौर पर काम करना शुरू किया था. इस दौरान वे नागपुर में कई सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों में हिस्सा लेते रहे हैं.

जल्दी ही उन्होंने अपने दोस्त जनकवि और लोकगायक संभाजी भगत और मुंबई के कवि और सामाजिक कार्यकर्ता विलास घोगरे के साथ मिलकर आह्वान नाट्य मंच संगठन की शुरूआत की. विलास ने रमाबाई नगर हत्याकांड के विरोध में 1997 में आत्महत्या कर ली थी. यह नाट्य मंच नागपुर की बस्तियों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करता, जिसमें अपने अधिकार और उत्पीड़न के बारे में बात होती थी.

Surendra-Gadling
सुरेंद्र गाडलिंग

बहुत जल्द ही इस मंच एहसास हो गया कि उन्हें इससे और अधिक करने की जरूरत है. उनके साथी एडवोकेट निहाल सिंह राठौड़ बताते हैं, ‘वे क़ानून पर बात करने लगे थे. चूंकि गाडलिंग की मज़दूरों और आम लोगों के अधिकारों में गहरी दिलचस्पी थी इसलिए उन्होंने क़ानून की पढ़ाई करने का विकल्प चुना.’

वक्त के साथ गाडलिंग ग़ैर-क़ानूनी रूप से की गई हत्याओं, पुलिसिया दमन, फर्जी मुकदमे और अपने इलाके में दलितों और आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ लड़ने वाले एक अहम शख्सियत बन गए. जल्द ही उन्हें यूएपीए, वन अधिकार अधिनियम, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम जैसे विशेष क़ानूनों के मामले में विशेषज्ञता हासिल हो गयी.

वे ‘राजनीतिक कैदियों’ के तौर पर पहचाने जाने वाले लोगों के वकील के तौर पर पहली पसंद बन गए. अपनी गिरफ्तारी के वक्त वे दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जीएन साईबाबा का मुकदमा लड़ रहे थे, जिन्हें कथित तौर पर नक्सलियों के साथ संबंध होने की वजह से जेल में बंद रखा गया है. वे  इस तरह के सारे मुकदमे बिना फीस के प्रो-बोनो यानी जनहित के लिए लड़ते हैं.

राठौड़ बताते हैं कि उनके पास मुकदमे बढ़ते गए लेकिन शायद ही कभी उनके पास पैसा आया हो. वो बताते हैं, ‘भीम चौक स्थित उनके घर पर जब इस साल की शुरुआत में पुलिस ने छापा मारा तो उनके छोटे-से घर को देखकर वे हैरान रह गए. उस छापे में पुलिस को केवल उनकी पत्नी के पास 5,000 रुपये मिले.’

गाडलिंग के दो बच्चे हैं, जो अभी पढ़ रहे हैं. इसके अलावा परिवार में मां और पत्नी हैं, जिनके साथ वे भीम चौक स्थित घर में रहते हैं.

गिरफ्तार सभी पांच लोग गाडलिंग को जानते हैं क्योंकि उन्होंने कभी न कभी इनमें से सभी का कोई न कोई मुकदमा लड़ा है या फिर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करने के सिलसिले में वो एक साथ रहे हैं. वकालत के साथ वे प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (सीपीडीआर) और सीआरपीपी के भी सक्रिय सदस्य थे.

गाडलिंग की गिरफ्तारी के बाद एक तरफ उनका परिवार और वकील उनका मुकदमा लड़ने की तैयारी में लगे हैं तो वहीं दूसरी ओर उनके सहकर्मी गाडलिंग सैकड़ों मुकदमों के लिए उचित वकील तलाश रहे हैं. प्रोफेसर साईबाबा की जमानत याचिका अब वरिष्ठ वकील मिहिर देसाई देख रहे हैं.

पिछले कुछ सालों से गाडलिंग को ऑर्थराइटिस और रक्तचाप की गंभीर समस्या हुई है. गिरफ्तारी के बाद गाडलिंग की तबियत बहुत बिगड़ गई और उन्हें 7 जून को पुणे के सासून अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था. उनकी वकील सुज़ेन गॉन्जालविस ने द वायर  को बताया, ‘उन्हें अब आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया है. उनकी तत्काल एंजियोग्राफी करनी पड़ी.’

