राफेल विमान सौदा: ये है पूरी कहानी जिस पर मचा है घमासान

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा के साथ प्रशांत भूषण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान खरीदने से जुड़े सौदे के संबंध में कई सवाल उठाए हैं.

New Delhi: Lawyer Prashant Bhushan with former union ministers Arun Shourie and Yashwant Sinha during a press conference, in New Delhi on Aug 8, 2018. (PTI Photo/Atul Yadav) (PTI8_8_2018_000184B)
New Delhi: Lawyer Prashant Bhushan with former union ministers Arun Shourie and Yashwant Sinha during a press conference, in New Delhi on Aug 8, 2018. (PTI Photo/Atul Yadav) (PTI8_8_2018_000184B)

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा के साथ प्रशांत भूषण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान खरीदने से जुड़े सौदे के संबंध में कई सवाल उठाए हैं.

राफेल विमान (फोटो: रायटर्स)
राफेल विमान (फोटो: रायटर्स)

सबसे पहले दो तीन तारीखों को लेकर स्पष्ट हो जाइए. 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद राफेल डील का ऐलान करते हैं.

इसके 16 दिन पहले यानी 25 मार्च 2015 को राफेल विमान बनाने वाली कंपनी डास्सो एविएशन के सीईओ मीडिया से बात करते हुए हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के चेयरमैन का ज़िक्र करते हैं. कहते हैं कि ‘एचएएल चेयरमैन को सुनने के बाद, आप मेरे संतोष की कल्पना कर सकते हैं… हम ज़िम्मेदारियों को साझा करने पर सहमत हैं. हम रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (आरएफपी) की तय की गई प्रक्रिया को लेकर प्रतिबद्द हैं. मुझे पूरा भरोसा है कि कॉन्ट्रैक्ट को पूरा करने और और उस पर हस्ताक्षर करने का काम जल्दी हो जाएगा.’

आपने ठीक से पढ़ा न. बातचीत की सारी प्रक्रिया यूपीए के समय जारी रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल (आरएफपी) के हिसाब से चल रही है. यानी नया कुछ नहीं हुआ है. यह वो समय है जब प्रधानमंत्री की यात्रा को लेकर तैयारियां चल रही हैं. माहौल बनाया जा रहा है.

16 दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस के लिए रवाना होते हैं. यानी अब तक इस डील की प्रक्रिया में हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड कंपनी शामिल है, तभी तो राफेल कंपनी के चेयरमैन उनका नाम लेते हैं. हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स सार्वजनिक क्षेत्र की यानी सरकारी कंपनी है. इसका इस क्षेत्र में कई दशकों का अनुभव है.

यात्रा के दिन करीब आते जा रहे हैं. दो दिन पहले 8 अप्रैल 2015 को तब के विदेश सचिव एस जयशंकर प्रेस से बात करते हुए कहते हैं कि ‘राफेल को लेकर मेरी समझ यह है कि फ्रेंच कंपनी, हमारा रक्षा मंत्रालय और हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड के बीच चर्चा चल रही है. ये सभी टेक्निकल और डिटेल चर्चा है. नेतृत्व के स्तर पर जो यात्रा होती है उसमें हम रक्षा सौदों को शामिल नहीं करते हैं. वो अलग ही ट्रैक पर चल रहा होता है.’

अभी तक आपने देखा कि 25 मार्च से लेकर 8 अप्रैल 2015 तक विदेश सचिव और राफेल बनाने वाली कंपनी डास्सो एविएशन के सीईओ हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड का नाम ले रहे हैं यानी पता चल रहा है कि यह कंपनी इस डील का पार्ट है. डील का काम इसे ही मिलना है.

अब यहां पर एक और तथ्य है जिस पर अपनी नज़र बनाए रखिए. मार्च 2014 में हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड और डास्सो एविएशन के बीच एक करार हो चुका होता है कि 108 लड़ाकू विमान भारत में ही बनाए जाएंगे इसलिए उसे लाइसेंस और टेक्नोलॉजी मिलेगी. 70 फीसदी काम हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड का होगा, बाकी 30 फीसदी डास्सो करेगी.

