हिंदुत्ववादियों का मनुस्मृति से ‘मोह’ छूट नहीं रहा है

भारत द्वारा संविधान अपनाए हुए सत्तर साल बीत चुके हैं. डॉ. आंबेडकर के मुताबिक इसने ‘मनु के शासन की समाप्ति की थी.’ लेकिन हिंदुत्ववादियों के बीच आज भी उसका सम्मोहन बरक़रार है.

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भारत द्वारा संविधान अपनाए हुए सत्तर साल बीत चुके हैं. डॉ. आंबेडकर के मुताबिक इसने ‘मनु के शासन की समाप्ति की थी.’ लेकिन हिंदुत्ववादियों के बीच आज भी उसका सम्मोहन बरक़रार है.

Rajsthan Highcourt AIR
राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की मूर्ति अदालत के प्रांगण में स्थापित की गई है. फोटो साभार: (आॅल इंडिया रेडियो)

मनु और उनका ग्रंथ मनुस्मृति 21 वीं सदी की दूसरी दहाई के अंत में भी सुर्खियों में आता रहता है.

हिंदुत्व वर्चस्ववादियों बीच आज भी उसके सम्मोहन को देखते हुए जबकि नवस्वाधीन भारत द्वारा संविधान अपनाए हुए सत्तर साल का वक्फा गुजरने को है, जिसने बकौल डॉ आंबेडकर ‘मनु के शासन की समाप्ति की थी.’

मनुस्मृति के महिमामंडन करने वालों की कतार में इन दिनों नया नाम शामिल हुआ है जनाब संभाजी भिड़े जो शिवप्रतिष्ठान संगठन के अगुआ हैं और अपने बयानों और कार्रवाइयों से आए दिन सुर्खियों में छाए रहते हैं.

मालूम हो कि जनवरी माह की शुरुआत में पुणे के पास भीमा कोरेगांव के पास दलितों पर जो संगठित हमले हुए थे, उसमें पीड़ितों द्वारा अभियुक्तों में इनका नाम भी शामिल किया गया है.

बहरहाल अपने अनुयायियों जिन्हें ‘धारकरी’ कहते हैं (यह लब्ज ‘वारकरी’ के बरअक्स वह इस्तेमाल करते हैं, जो हर साल पुणे से पंढरपुर पैदल यात्रा करते हैं) को संबोधित करते हुए उन्होंने उन्हें हिंदू धर्म के विचारों का प्रचार-प्रसार करने और हिंदू राष्ट्र बनाने का आह्वान किया. उन्होंने अनुयायियों को यह भी बताया कि किस तरह ‘मनुस्मृति की शिक्षाएं संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम जैसों की शिक्षाओं से बेहतर हैं.’

इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि उन्होंने न केवल मनुस्मृति का गुणगान किया था बल्कि पश्चिमी भारत में बेहद लोकप्रिय एवं विद्रोही प्रवृति के समझे जाने वाले दो संतों का अपमान किया था, तत्काल उन्हें ‘गिरफतार करने’ की मांग उठी और सरकार को भी यह कहना पड़ा कि वह इस मामले की तहकीकात करेगी.

जांच जो भी हो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तहकीकात का क्या नतीजा निकलेगा? दरअसल 85 साल की उम्र के जनाब संभाजी भिड़े की अहमियत को इस आधार पर जाना जा सकता है कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘गुरु’ कहा जाता है और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस का ‘संरक्षक’ कहा जाता है.

मनु के महिमामंडन करने वालों में भिड़े अपवाद नहीं हैं. दरअसल मनुस्मृति के प्रति सम्मोहन ‘परिवार’ में चौतरफा मौजूद है.

अभी पिछले साल (2017) की ही बात है. जब संघ के अग्रणी विचारक इंद्रेश कुमार ने ऐतिहासिक महाड़ सत्याग्रह के 90वीं सालगिरह के महज 15 दिन पहले जयपुर में एक कार्यक्रम में शामिल होकर मनु और मनुस्मृति की प्रशंसा की थी.