उन्होंने यह भी बताया कि 8 जून को गाडलिंग की खराब सेहत की वजह से उन्हें पुलिस रिमांड से न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है.

महेश राउत: आदिवासी अधिकारों के प्रणेता

महाराष्ट्र के चंद्रपुर ज़िले के लाखनपुर गांव में 30 साल के महेश राउत का जन्म हुआ था. वे ताउम्र अपने रिश्तेदारों के यहां रहकर पले-बढ़े हैं. उनके पिता गांव के पुलिस पाटिल  थे. जब महेश राउत स्कूल में थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी, जिसके बाद उनका परिवार गढ़चिरौली के वाडसा गांव में आकर बस गया था.

कुछ ही समय के बाद महेश राउत और उनकी दोनों बहनों को अलग-अलग रिश्तेदारों के पास पढ़ाई पूरी करने के लिए भेज दिया गया था. उनकी छोटी बहन, जो मुंबई में काम करती हैं, ने बताया, ‘मैं अपनी मां की बड़ी बहन के पास रही हूं और दादा मां के भाई के पास.’

राउत के दादा एक स्थानीय नेता थे. उनके परिवार के लोग बताते हैं कि राउत अपने दादा जी के विचारों से प्रभावित थे. राउत ने गढ़चिरौली के नवोदय स्कूल में अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए नागपुर आ गए.

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महेश राउत (फोट साभार: फेसबुक)

2009 में उन्होंने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में सोशल वर्क पढ़ाई के लिए दाखिला लिया. उनकी बहन का कहना है कि यहीं पर महेश राउत की सोच बदली. उनकी बहन बताती हैं, ‘उस समय तक तो वे पैसे कमाने को लेकर सोचा करते थे और एक आरामदायक जीवन जीना चाहते थे.’ उनकी बहन पुणे से लेकर नागपुर तक महेश की रिहाई और उनके लिए वकीलों की बंदोबस्त में लगी हुई हैं.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से पहले महेश ने कुछ समय के लिए एक स्थानीय स्कूल में पढ़ाया भी था और गोवा में एक टीचर के पद के लिए उनका चयन भी हुआ था.

महेश राउत टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री रूरल डेवलपमेंट फेलोशिप पाने वाले सबसे कम उम्र के छात्रों में से थे. अब उनके साथियों ने उनके समर्थन में एक पत्र जारी किया है. 2011 से अब तक गढ़चिरौली के जिन आदिवासी इलाकों में महेश ने काम किया है, वहां भी उनके समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है.

फेलोशिप पूरी होने के बाद उन्होंने राज्य के आदिवासी समुदाय के साथ काम करने का फैसला लिया था. गढ़चिरौली से फोन पर द वायर  से बात करते हुए उनकी बहन ने बताया, ‘उन्हें अलग-अलग कॉलेजों में गेस्ट लेक्चर के लिए बुलाया जाता था. उससे उन्हें थोड़े-बहुत पैसे भी मिल जाते थे, लेकिन ज्यादातर वे अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए हमारे ऊपर ही निर्भर थे. उन्होंने जो रास्ता चुना है, उस पर हमें गर्व है.’

ज़िला परिषद के सदस्य और इंडियन लॉ सोसायटीज लॉ कॉलेज से पढ़े वकील और सामाजिक कार्यकर्ता लालसु नोगोटी महेश राउत के करीब रहे हैं. नोगोटी ने द वायर  से बात करते हुए कहा कि महेश राउत ने इस इलाके में कई आंदोलनों का आयोजन और नेतृत्व किया, खासकर सुरजागढ़ खनन प्रोजेक्ट के खिलाफ हुए आंदोलन का.

वे कहते हैं, ‘उन्होंने सिर्फ संवैधानिक तरीके से अपनी लड़ाई लड़ी है और सुनिश्चित किया कि अपने अधिकारों की लड़ाई में वे क़ानूनी विकल्प ही चुने. वे पिछड़े समुदाय से आते हैं और उन्हें अपने और आदिवासियों के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में अच्छे से पता है. यही उन्हें एक जननेता बनाता है.’

महेश राउत विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन (वीवीजेवीए) के केंद्रीय संयोजक और समिति के सदस्य के रूप में सक्रिय थे. वे आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर तेंदू पत्तियों को बिचौलियों के बिना सीधे बाजार में बेचने को लेकर अभियान चला रहे थे.