10 अप्रैल को जब प्रधानमंत्री मोदी डील का ऐलान करते हैं तब इस सरकारी कंपनी का नाम कट जाता है. वो पूरी प्रक्रिया से ग़ायब हो जाती है और एक नई कंपनी वजूद में आ जाती है, जिसके अनुभव पर सवाल है, जिसके कुछ ही दिन पहले बनाये जाने की बात उठी है, उसे काम मिल जाता है.

प्रशांत भूषण, यशंवत सिन्हा और अरुण शौरी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह आरोप लगाए हैं. उन्हीं की प्रेस रिलीज़ से मैंने ये घटनाओं का सिलसिला आपके लिए अपने हिसाब से पेश किया है. अब इस जगह आप ठहर जाइये. चलिए चलते हैं वहां जहां राफेल विमान की बात शुरू होती है.

2007 में भारतीय वायुसेना ने सरकार को अपनी ज़रूरत बताई थी और उस आधार पर यूपीए सरकार ने आरएफपी तैयार किया था कि वह 167 मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट (एमएमआरसी) एयरक्राफ्ट खरीदेगा. इसके लिए जो टेंडर जारी होगा उसमें यह सब भी होगा कि शुरुआती ख़रीद की लागत क्या होगी, विमान कंपनी भारत को टेक्नोलॉजी देगी और भारत में उत्पादन के लाइसेंस देगी.

टेंडर जारी होता है और लड़ाकू विमान बनाने वाली 6 कंपनियां उसमें हिस्सा लेती हैं. सभी विमानों के परीक्षण और कंपनियों से बातचीत के बाद भारत की वायुसेना 2011 में अपनी पंसद बताती है कि दो कंपनियों के विमान उसकी ज़रूरत के नज़दीक हैं. एक डास्सो एविएशन का राफेल और दूसरा यूरोफाइटर्स का विमान. 2012 के टेंडर में डास्सो ने सबसे कम रेट दिया था. इसके आधार पर भारत सरकार और डास्सो कंपनी के बीच बातचीत शुरू होती है.

अब सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी ने जो डील की है वो पहले से चली आ रही प्रक्रिया और उसकी शर्तों के मुताबिक थी या फिर उसमें बदलाव किया गया? क्यों बदलाव हुआ? क्या भारतीय वायुसेना ने कोई नया प्रस्ताव दिया था, क्या डास्सो कंपनी ने नए दरों यानी कम दरों पर सप्लाई का कोई नया प्रस्ताव दिया था?

क्योंकि 10 अप्रैल 2015 के साझा बयान में जिस डील का ज़िक्र है वो 2012 से 8 अप्रैल 2015 तक चली आ रही प्रक्रिया और शर्तों से बिल्कुल अलग थी. 8 अप्रैल की बात इसलिए कही क्योंकि इसी दिन विदेश सचिव एस जयशंकर कह रहे हैं कि बातचीत पुरानी प्रक्रिया का हिस्सा है और उसमें हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड शामिल है. जबकि यह कंपनी दो दिन बाद इस डील से बाहर हो जाती है.

एचएएल को डील से बाहर करने का फैसला कब हुआ, किस स्तर पर हुआ, कौन कौन शामिल था, क्या वायुसेना की कोई राय ली गई थी?

अब यहां पर प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा आरोप लगाते हैं कि 60 साल की अनुभवी कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स (एचएएल) को सौदे से बाहर कर दिया जाता है और एक ऐसी कंपनी अचानक इस सौदे में प्रवेश करती है जिसका कहीं ज़िक्र नहीं था.

होता तो विदेश सचिव एस जयशंकर एचएएल की जगह रिलायंस डिफेंस लिमिटेड का नाम लेते. 25 मार्च को डास्सो एविएशन के सीईओ, एचएएल की जगह रिलायंस डिफेंस का नाम लेते.

New Delhi: Lawyer Prashant Bhushan with former union ministers Arun Shourie and Yashwant Sinha during a press conference, in New Delhi on Aug 8, 2018. (PTI Photo/Atul Yadav) (PTI8_8_2018_000184B)
नई दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा के साथ वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण. (फोटो: पीटीआई)

प्रशांत भूषण का कहना है कि रिलायंस डिफेंस पर भारतीय बैंकों का 8,000 करोड़ का कर्ज़ा बाकी है. कंपनी घाटे में चल रही है. अनुभव भी नहीं है क्योंकि इनकी कंपनी भारतीय नौ सेना को एक जहाज़ बनाकर देने का वादा पूरा नहीं कर पाई. फिर अनिल अंबानी की इस कंपनी पर ये मेहरबानी क्यों की गई? फ्री में?