सभी जानते हैं कि महाड़ सत्याग्रह (19-20 मार्च तथा 25 दिसंबर 1927 को दूसरा चरण) को नवोदित दलित आंदोलन में मील का पत्थर समझा जाता है जब डॉ आंबेडकर ने एक प्रतीकात्मक कार्यक्रम में हजारों लोगों की उपस्थिति में मनुस्मृति का दहन किया था और मनुस्मृति की मानवद्रोही अंतर्वस्तु के लिए (जो दलितों, शूद्रों एवं स्त्रियों को सभी मानव अधिकारों से वंचित करती है) उस पर जोरदार हमला बोला था.

अपने इस ऐतिहासिक आंदोलन की तुलना आंबेडकर ने 18वीं सदी की आखरी दहाईयों में सामने आयी फ्रांसिसी इंकलाब से की थी, जिसने समूची मानवता की मुक्ति के लिए स्वतंत्रता, समता और बंधुता का नारा दिया था.

अगर हम जयपुर में आयोजित उस आम सभा की ओर लौटें, जिसका आयोजन किन्हीं ‘चाणक्य गण समिति’ ने किया था और जिसका फोकस था ‘आदि पुरुष मनु को पहचानें, मनुस्मृति को जानें’ तथा कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में साफ लिखा था कि मनुस्मृति ने मुख्यतः ‘जातिभेद का तथा जातिप्रथा का विरोध किया.’

अपने लंबे वक्तव्य में इंद्रेश कुमार ने श्रोतासमूह को बताया कि मनु न केवल जातिप्रथा के विरोधी थे बल्कि विषमता की भी मुखालिफत करते थे और अतीत के इतिहासकारों ने जनता के सामने ‘दबाव के तहत’ मनु की ‘गलत छवि’ पेश की है. उन्होंने मनु को सामाजिक सद्भाव और सामाजिक न्याय के क्षेत्र का दुनिया का पहला न्यायविद भी बताया.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता द्वारा मनु की खुली प्रशंसा जिस शहर जयपुर में हो रही थी, वह भारत का एकमात्र ऐसा शहर है जहां मनु की मूर्ति उच्च अदालत के प्रांगण में स्थापित की गई है और आंबेडकर की मूर्ति कहीं अदालत के कोने में स्थित है.

मालूम हो मनु की मूर्ति की स्थापना संघ के एक अन्य स्वयंसेवक तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत के कार्यकाल में हुई थी. संविधान के बुनियादी उसूलों से जिनके विचार कत्तई मेल नहीं खाते उस मनु की मूर्ति को अदालत से हटाने के लिए कई आंदोलन चले हैं, मगर आज भी वह मूर्ति ‘मामला अदालत में विचाराधीन’ है, कहते हुए वहीं विराजमान है.

संभाजी भिड़े. (फोटो: पीटीआई)
संभाजी भिड़े. (फोटो: पीटीआई)

निश्चित ही मनु को वैधता प्रदान करने, उन्हें महिमामंडित करने का सिलसिला महज मूर्तियों की स्थापना तक सीमित नहीं है, इसने कई रूप लिए हैं. यह बात बहुत कम लोगों को याद होगी कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के पद पर जब उमा भारती विराजमान थीं, तब उनकी सरकार ने गोहत्याबंदी को लेकर एक अध्यादेश जारी किया था और इसके लिए जो आधिकारिक बयान जारी किया गया था उसमें मनुस्मृति की महिमा गायी गई थी. (जनवरी 2005) गाय के हत्यारे को मनुस्मृति नरभक्षी कहती है और उसके लिए सख्त सजा का प्रावधान करती है.

निश्चित तौर पर आजाद भारत के कानूनी इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी कानून को इस आधार पर औचित्य प्रदान किया जा रहा था कि वह मनुस्मृति के अनुकूल है.

