उस पैम्फलेट में क्या है जो भाजपा के नेता मशहूर हस्तियों के घर लेकर जा रहे हैं?

संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन: बैंक सेक्टर भीतर से ढह गया और रेल व्यवस्था चरमरा चुकी है, छह एम्स में सत्तर फ़ीसदी पढ़ाने वाले डॉक्टर नहीं हैं. इसका ज़िक्र पैम्फलेट में है या नहीं?

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(फोटो: पीटीआई)

संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन: बैंक सेक्टर भीतर से ढह गया और रेल व्यवस्था चरमरा चुकी है, छह एम्स में सत्तर फ़ीसदी पढ़ाने वाले डॉक्टर नहीं हैं. इसका ज़िक्र पैम्फलेट में है या नहीं?

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संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन के तहत उद्योगपति रतन टाटा से मिले अमित शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/भाजपा)

भाजपा के नेता पत्रकारों (एंकरों) के घर भी जा रहे हैं. पैम्फलेट देते हैं और फ़ोटो खिंचाते हैं. पत्रकारों के अलावा कुछ मशहूर हस्तियों के घर जा रहे हैं जैसे पूर्व सेनाध्यक्ष, डॉक्टर, प्रोफ़ेसर. वैसे इन एंकरों को प्रेस कांफ्रेंस में पैम्फलेट मिला ही होगा. नहीं मालूम कि इन्होंने या किसी गणमान्य ने अपने सवाल पूछे या नहीं. पूछने की हिम्मत भी हुई या नहीं.

प्रचार के लिए मेहनत करने और अपनी बात को लोगों तक ले जाने में भाजपा का जवाब नहीं. हार-जीत के अलावा विपक्ष इस मामले में भाजपा की रणनीति को मैच नहीं कर सकता. इन तस्वीरों से एक मैसेज तो जाता ही है कि शहर या समाज के कथित रूप से ये बड़े लोग भाजपा के कार्य से प्रभावित हैं या भाजपा इनसे संपर्क में हैं.

अमित शाह तथाकथित संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के घर गए थे. कश्यप जी को बताना चाहिए कि उत्तराखंड और अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन को लागू करने के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया. क्या आपने इस फ़ैसले का समर्थन किया था?

या मोदी सरकार के क़दम का समर्थन किया था? इस दौरान आपने संवैधानिक प्रश्नों पर कितनी आलोचना की? क्या आपने तब मोदी सरकार से सवाल किए थे या संविधान की समझ पर राजनीतिक चालाकी का पर्दा डाल कर समर्थन कर रहे थे?

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संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन के तहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नय्यर से मुलाकात की. (फोटो साभार: बीजेपीडॉटओआरजी)

पत्रकारों ने सुभाष कश्यप से नहीं पूछा होगा. बहरहाल जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ. इन लोगों से पूछने का एक नया दौर शुरू हो सकता है अगर जनता भी इनके घर अपने सवालों का पैम्फलेट लेकर जाने लगे.

जिन युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही है, आयोग परीक्षा लेकर रिज़ल्ट नहीं निकाल रहे हैं, पास करके नियुक्ति पत्र नहीं दिया जा रहा है, नौकरी में लेकर निकाल दिया जा रहा है, कालेज में प्रोफ़ेसर नहीं हैं, क्लास ठप्प हैं, परीक्षाएं या तो होती नहीं या फिर मज़ाक़ हो चुकी हैं, किसान से लेकर ठेके पर काम करने वाले लोग सब इन एक लाख लोगों के घर जाएं जिनकी सूची भाजपा के पास है.

सबको बारी-बारी से इनके घर जाना चाहिए यह बताने के लिए कि आपको जो पैम्फलेट दिया गया है, ज़रा देखिए उसमें हमारी समस्या है या नहीं, हमारे लिए कोई बात है या नहीं.

युवा पूछें कि जो पैम्फलेट अमित शाह देकर गए हैं उसमें मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले का ज़िक्र है जिसकी जांच या गवाही से जुड़े क़रीब पचास लोगों की संयोगवश दुर्घटना में या असामयिक मौत हो चुकी है?

यह कैसा संयोग है कि एक केस से जुड़े पचास लोगों की मौत हो जाती है? मीडिया में छप भी रहा है मगर सन्नाटा पसरा है. बिहार के कई हज़ार करोड़ के सृजन घोटाले के मुख्य आरोपियों की गिरफ़्तारी का वारंट आज तक नहीं आया, उसका ज़िक्र है कि नहीं.

नोटबंदी के दौरान तमिलनाडु में पचास हज़ार मंझोले उद्योग बंद हो गए उसका ज़िक्र है या नहीं. बैंक कैशियरों ने अपनी जेब से नोटबंदी के दौरान जुर्माना दिया, उसका ज़िक्र है या नहीं.

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संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन के तहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने फिल्म अभिनेत्री माधुरी दीक्षित से मुलाकात की. (फोटो साभार: फेसबुक/भाजपा)

आपको पता होगा कि नोटबंदी के दौरान कैशियरों पर अचानक कई करोड़ नोट गिनने का दबाव डाला गया, उनसे चूक होनी ही थी. जिसकी भरपाई कैशियरों ने कई करोड़ रुपये अपनी जेब से देकर की. कैशियरों ने जाली नोट के बदले अपनी जेब से जुर्माना भरा.

नोटबंदी के झूठ का नशा इतना हावी था कि कैशियरों ने भी सरकार से अपना पैसा नहीं मांगा. बैंक सिस्टम के भीतर सबसे कम कमाने वाला लूट लिया गया मगर उसने और उनके साथियों ने उफ़्फ़ तक नहीं की.

बैंक सेक्टर भीतर से ढह गया और रेल व्यवस्था चरमरा चुकी है, उसका ज़िक्र पैम्फलेट में है या नहीं. छह एम्स में सत्तर फ़ीसदी पढ़ाने वाले डॉक्टर नहीं हैं, अस्सी फ़ीसदी सपोर्ट स्टाफ़ नहीं है. हमारे देश में डॉक्टर कैसे बन रहे हैं और मरीज़ों का उपचार कैसे हो रहा है इसका ज़िक्र है या नहीं.

हर राज्य में पुलिस बल ज़रूरी संख्या से कई हज़ार कम हैं, वहां भर्ती हो रही है या नहीं. न्याय व्यवस्था का भी बुरा हाल है. अगर ये सब नहीं है तो उस पैम्फलेट में क्या है जो बीजेपी के नेता पत्रकारों और सेनाध्यक्षों के घर लेकर जा रहे हैं. कई महीने से दलितों के घर खाना खा रहे थे, वहां तो ये वाला पैम्फलेट लेकर नहीं गए! किसानों को भी ये पैम्फलेट दे आना चाहिए.

यह दृश्य ही अपने आप में शर्मनाक है कि एंकर अपने घर में किसी सत्तारूढ़ दल का पैम्फलेट चुपचाप और दांत चियारते हुए स्वीकार कर रहा है. पर दौर बदल गया है. अब जो बेशर्म है उसी की ज़्यादा ज़रूरत है पत्रकारिता में. क्या आपने देखा है कि पैम्फलेट स्वीकार करने वाले एंकरों ने उस पर सवाल करते हुए कुछ लिखा या बोला हो. अगर आप इसी तरह मीडिया को ध्वस्त होने देंगे तो फिर आपके लिए क्या बचेगा? आपकी आवाज़ को कौन पूछेगा.

(यह लेख मूलतः रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)