अनिल अंबानी की कंपनी ने इस सवाल पर एक जवाब दिया है. उसे यहां बीच में ला रहा हूं. ‘हमें अपने तथ्य सही कर लेने चाहिए. इस कॉन्ट्रैक्ट के तहत कोई लड़ाकू विमान नहीं बनाए जाने हैं क्योंकि सभी विमान फ्रांस से फ्लाई अवे कंडीशन में आने हैं.

भारत में एचएएल को छोड़ किसी भी कंपनी को लड़ाकू विमान बनाने का अनुभव नहीं है. अगर इस तर्क के हिसाब से चलें तो इसका मतलब होगा कि हम जो अभी हैं. उसके अलावा कभी कोई नई क्षमता नहीं बना पाएंगे. और रक्षा से जुड़े 70 प्रतिशत हार्डवेयर को आयात करते रहेंगे.’

ओह तो भारत सरकार ने एक नई कंपनी को प्रमोट करने के लिए अनुभवी कंपनी को सौदे से बाहर कर दिया? ‘रक्षा से जुड़े 70 फीसदी हार्डवेयर का आयात ही करते रहेंगे.’ अनिल अंबानी को बताना चाहिए कि वो कौन-कौन से हार्डवेयर बना रहे हैं जिसके कारण भारत को आयान नहीं करना पड़ेगा. क्या उन्हें नहीं पता कि इस डील के तहत ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी नहीं हुई है.

यानी डास्सो ने अपनी तकनीक भारतीय कंपनी से साझा करने का कोई वादा नहीं किया है. इस पर भी प्रशांत भूषण ने सवाल उठाए हैं कि यूपीए के समय ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी देने की बात हुई थी, वो बात क्यों ग़ायब हो गई. बहरहाल अनिल अंबानी की कंपनी स्वीकार कर लेती है कि वह नई है. अनुभव नहीं है. आप फिर से ऊपर के पैराग्राफ जाकर पढ़ सकते हैं.

भारत सरकार की बातें निराली हैं. जब यह मामला राहुल गांधी ने उठाया तो रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि देश के सामने सब रख देंगे. मगर बाद में मुकर गईं. कहने लगीं कि फ्रांस से गुप्तता का क़रार हुआ है.

जबकि 13 अप्रैल 2015 को दूरदर्शन को इंटरव्यू देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर बता चुके थे कि 126 एयरक्राफ्ट की कीमत 90,000 करोड़ होगी. एक रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि 90,000 करोड़ की डील हैं और एक रक्षा मंत्री कह रही हैं कि कितने की डील है, हम नहीं बताएंगे.

यही नहीं दो मौके पर संसद में रक्षा राज्य मंत्री दाम के बारे में बता चुके थे तो फिर दाम बताने में क्या हर्ज है. आरोप है कि जब टेक्नोलॉजी नहीं दे रहा है तब फिर इस विमान का दाम प्रति विमान 1000 करोड़ ज़्यादा कैसे हो गया?

यूपीए के समय वही विमान 700 करोड़ में आ रहा था, अब आरोप है कि एक विमान के 1600-1700 करोड़ दिए जा रहे हैं. किसके फायदे के लिए?

अजय शुक्ला ने भी लिखा है कि डील के बाद प्रेस से एक अनौपचारिक ब्रीफिंग में सबको दाम बताए गए थे. उन लोगों ने रिपोर्ट भी की थी. इसी फेसबुक पेज पर मैंने अजय शुक्ला की रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद किया है.

इस साल फ्रांस के राष्ट्रपति मैंक्रां भारत आए थे. उन्होंने इंडिया टुडे चैनल से कहा था कि भारत सरकार चाहे तो विपक्ष को भरोसे में लेने के लिए कुछ बातें बता सकती हैं. उन्हें ऐतराज़ नहीं है. आप ख़ुद भी इंटरनेट पर इस इंटरव्यू को सर्च कर सकते हैं.

अब यहां पर आप फिर से 25 मार्च 2015, 8 अप्रैल 2015 और 10 अप्रैल 2015 की तारीखों को याद कीजिए. प्रशांत भूषण का आरोप है कि 28 मार्च 2015 को अदानी डिफेंस सिस्टम एंड टेक्नोलॉजी लिमिटेड और 28 मार्च को रिलायंस डिफेंस लिमिटेड कंपनी को इस प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है.