विडंबना यही थी कि कानून रचने वालों को मनुस्मृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का ऐलान करने में बिल्कुल संकोच नहीं हो रहा था जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि मनु के विचार संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं.

व्यक्तिगत पसंदगी/नापसंदगी की बात अलग आखिर मनुस्मृति के प्रति समूचे हिंदुत्व ब्रिगेड में इस किस्म का सम्मोहन क्यों दिखता है? समझा जा सकता है कि मनुस्मृति का महिमामंडन जो ‘परिवार’ के दायरों में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है उससे दोहरा मकसद पूरा होता है:

  • वह मनुस्मृति को उन तमाम ‘दोषारोपणों से मुक्त’ कर देती है जिसके चलते वह रैडिकल दलितों से लेकर तर्कशीलों के निशाने पर हमेशा रहती आई है
  • दूसरे, इससे संघ परिवारी जमातों की एक दूसरी चालाकी भरे कदम के लिए जमीन तैयार होती है जिसके तहत वह दलितों के ‘असली दुश्मनों को चिंह्नित करते हैं’ और इस कवायद में ‘मुसलमानों’ को निशाने पर लेते हैं. वह यही कहते फिरते हैं कि मुसलमान शासकों के आने के पहले जाति प्रथा का अस्तित्व नहीं था और उनका जिन्होंने जम कर विरोध किया, उनका इन शासकों द्वारा जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया और जो लोग धर्मांतरण के लिए तैयार नहीं थे, उन्हें उन्होंने गंदे कामों में ढकेल दिया.

आज ऐसे आलेख, पुस्तिकाएं यहां तक किताबें भी मिलती हैं जो मनुस्मृति के महिमामंडन के काम में मुब्तिला दिखती हैं. प्रोफेसर केवी पालीवाल की एक किताब, ‘मनुस्मृति और आंबेडकर’ इसका एक दिलचस्प उदाहरण पेश करती है.

किन्हीं ‘हिंदू राइटर्स फोरम’ द्वारा प्रकाशित(मार्च 2007, नई दिल्ली) इस किताब के लेखक की हिंदुत्व वर्चस्ववादी फलसफे के साथ नजदीकी साफ दिखती है. प्रस्तुत फोरम द्वारा प्रकाशित किताबों में से 20 से अधिक किताबें इन्हीं प्रोफेसरसाब की लिखी हैं.

इतनाही नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रत्यक्ष/अपरोक्ष जुड़े समझे जाने वाले सुरुचि प्रकाशन (दिल्ली) से भी इनकी कई किताबें प्रकाशित हुई हैं. यहां ‘मनुस्मृति और आंबेडकर’ शीर्षक किताब की प्रस्तावना के एक हिस्से का उल्लेख किया जा सकता है जिसका शीर्षक है ‘ये पुस्तक क्यों?’ (पेज 3) जिसमें लिखा गया है:

यह पुस्तक उन लोगों के लिए लिखी गई है जिन्हें यह भ्रम है कि स्वायम्भुव मनु की मनुस्मृति हिंदू समाज में आज व्याप्त जात-पांत, उंच-नीच और छूआछूत का समर्थन करती है. इसका दूसरा उद्देश्य इस भ्रम को भी दूर करना है कि मनु, शूद्रों और स्त्रियों के विरोधी और ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं. इसका तीसरा उद्देश्य आधुनिक युग के समाज सुधारक और दलित नेता डॉ भीमराव आंबेडकर द्वारा मनुस्मृति के संबंध में फैलाई गई भ्रांतियों को भी सप्रमाण दूर करना है.

