युवाओं को पता है कि रोज़गार को लेकर उनके प्रधानमंत्री का नज़रिया क्या है?

भारतीय युवा परमानेंट रोज़गार की तैयारी में जवानी के पांच-पांच साल हवन कर रहे हैं. उनसे यह बात क्यों नहीं कही जा रही है कि रोज़गार का चेहरा बदल गया है. अब अस्थायी काम ही रोज़गार का नया चेहरा होगा.

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फोटो साभार: ट्विटर

भारतीय युवा परमानेंट रोज़गार की तैयारी में जवानी के पांच-पांच साल हवन कर रहे हैं. उनसे यह बात क्यों नहीं कही जा रही है कि रोज़गार का चेहरा बदल गया है. अब अस्थायी काम ही रोज़गार का नया चेहरा होगा.

New Delhi: Prime Minister Narendra Modi speaks in the Lok Sabha on 'no-confidence motion' during the Monsoon Session of Parliament, in New Delhi on Friday, July 20, 2018. (LSTV GRAB via PTI)(PTI7_20_2018_000270B)
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

‘फोर्थ इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन में पूंजी से ज्यादा महत्व प्रतिभा का होगा. हाई स्किल परंतु अस्थायी वर्क रोज़गार का नया चेहरा होगा. मैन्युफैक्चरिंग, इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन डिजाइन मे मौलिक बदलाव आएगे. डिजिटल प्लेटफॉर्म, ऑटोमेशन और डेटा फ्लोस (प्रवाह) से भौगोलिक दूरियों का महत्व कम हो जाएगा. ई कॉमर्स, डिजिटल प्लेटफॉर्म मार्केट प्लेसेस जब ऐसी टेक्नोलॉजी से जुड़ेंगे जब एक नए प्रकार के इंडस्ट्रियल और बिजनेस लीडर सामने आएंगे.’

यह भाषण प्रधानमंत्री मोदी का है जो उन्होंने ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में दिया है. यह भाषण आपको भाजपा की साइट और यू ट्यूब पर हर जगह मिल जाएगा. आप इसे सुनें तो पता चलेगा कि रोज़गार को लेकर प्रधानमंत्री क्या सोच रहे हैं?

क्या भारतीय युवाओं को पता है कि रोज़गार को लेकर उनके प्रधानमंत्री क्या राय रखते हैं? परमानेंट रोज़गार की तैयारी में जवानी के पांच-पांच साल हवन कर रहे हैं भारतीय युवाओं के बीच यह बात क्यों नहीं कही जा रही है कि रोज़गार का चेहरा बदल गया है. अब अस्थायी काम ही रोज़गार का नया चेहरा होगा.

प्रधानमंत्री को यही बात ब्रिक्स में नहीं, भारत में कहनी चाहिए. वैसे प्रधानमंत्री पकौड़ा वगैरह का उदाहरण देकर यही बात कह रहे हैं मगर उन्हें युवाओं के बीच आकर साफ-साफ कहना चाहिए कि ज़माना बदल गया है.

अस्थायी काम ही रोज़गार का चेहरा हो गया है. 2019 में जब वे रोज़गार देने का वादा करें तो साफ-साफ कहें कि अगले पांच में हम अस्थायी रोज़गार देंगे. रोज़गार का चेहरा बदल गया है इसलिए आप भी बदल जाओ. क्या युवा अपने प्रिय प्रधानमंत्री से ये बात सुनना चाहेंगे?

29 जुलाई के बिजनेस स्टैंडर्ड में अजय मोदी की एक ख़बर छपी है. देश के सबसे तेज़ी से बढ़ते हुए ऑटोमोबिल सेक्टर में स्थायी नौकरियां घटती जा रही हैं. इस सेक्टर की जितनी भी बड़ी कंपनियां हैं वे मांग के हिसाब से अस्थायी तौर पर लोगों को काम दे रही हैं.

अजय मोदी ने मारुति सुज़ुकी, हीरो मोटोकोर, अशोक लेलैंड और टीवीएस मोटर का विश्लेषण किया है. इन कंपनियों में 2017-18 में 24,350 अतिरिक्त स्टॉफ रखे हैं जिनमें से 4 प्रतिशत से भी कम नौकरी पक्की है. सब की सब नौकरियां ठेके की हैं. अस्थायी प्रकृति की हैं. 23,500 से अधिक नौकरियां ठेके की हैं. यह बदलाव जो आ रहा है.

प्रधानमंत्री ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देते हुए रोज़गार के कई आंकड़े दिए थे. आप उस भाषण को फिर से सुनिए. वैसे रोज़गार को लेकर शोध करने और लगातार लिखने वाले महेश व्यास ने 24 जुलाई के बिजनेस स्टैंडर्ड में उनके भाषण की आलोचना पेश की है.