जो खेल 28 मार्च को हो गया था उसके बारे में भारत के विदेश सचिव को पता ही नहीं है. वो तो एचएएल का नाम ले रहे थे. यानी उन्हें कुछ पता नहीं था कि क्या होने जा रहा है.

प्रशांत भूषण इस स्तर पर एक नई बात कहते हैं. वे कहते हैं कि अगर किसी स्तर पर कोई नई कंपनी डील में शामिल होती है तो इसके लिए अलग से नियम बने हैं. 2005 में बने इस नियमावली को आॅफसेट नियमावली कहते हैं.

इस नियम के अनुसार उस कंपनी का मूल्यांकन होगा और रक्षा मंत्री साइन करेंगे. तो क्या रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने किसी फाइल पर साइन किया था, क्या उन्हें इस बारे में पता था? साथ ही रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी में क्या इस पर चर्चा हुई थी?

एक प्रश्न और उठाया है. 4 जुलाई 2014 को यूरोफाइटर्स रक्षा मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखती है कि वह अपनी लागत में 20 प्रतिशत की कटौती के लिए तैयार है.

याद कीजिए कि 2011 में भारतीय वायुसेना ने दो कंपनियों को अपने हिसाब का बताया था. एक डास्सो और दूसरी यूरोफाइटर्स. प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा का आरोप है कि जब यह कंपनी सस्ते में विमान दे रही थी तब नया टेंडर क्यों नहीं निकाला गया?

यूपीए के समय 18 विमान उड़ान के लिए तैयार अवस्था में देने की बात हो रही थी, अब 36 विमानों की बात होने लगी. क्या इसके लिए भारतीय वायुसेना अपनी तरफ से कुछ कहा था कि हमें 18 नहीं 36 चाहिए? और अगर इसे तुरंत हासिल किया जाना था तो आज उस डील के तीन साल से अधिक हो गए, एक भी राफेल विमान क्यों नहीं भारत पहुंचा है?

रिलायंस डिफेंस का कहना है कि उस पर ग़लत आरोप लगाए जा रहे हैं कि इस सौदे से 30,000 करोड़ का ठेका मिला है. कंपनी का कहना है कि रिलायंस डिफेंस या रिलायंस ग्रुप की किसी और कंपनी ने अभी तक 36 राफेल विमानों से जुड़ा कोई कॉन्ट्रैक्ट रक्षा मंत्रालय से हासिल नहीं किया है. ये बातें पूरी तरह निराधार हैं.

जवाब में इस बात पर ग़ौर करें, ‘कोई कॉन्ट्रैक्ट रक्षा मंत्रालय से हासिल नहीं किया गया है.’

लेकिन अपने प्रेस रिलीज में रिलायंस डिफेंस कंपनी एक और आरोप के जवाब में कहती है कि ‘विदेशी वेंडरस के भारतीय पार्टनर्स के चयन में रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है. 2005 से अभी तक 50 ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट साइन हो चुके हैं, सब में एक ही प्रक्रिया अपनाई गई है. रिलायंस डिफेंस ने इसके जवाब में कहा है कि इस सवाल का जवाब रक्षा मंत्रालय ही सबसे सही दे सकता है.’

प्रशांत भूषण कहते हैं कि आॅफसेट कंपनी के लिए अलग से रूल है. आप समझ गए होंगे कि यहां रिलायंस डिफेंस कंपनी इसी आॅफसेट कंपनी के दायरे में आती है.

प्रशांत कह रहे हैं कि ऐसी कंपनी के मामले में रक्षा मंत्री साइन करेंगे. अनिल अंबानी की कंपनी कहती है कि रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होती है कि विदेशी वेंडर्स (विमान कंपनी) किस भारतीय कंपनी को अपना साझीदार चुनेगा?

New Delhi: Prime Minister Narendra Modi addresses during a function on the occasion of 125th anniversary of Vivekananda's Chicago Address and birth centenary of Deendayal Upadhyay in New Delhi on Monday. PTI Photo by Shahbaz Khan (PTI9_11_2017_000061A)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

क्या वाकई रक्षा मंत्रालय की इसमें कोई भूमिका नहीं है? मगर प्रशांत भूषण ने तो आॅफसेट नियमावली का पूरा आदेश पत्र दिया है. अनिल अंबानी को कैसे पता कि अभी तक 50 आॅफसेट कॉन्ट्रैक्ट साइन हो चुके हैं और सबमें एक ही प्रक्रिया अपनाई गई है? क्या रक्षा मंत्रालय के हिस्से का जवाब रक्षा मंत्रालय को नहीं देना चाहिए?

