क्या राफेल सौदा भाजपा का बोफोर्स साबित होगा?

कांग्रेस को लगता है कि उसने भाजपा की कमज़ोर नस पकड़ ली है और वह इसे 2019 के आम चुनाव तक हाथ से जाने नहीं देना चाहती है.

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कांग्रेस को लगता है कि उसने भाजपा की कमज़ोर नस पकड़ ली है और वह इसे 2019 के आम चुनाव तक हाथ से जाने नहीं देना चाहती है.

New Delhi: Indian Youth Congress activists shout slogans during a demonstration against BJP government over the alleged Rafale fighter aircraft deal scam, near Parliament House in New Delhi on Monday. PTI Phoro by Shahbaz Khan (PTI3_5_2018_000198B)
नई दिल्ली में राफेल सौदा विवाद को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते यूथ कांग्रेस के सदस्य. (फाइल फोटो: पीटीआई)

राफेल सौदा विवाद के बादल जिस तरह से छंटने का नाम नहीं ले रहे हैं और जिस तरह से राहुल गांधी लगातार प्रधानमंत्री पर इस सौदे में अपने मित्रों को फायदा पहुंचाने का आरोप लगा रहे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 2019 के चुनाव से पहले यह विवाद भाजपा का बोफोर्स क्षण साबित हो सकता है.

हालांकि, चुनावों के इस मौसम में भाजपा इन आरोपों को हवा में उड़ा देने की पूरी कोशिश कर रही है, मगर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता इसे ‘बोफोर्स की वापसी’ के तौर पर देख रहे हैं. कांग्रेस को लगता है कि उसने भाजपा की कमजोर नस पकड़ ली है और वह इसे 2019 के चुनाव से पहले तक हाथ से जाने नहीं देना चाहती, जो कि महज आठ महीने दूर है.

इस मसले पर कई कांग्रेसी और विपक्षी नेताओं से बातचीत करने के बाद कई महत्वपूर्ण मसले उभर कर सामने आए.

एक, शीर्ष कांग्रेसी नेता ने कहा कि पिछले सप्ताह कांग्रेस कार्यसमिति की अपनी पहली बैठक में राहुल गांधी ने पार्टी को यह स्पष्ट कर दिया कि राफेल सौदा और इसमें करीबी लोगों को फायदा पहुंचाने के आरोप पार्टी के एजेंडे में शीर्ष पर है.

गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि वे पार्टी से इस मुद्दे को संसद के भीतर और बाहर पूरे जोर-शोर से उठाने की उम्मीद करते हैं. गांधी ने कहा कि वे व्यक्तिगत तौर इस बात के लिए हर नेता की निगरानी करेंगे कि उन्होंने राफेल सौदे पर भाजपा को जमीन पर पटकने की जिम्मेदारी को कितना पूरा किया है.

दो, यह गांधी के सूट बूट की सरकार वाले तंज का विस्तार है, जिसन मोदी को भूमि अधिग्रहण कानून को स्थायी तौर पर बक्से में बंद करने पर मजबूर कर दिया. कई नेताओं का कहना है कि संसद में गांधी का निशाना साध कर किया गया हमला काफी धारदार था : ‘इस करार को एचएएल (हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड, जो कि एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है) से छीन कर एक ऐसे व्यक्ति को दे दिया गया जो कर्ज में है और जिसके पास इस क्षेत्र का कोई अनुभव नहीं है.’

कांग्रेस नेताओं में सदन को गुमराह करने के लिए मोदी और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण के खिलाफ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव का अनुमोदन करने को लेकर आपस में होड़ मच गई.

इस प्रस्ताव पर कांग्रेस के मुख्य सचेतक (व्हिप) ज्योतिरादित्य सिंधिया और सदन में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के दस्तखत हैं. प्रस्ताव के कई सेट सौंपे गए हैं, जिन पर राजीव सातव, वीरप्पा मोइली और केवी थॉमस के दस्तखत हैं.

गांधी निरंतर मोदी पर कई अरबपतियों के साथ उनकी नजदीकी को लेकर निशाना साध रहे हैं, जिनमें गौतम अडाणी, अनिल अंबानी और अजय पीरामल शामिल हैं.

अधिकारपूर्ण स्रोतों का कहना है कि कांग्रेस ने मोदी और उनके दोस्तों पर निशाना साधने वाले एक तीखे प्रचार अभियान की योजना बनाई है, जिनके बारे में कांग्रेस यह कहेगी कि मोदी इनके ‘अच्छे दिन’ के लिए काम करते हैं. इसके साथ ही राफेल सौदे पर अमूल के विज्ञापन ने कांग्रेसी नेताओं को खुश कर दिया है क्योंकि इसे जनता की स्वीकृति का बैरोमीटर माना जाता है.

एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि अमूल की लड़की और राहुल गांधी सिर्फ जनता की चिंताओं को आवाज दे रहे हैं कि मोदी सरकार सिर्फ मुट्ठीभर अरबपतियों के लिए काम करती है. कृपया मुझे यह बताइये कि आखिर किन लोगों ने भाजपा को एशिया की सबसे अमीर पार्टी बनाया है?’