प्रधानमंत्री आंकड़े दे रहे हैं कि सितंबर 2017 से मई 2018 के बीच भविष्य निधि कोष से 45 लाख लोग जुड़े हैं. इसी दौरान नेशनल पेंशन स्कीम में करीब साढ़े पांच लाख लोग जुड़े हैं. अब महेश व्यास कहते हैं कि यह संख्या होती है पचास लाख मगर प्रधानमंत्री आसानी से 70 लाख कर देते हैं. राउंड फिगर के चक्कर में बीस लाख बढ़ा देते हैं.

फिर प्रधानमंत्री कहते हैं कि चार्टर्ड अकाउंटेंट, डॉक्टर और वकीलों को भी काम मिला है यह संख्या करीब 6 लाख होती है. 17000 चार्टर्ड अकाउंटेंट सिस्टम में जुड़े हैं. इनमें से 5000 ने अपना कारोबार शुरू किया है.

अगर सबने 20 लोगों को भी काम दिया होगा तो उन्होंने एक लाख रोज़गार दिए होंगे. (नए सीए फर्म में क्या वाकई में 20 लोग होते होंगे?) हर साल 80,000 डॉक्टर, डेंटल सर्जन, आयुष डॉक्टर पढ़कर निकलते हैं. इनमें से 60 प्रतिशत अपनी प्रैक्टिस करते हैं. 5 लोगों को कम से कम रोज़गार देते ही हैं. यह संख्या 2 लाख 40,000 हो जाती है. यह सब प्रधानमंत्री बता रहे हैं लोकसभा में.

प्रधानमंत्री कहते हैं कि उसी तरह 80,000 वकील निकलते हैं जो दो लोगों को तो काम देते ही हैं, इस तरह रोज़गार में 2 लाख नौकरियां जुड़ जाती हैं. अब आप बताइये क्या यह मज़ाक नहीं है. जो कॉलेज से पढ़कर वकील निकलता है वो अपने लिए काम ढूंढता रहता है या बाहर आकर दो लोगों को नौकरियां दे देता है.

प्रधानमंत्री कम से कम अरुण जेटली से ही पूछ लेते. नया वकील तो कई महीनों तक मुफ्त में काम करता है, काम सीखने के लिए. कब खुद के लिए कमाना शुरू करता है वही नहीं जानता. इस तरह से कोई रोज़गार के आंकड़े जोड़ेगा और वो भी प्रधानमंत्री तो फिर कैसे बात होगी.

आप अविश्वास प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के भाषण निकाल कर सुनिए. वे कहे जा रहे हैं कि परिवहन सेक्टर में 20 लाख ड्राईवर और क्लीनर जुड़े हैं. नई कॉर्मशियल गाड़ियां जब सड़क पर आती हैं तब 10 लाख लोगों को रोज़गार देती हैं.

ढाई लाख नई कारें सड़क पर आती हैं इनमें से पांच लाख ड्राइवर रखे जाते हैं. ऑटो रिक्शा भी करीब साढ़े तीन लाख लोगों को रोज़गार देता है. प्रधानमंत्री ने ई रिक्शा और साइकिल रिक्शा और रेहड़ी पटरी को क्यों नहीं जोड़ा, समझ नहीं पा रहा हूं.

वैसे उन्होंने कुल संख्या भी दी और कहा कि 90 लाख 19 हज़ार (9.19 मिलियन) लोगों को काम मिला है. प्रधानमंत्री ने इस संख्या को भी गोल-गोल करके 1 करोड़ कर दिया.

आप कहेंगे कि क्यों मीन-मेख निकाल रहा हूं? प्रधानमंत्री मोदी कोई साधारण मंत्री नहीं हैं. वे देश के सामने रोज़गार के आंकड़े रखते हैं तो देखना चाहिए कि उन आंकड़ों का आधार क्या है.

किस डेटा से वे जान गए कि नई कारों ने पांच लाख लोगों को काम दिया है. ड्राइवर के तौर पर रखे गए हैं. किस डेटा से उन्हें ये जानकारी मिली है कि वकीलों ने 2 लाख लोगों को काम दिया है, जो ख़ुद काम खोज रहे होते हैं.

महेश व्यास कहते हैं कि विवाद इस पर नहीं है कि रोज़गार का सृजन हुआ है या नहीं. रोज़गार का सृजन हुआ है. हमेशा की नौकरियां पैदा होती रहती हैं. बहस इस बात को लेकर है कि क्या इन नौकरियों की संख्या इतनी पर्याप्त है जो बेरोज़गारी को संभाल सके?

ईपीएस में जो नए नाम जुड़ रहे हैं वो ज़रूरी नहीं है कि नई नौकरियों के नाम हैं. महेश व्यास के तर्क को समझिए. प्रधानमंत्री कहते हैं कि चार्टर्ड अकाउंटेंट ने एक लाख नौकरियां दी हैं. तो क्या ये एक लाख भविष्य निधि वाले डेटा में शामिल नहीं होंगे?