प्रस्तावना में यह भी बताया गया है कि किस तरह डॉ आंबेडकर ने ‘मनुस्मृति के विषय में वेद विरोधी मैक्समुलर द्वारा संपादित और जार्ज बुहलर द्वारा अंग्रेजी में अनूदित मनुस्मृति के आधार पर लिखा जिसके कारण उन्हें अनेक भ्रांतियां हुईं.’ प्रस्तावना के मुताबिक मनुस्मृति के कुल 2,865 श्लोकों में से लगभग 56 फीसदी श्लोक मिलावटी हैं और किन्हीं डॉ सुरेंद्र कुमार के हवाले से बताया गया है कि उन्होंने इन ‘मिलावटों’ को ध्यान में रखते हुए 1985 में एक ‘विशुद्ध मनुस्मृति’ तैयार की है. डा केवी पालीवाल के मुताबिक,

‘यदि यह विशुद्ध मनुस्मृति, डॉ आंबेडकर के लेखन से पहले, 1935 तक, अंग्रेजी में संपादित हो गई होती और वर्णों की भिन्नता को आंबेडकर स्वाभाविक मान लेते, तो मनुस्मृति विरोध न होता.’ (देखें, पेज 5)

क्या यह कहना सही होगा कि आंबेडकर ने मनुस्मृति का गलत अर्थ लगाया था क्योंकि वह कथित तौर पर संस्कृत भाषा के विद्वान नहीं थे, जैसा कि डॉ पालीवाल कहते हैं. निश्चित ही नहीं.

ऐसी बेबुनियाद बातें उस महान विद्वान तथा लेखक के बारे में कहना (जिसकी अपने निजी पुस्तकालय में हजारों किताबें थीं, जिन्होंने कानून के साथ-साथ अर्थशास्त्र की भी पढ़ाई की थी तथा जिन्होंने विभिन्न किस्म के विषयों पर ग्रंथनुमा लेखन किया) एक तरह से उनका अपमान करना है. अगर हम महज उनके द्वारा रची गई विपुल ग्रंथ संपदा को देखें तो पता चलता है कि वह सत्रह अलग-अलग खंडों में बंटी है, जिसका प्रकाशन सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय की तरफ से किया गया है.

मनुस्मृति के बारे में आंबेडकर की अपनी समझदारी उनकी अधूरी रचना ‘रेवोल्यूशन एंड काउंटररेवोल्यूशन इन एन्शंट इंडिया’(प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति) में मिलती है.

यहां इस बात का उल्लेख करना समीचीन होगा कि बुनियादी तौर पर उन्होंने इस मसले पर सात अलग-अलग किताबों की रचना करना तय किया था, मगर उस काम को वह पूरा नहीं कर सके थे. यह ग्रंथमाला आंबेडकर के इस बुनियादी तर्क के इर्द-गिर्द संकेंद्रित होने वाली थी जिसके तहत उन्होंने बौद्ध धर्म के उभार को क्रांति माना था और उनका साफ मानना था कि ब्राह्मणों द्वारा संचालित प्रतिक्रांति के चलते अन्ततः बौद्ध धर्म की अवनति हुई.

आंबेडकर के मुताबिक मनुस्मृति एक तरह से ‘हिंदू समाज जिस भारी सामाजिक उथलपुथल से गुजरा है उसका रिकॉर्ड है.’ वह उसे महज कानून की किताब के तौर पर नहीं देखते हैं बल्कि आंशिक तौर पर नीतिशास्त्र और आंशिक तौर पर धर्म के तौर पर भी देखते हैं.

अब प्रबुद्ध समुदाय के एक हिस्से की मनुस्मृति के बारे में राय बदल रही हो, मालूम नहीं, लेकिन आंबेडकर इसके लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट हैं और इसी वजह से मनुस्मृति को वह ‘प्रतिक्रांति का दस्तावेज’ कहते हैं.

इस बात की अधिक चर्चा नहीं हुई है कि किस तरह आंबेडकर ने मनु जिसने नीत्शे को प्रेरित किया, जिसने फिर हिटलर को प्रेरित किया, इनके बीच के विचारधारात्मक अपवित्र लिंक को उजागर किया था.