राहुल गांधी का ट्वीट : 2014 से भारत के रक्षामंत्री की कुर्सी चार लोगों के बीच घूम चुकी है. अब हमें इसका कारण पता है. इसने प्रधानमंत्री को निजी तौर पर फ्रांस के साथ नए सिरे से राफेल करार पर सौदेबाजी करने का मौका दिया. भारत के पास 4 ‘राफेल’ मंत्री थे, लेकिन इनमें से किसी को नहीं पता है कि फ्रांस में क्या हुआ. सिवाय पीएम के. लेकिन वे बोलेंगे नहीं.

भाजपा ने जरूर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि पालतू मीडिया राफेल सौदा को न उछाले, लेकिन यह मुद्दा ठंडा पड़ता नहीं दिख रहा है. इससे भी ज्यादा विपक्षी राजनीति का उभार भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन गया है.

जरा इस पर विचार कीजिएः उस समय के विदेश सचिव एस.जयशंकर, जिन्हें मोदी ने अपनी विदेश नीति की देखरेख करने के लिए चुना था, उन्होंने अप्रैल, 2015 में प्रधानमंत्री की फ्रांस यात्रा से पहले एक औपचारिक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया था और मीडिया से कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र का एचएएल राफेल का भागीदार था.

जयशंकर को मोदी का काफी करीबी माना जाता था. इसलिए यह सवाल उठता है कि आखिर वे सार्वजनिक तौर पर ऐसा कोई दावा क्यों करेंगे, जो पलट कर मोदी के लिए सिरदर्द बन जाए.

प्रधानमंत्री विदेशी धरती पर रक्षा करारों की घोषणा न करके घर लौट कर रक्षा मामलों की शीर्ष निकाय सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति से हरी झंडी मिलने के बाद ही इसकी घोषणा करते हैं. लेकिन मोदी ने 2015 में इस परंपरा को तोड़ दिया. इससे पहले तक ऐसे करारों की घोषणा रक्षा मंत्री करते रहे थे.

लेकिन मोदी ने सभी परंपराओं को तोड़ते हुए पेरिस में ही इस सौदे का ऐलान कर दिया, जिसने तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर को अचंभे में डाल दिया. यह जल्दबाजी तब और साफ दिखाई देती है, जब हम इस तथ्य को देखते हैं कि सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की बैठक की ही नहीं गई.

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पेरिस में तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

दिलचस्प यह है कि एचएएल से इस करार को छीने जाने से पहले डसॉल्ट एविएशन और एचएएल, दोनों के ही वरिष्ठ अधिकारियों ने मोदी के मार्च, 2015 में मोदी के पेरिस जाने से पहले सार्वजनिक बयानों में यह कहा था कि यह करार 90 प्रतिशत हो चुका था. 90 फीसदी से हो चुके करार को अचानक निरस्त कर दिया गया. आखिर अचानक क्या बदल गया?

यहां तक कि भाजपा के सहयोगी भी इस नए करार की कीमत को लेकर सरकार के हठी रवैये और गोपनीयता को लेकर असहज हैं. एनडीए के सहयोगी घटकों में से एक मंत्री ने कहा, ‘धारणा का महत्व होता है. यहां तक कि सीता को भी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा था. फिर मोदी को लोकसभा में अग्निपरीक्षा का सामना करने में गुरेज क्यों है?’

दिलचस्प यह है कि भाजपा की सहयोगी शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने 25 जुलाई को 2जी मामले का जिक्र छेड़ा और मोदी सरकार से पूछा कि आखिर वह इस पर क्या करने का इरादा रखती है.

यहां यह दर्ज किया जा सकता है कि जब 2जी का मुकदमा चल रहा था, तब 2015 में अनिल अंबानी समूह को राफेल के पार्टनर के तौर पर शामिल किया गया और एचएएल को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

विभिन्न दलों के नेता यह सवाल उठा रहे हें कि भले मोदी ने फ्रांसीसी फर्म के साथ नए सिरे से करार किया हो, लेकिन इस करार से एचएएल को क्यों बाहर किया गया?

एक काफी वरिष्ठ भाजपा नेता का कहना है, ‘आखिर एक निजी कंपनी को मदद पहुंचाने के लिए एक सार्वजनिक उपक्रम के साथ सरकार को सौतेला व्यवहार क्यों करना चाहिए, वह भी एक ऐसी कंपनी के लिए जिसके पास रक्षा क्षेत्र में कोई पूर्व अनुभव या कोई पुराना ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है और जो इस मालदार करार का हिस्सा बनने से महज दो हफ्ते पहले ही अस्तित्व में आई थी?’

ऐसे में जबकि चुनाव सिर पर हैं और कांग्रेस ने राफेल सौदे को हमजोली भ्रष्टाचार का पर्याय बनाने के लिए कमर कस ली है, इतिहास एक तरह से खुद को दोहरा रहा है. यह बात अलग है इस सबके बीच मोदी सरकार ने बोफोर्स मामले में नए सिरे से एफआईआर दायर कर दिया है.

स्वाति चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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