इस इलाके में अपने काम और पुलिस और प्रशासन के साथ लगातार संघर्ष की वजह से उनके ऊपर कई मुकदमे चल रहे हैं. उनकी बहन कहती हैं, ‘लेकिन यह मामला चौंकाने वाला है. एक आदमी जो समाज के बीच काम करने में लगा हुआ है, उस पर इस तरह के गंभीर आपराधिक आरोप लगा दिए जाते हैं. यह बेतुका है.’

पिछले छह महीनों से महेश राउत अल्सरेटिव कोलाइटिस का इलाज करा रहे हैं. इस स्थिति में मलाशय बढ़ जाता है. उनकी बहन बताती हैं, ‘एक महीने के अंदर उनका सात किलो वजन कम हो गया था. वे अधिकतर घर पर ही रहते थे और उनका इलाज चल रहा था.’

रोना विल्सन: राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए लड़ने वाला सतत कार्यकर्ता

केरल के कोलम ज़िले के 47 साल के रोना विल्सन नब्बे के दशक के आखिरी समय से दिल्ली में रहते आए हैं. वो पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आए थे. जल्दी ही वो यहां एक कार्यकर्ता के तौर पर काम करने लगे थे.

मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता और दो दशकों से विल्सन के दोस्त एसएआर गिलानी बताते हैं, ‘रोना विल्सन जेएनयू में पढ़ रहे थे जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में था. हमारे सर्कल में कई छात्र कार्यकर्ता थे. जल्दी ही विल्सन भी हम में से एक हो गया.’

गिलानी राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए बनी समिति (सीआरपीपी) के संस्थापक हैं. 2001 में संसद पर हुए हमले के मामले में रिहा होने के बाद उन्होंने इसकी स्थापना की थी.

रोना विल्सन
रोना विल्सन

गिलानी बताते हैं, ‘रोना मेरी रिहाई की मांग करने वालों में सबसे आगे थे. जब मेरी रिहाई हुई तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हमें दूसरे राजनीतिक कैदियों जिन्हें मेरी ही तरह जेल में रखा गया है, उनकी मदद के लिए एक ग्रुप बनाना चाहिए. उन्होंने इसके लिए लोगों से संपर्क करने की जिम्मेदारी उठाई.’

सीआरपीपी हर राज्य में काम कर रही है और उन मामलों को देखती है, जहां सत्ता पर सवाल उठाने और उसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करने पर प्रदर्शनकारियों को जेल में डाल दिया गया है. भगत सिंह के भतीजे जगमोहन सिंह भी इसकी कोर कमेटी के सदस्य हैं.

गिलानी कहते हैं कि कइयों को विल्सन की गिरफ्तारी से आश्चर्य हुआ है लेकिन अप्रैल में उनके घर पर हुई छापेमारी से यह साफ हो गया था कि वे जल्दी ही किसी मुसीबत में फंसने वाले हैं.

गिलानी ने द वायर  को फोन पर हुई बातचीत में बताया, ‘महाराष्ट्र में हुए एल्गार परिषद कार्यक्रम से रोना का कोई लेना-देना नहीं था. सच तो यह है कि वो कुछ महीनों से सक्रिय नहीं थे और इंग्लैंड की एक यूनिवर्सिटी में अपना एक रिसर्च प्रपोजल भेजने की तैयारी में लगे हुए थे. कई सालों बाद वो यूनिवर्सिटी में फिर से दाखिला लेना चाहते थे और लंदन की किसी यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने की योजना में थे.’

उनकी गिरफ्तारी के बाद से विल्सन के परिवार वालों को लगातार फोन कॉल्स आ रहे हैं और स्थानीय नेताओं का उनके घर पर तांता लगा हुआ है. गिलानी कहते हैं कि भाजपा के कार्यकर्ता भी उनके घर पर जा रहे हैं. उनके परिवार वाले अचानक यह सब देखकर घबराए हुए हैं.

गिलानी आगे बताते हैं, ‘रोना भले ही कई सालों से सक्रिय थे लेकिन यह पहली बार है जब उनके ख़िलाफ़ कोई मुकदमा दर्ज हुआ है. वे पुलिस की अचानक इस कार्रवाई को लेकर तैयार नहीं थे. उनके और गिरफ्तार किये गये दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप पूरी तरह से गलत हैं. सरकार किसी बहुत ही खतरनाक योजना में लगी हुई है.’