कहीं ऐसा तो नहीं कि सबको पहले भविष्य निधि वाले खाते से जोड़ लो और फिर उन्हें अलग-अलग जोड़ लो और टोटल करके एक करोड़ बता दो. कमाल का गणित है.

महेश व्यास ने तर्क दिया है कि बड़ी संख्या में कॉर्मशियल गाड़ियों के ख़रीददार राज्य परिवहन विभाग होते हैं. बड़ी प्राइवेट कंपनियां ख़रीदती हैं. खनन और लॉजिस्टिक कंपनियां खरीदती हैं. चूंकि ये बड़ी कंपनियां होती हैं इसलिए अपने कर्मचारियों का भविष्य निधि खाता खोलती हैं.

अगर ऐसा हुआ है तो ये संख्या कर्मचारी भविष्य निधि के डेटा में दिखेगी. फिर इन्हें अलग से जोड़ने का मतलब क्या हुआ.

मान लीजिए एक हाथ में 90 रुपया है. एक हाथ में 10 रुपया है. आपने एक बार 90 और 10 को एक साथ पकड़ा और कहा कि सौ रुपया हो गया. फिर यह दूसरे हाथ के 10 रुपये को एक और बार जोड़ कर 110 रुपये बता दिया. या तो आप एक ही बार जोड़ेंगे या एक ही बार घटाएंगे.

महेश व्यास के और भी तर्क हैं, मैं यहां नहीं लिखूंगा, मोदी भक्त आहत हो जाएंगे. उन्हें समझ नहीं आएगा कि मैं ये क्यों कर रहा हूं.

‘एक अहम सवाल रोज़गार के प्रकार और अवसर का होगा, जहां तक हम देख सकते हैं ट्रेडिशनल मैन्युफैक्चरिंग हमारे युवाओं के लिए रोज़गार का एक प्रमुख ज़रिया बनी रहेगी. दूसरी ओर हमारे वर्कर के लिए अति आवश्यक होगा कि वे अपने स्किल में बदलाव ला सके. इसलिए शिक्षा और कौशल समाज के लिए हमारा और हमारे नज़रिया और नीतियों में तेजी से बदलाव लाना होगा. स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम को इस तरह से बनाना होगा जिससे यह हमारे युवाओं को भविष्य के लिए तैयार कर सके. टेक्नोलॉजी में आने वाले तेज बदलाव उसी गति से स्थान पा सकें.’

यह भी प्रधानमंत्री के ही भाषण का हिस्सा है जो उन्होंने ब्रिक्स देशों के नेताओं के बीच दिया था. भारत ने स्किल डेवलपमेंट शब्द ही सीखा है जर्मनी और चीन से. शायद किसी और देश से. जर्मनी का स्किल डेवलपमेंट कोर्स आप देखेंगे तो हैरान रह जाएंगे. जर्मनी ब्रिक्स का हिस्सा नहीं है मगर मैं उदाहरण दे रहा हूं. चीन का स्किल डेवलपमेंट भारत से कहीं आगे हैं.

अब आप ईमानदारी से दो सवाल का जवाब दीजिए. क्या भारत का कौशल विकास कार्यक्रम उच्च दक्षता यानी हाई स्किल का प्रशिक्षण देता है? आप किसी भी कौशल विकास केंद्र में जाकर देख लीजिए. इसका जवाब आप दीजिए. वर्ना मेरे सवालों को आप सहन नहीं कर पाएंगे.

कौशल विकास केंद्र वाले रोज़ मेरे पास आते हैं कि किस तरह से कुछ के साथ भेदभाव हो रहा है. उन्होंने मोदी पर भरोसा कर लाखों का लोन लेकर कौशल विकास केंद्र खोला है मगर वे खाली हैं. ज़्यादा कहेंगे तो तस्वीर सहित दिखा दूंगा. वे कैसे बर्बाद हुए हैं, वो भी दिखा दूंगा. फिर प्रधानमंत्री ने क्यों नहीं बताया कि स्किल इंडिया कार्यक्रम के तहत कितनों को प्रशिक्षण दिया गया और कितनों को रोज़गार मिला. क्या अविश्वास प्रस्ताव के समय याद नहीं रहा?

बेहतर है रोज़गार पर बहस हो, ठीक से बात हो. विपक्ष में दम नहीं है तो क्या हुआ. युवाओं की ज़िंदगी का सवाल तो है. क्या उनकी ज़िंदगी से इसलिए खेला जाएगा कि विपक्ष यह सवाल उठाने के लायक नहीं है? क्या युवा अपनी ज़िंदगी से खेलना चाहते हैं?

(यह लेख मूलतः रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है.) 

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