और यह बात भी आम है कि हिटलर और मुसोलिनी ने संघ और हिंदू महासभा के मनुवादियों को प्रेरित किया फिर चाहे वो सावरकर हों या मुंजें हो या हेडगेवार या गोलवलकर हों.

‘कम्युनैलिजम काम्बेट’ के मई 2000 के अंक में आंबेडकर के लेखन से चुनिंदा अंश निकाल कर उजागर किया गया है कि किस तरह नीत्शे को हिंदू धर्म के दर्शन से प्रेरणा मिली थी.

‘वह व्यक्तिगत न्याय या सामाजिक उपयोगिता पर आधारित नहीं है. हिंदू धर्म का दर्शन बिल्कुल अलग सिद्धांत पर टिका है. क्या सही है और क्या अच्छा है इस प्रश्न का जो उत्तर हिंदू धर्म का दर्शन देता है, वह काबिलेगौर है. वह मानता है कि किसी काम का सही होना और अच्छा होना उसके लिए जरूरी है कि वह सुपरमैन के तबके अर्थात ब्राह्मणों के हितों की सेवा करे.’

मनुस्मृति को संदर्भित करते उन्होंने कहा था कि

‘…किस तरह मनु का यह पाठ हिंदू धर्म के दर्शन की अंतर्वस्तु और उसके हदय को उजागर करता है. हिंदू धर्म सुपरमैन का सुसमाचार/धर्मग्रंथ है और वह सिखाता है कि सुपरमैन के लिए जो सही है वही बात नैतिक तौर पर सही और नैतिक तौर पर अच्छी हो सकती है.

क्या इस दर्शन का कोई समानांतर मौजूद है? मुझे यह कहने में संकोच हो रहा है, मगर यह स्पष्ट है. हिंदू धर्म से समानांतर बातें नीत्शे के दर्शन में मिलती है. मेरे इस कथन पर हिंदू जरूर नाराज होंगे.’

आंबेडकर के मुताबिक अपनी किताब ‘एंटी क्राइस्ट’ में नीत्शे ने मनुस्मृति की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और यह भी कहा था कि वह तो महज मनु के रास्ते पर चल रहे हैं :

‘जब मैं मनु की कानून की किताब पढ़ता हूं जो अतुलनीय बौद्धिक और बेहतर रचना है, यह आत्मा के खिलाफ पाप होगा अगर उसका उल्लेख बाइबिल के साथ किया जाए. आप तुरंत अंदाजा लगाएंगे कि उसके पीछे एक सच्चा दर्शन है, हर तरफ शैतान को सूंघनेवाला यहूदी आचार्यों और अंधश्रद्धा का घालमेल नहीं है- वह किसी तुनकमिजाज मनोविज्ञानी को भी सोचने के लिए कुछ सामग्री अवश्य देता है.’

आंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया था कि किस तरह नात्सी-

‘अपनी वंश परम्परा नीत्शे से ग्रहण करते हैं और उसे अपना आध्यात्मिक पिता मानते हैं. नीत्शे की एक मूर्ति के साथ खुद हिटलर ने अपनी तस्वीर खिंचवायी थी; वह इस उस्ताद की पांडुलिपियां अपने खास संरक्षकत्व में रखता है ; नीत्शे के लेखन के चुने हुए उद्धरणों को (नई जर्मन आस्था के तौर पर) नात्सी समारोहों में उद्धृत किया जाता है.’

शायद मनु, नीत्शे, हिटलर और हिंदुत्व वर्चस्ववादी फलसफे के बीच के रिश्तों को ढूंढना अब आसान हो जाए.

मनु ने नीत्शे को प्रेरित किया, नीत्शे ने हिटलर और मुसोलिनी को आगे प्रेरित किया, हिटलर और मुसोलिनी के विचारों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा को प्रेरित किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने मनुस्मृति के साथ अपने नाभिनालबद्ध रिश्ते को बरकरार रखा.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)