शोमा सेन: एक प्रतिबद्ध नारीवादी और शिक्षाविद

पिछले एक महीने से 31 साल की कोयल सेन अपनी मां शोमा सेन की रिटायरमेंट और उनके 60वें जन्मदिन को लेकर योजनाएं बना रही थीं. वे कहती हैं, ‘मेरी मां आखिरकार तीन दशकों के बाद अपनी नियमित ज़िंदगी से छुट्टी लेने वाली थी. हम सभी इसे लेकर बहुत रोमांचित थे.’

लेकिन 6 जून को शोमा सेन की गिरफ्तारी के बाद उत्साह का यह माहौल उदासी में तब्दील हो चुका है और परिवार के लोग अब वकीलों के चक्कर लगा रहे हैं.

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बेटी के साथ शोमा सेन (दाएं)

नागपुर विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर काम करने वाली शोमा अपने कॉलेज के दिनों से कई महिला आंदोलनों से जुड़ी रही हैं. बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मी शोमा मुंबई के एल्फिंसटन कॉलेज से मास्टर डिग्री लेने के बाद नागपुर आ गई थीं. उन्होंने नागपुर से ही उन्होंने एम.फिल और पीएचडी किया.

कोयल अपने नागपुर के घर में बीते बचपन को याद करते हुए कहती हैं कि हमारे घर का माहौल बहुत जीवंत था. घर पर अक्सर बैठकें हुआ करती थीं.

उन्होंने द वायर  को बताया, ‘लेकिन 2007 में मेरे पिता तुषारकांत भट्टाचार्य की गिरफ्तारी के बाद से सब बदल गया.’  मेरे मां-पापा दोनों ही बाहरी दुनिया की गतिविधियों में कम सक्रिय हुए और अपने शैक्षणिक और अनुवाद के कामों में मशगूल हो गए.

6 जून को जब उनकी मां की गिरफ्तारी हुई तो उस वक्त कोयल मुंबई में थीं. कोयल बताती हैं, ‘मैं मुंबई में बतौर स्वतंत्र फिल्मकार काम करती हूं. सुबह उठते ही मुझे इन गिरफ्तारियों की ख़बर मिली. मैं नहीं जानती थी कि मेरी मां भी इन पांचों में से एक हैं. जब मुझे पता चला तब मैं पुणे के लिए रवाना हो गई जहां उन्हें कोर्ट के सामने पेश किया जाना था.’

कोर्ट और जेल कोयल के लिए कोई नई बात नहीं है. उनके पिता जब 2007 में गिरफ्तार हुए थे तब वे कई बार जेल में उनसे मिलने जाया करती थीं.

वे कहती हैं, ‘मैंने कम उम्र में ही अपने परिवार में बहुत कुछ होते देखा है. मेरे पिता पर नक्सल आंदोलन में शामिल होने का आरोप लगा और वे 4 साल जेल में रहे. लेकिन 2011 में जब वे बरी हो गए, उसके बाद उन्होंने अपने आप को लेखन उर अनुवाद के काम में केंद्रित कर लिया.’

कोयल बताती हैं कि उनकी मां जो अपनी युवावस्था के दिनों में मानवाधिकार बैठकों-आयोजनों में काफी सक्रिय थीं, पिछले कई सालों में उनकी सक्रियता कम हो गयी थी.

वे कहती हैं, ‘पिछले कई सालों से वो लगभग एक बुर्जुआ ज़िंदगी जी रही थी, जहां हर वक्त उनकी मदद के लिए दो घरेलू सहायक और एक ड्राइवर मौजूद रहते थे. वे रिटायरमेंट के बाद एक शांत और आरामदायक ज़िंदगी जीने के बारे में सोच रही थीं.’

दूसरे गिरफ्तार लोगों की तरह ही शोमा सेन का भी भीमा कोरेगांव की घटना से कोई लेना-देना नहीं है. कोयल कहती हैं, ‘मेरे माता-पिता इस आंदोलन के साथ समर्थन में हैं बस. इसके अलावा और कुछ नहीं है.’

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