अब रिलायंस डिफेंस रक्षा मंत्रालय के बारे में एक और बात कहती है. ‘ये समझना बेहतर होगा कि डीपीपी-2016 के मुताबिक विदेशी वेंडर को इस चुनाव की सुविधा है कि वो ऑफ़सेट क्रेडिट्स के दावे के समय अपने ऑफसेट पार्टनर्स का ब्योरा दे सके. इस मामले में ऑफसेट obligations सितंबर 2019 के बाद ही ड्यू होंगी. इसलिए ये संभव है कि रक्षा मंत्रालय को डास्सो से उसके ऑफ़सेट पार्टनर्स के बारे में कोई औपचारिक जानकारी न मिली हो.

कमाल है. अनिल अंबानी को यह भी पता है कि रक्षा मंत्रालय में 50 आॅफसेट डील एक ही तरह से हुए हैं. यह भी पता है कि उनके डील के बारे में रक्षा मंत्रालय को पता ही न हो. वाह मोदी जी वाह ( ये अनायास निकल गया. माफी)

एचएएल के बाहर किए जाने पर रिलायंस डिफेंस की प्रेस रिलीज में जवाब है कि एचएएल 126 एमएमआरसीए प्रोग्राम के तहत नामांकित प्रोडक्शन एजेंसी थी जो कभी कॉन्ट्रैक्ट की स्टेज तक नहीं पहुंची.

लेकिन आपने शुरू में क्या पढ़ा, यही न कि 25 मार्च 2015 को डास्सो एविशन कंपनी के सीईओ, एचएएल के चेयरमैन का शुक्रिया अदा कर रहे हैं और 8 अप्रैल 2015 को विदेश सचिव एचएएल के प्रक्रिया में बने रहने की बात कहते हैं. अगर यह कंपनी कॉन्ट्रैक्ट की स्टेज तक नहीं पहुंची तो डील के दो दिन पहले तक इसका नाम क्यों लिया जा रहा है.

सवाल तो यही है कि रिलायंस डिफेंस कैसे कॉन्ट्रैक्ट के स्टेज पर पहुंची, कब पहुंची, क्या उसने इसका जवाब दिया है, मुझे तो नहीं मिला मगर फिर भी एक बार और उनके प्रेस रिलीज़ को पढूंगा.

यह कैसी डील है कि अप्रैल 2015 से अगस्त 2018 आ गया अभी तक रक्षा मंत्रालय को जानकारी ही नहीं है, डास्सो एविएशन ने जानकारी ही नहीं दी है, और रिलायंस को सब पता है कि रक्षा मंत्रालय को क्या जानकारी है और क्या जानकारी नहीं है. वाह मोदी जी वाह (सॉरी, फिर से निकल गया.)

आपने एक बात पर ग़ौर किया. सरकार कहती है कि इस डील से संबंधित कोई बात नहीं बता सकते. देश की सुरक्षा का सवाल है और गुप्तता का करार है. लेकिन यहां तो रिलायंस डिफेंस कंपनी चार पन्ने का प्रेस रिलीज़ दे रही है.

तो क्या गुप्पतता का करार डील में हिस्सेदार कंपनी पर लागू नहीं है? सिर्फ मोदी जी की सरकार पर लागू है? वाह मोदी जी वाह( कान पकड़ता हूं, अब नहीं बोलूंगा, अनायास ही निकल गया)

अब तो रक्षा मंत्रालय को जवाब देना बनता है. रक्षा मंत्री नहीं बोल सकती तो कोई और मंत्री बोल दें. कोई ब्लॉग लिख दे, कोई ट्वीट कर दे. इस सरकार की यही तो खूबी है. कृषि पर फैसला होता है तो गृहमंत्री बोलते हैं और रक्षा मंत्रालय के बारे में कानून मंत्री बोलते हैं.

रिलायंस डिफेंस कहती है कि उसे 30,000 करोड़ का ठेका नहीं मिला है. डास्सो एविएशन किस ऑफसेट पार्टनर को कितना काम देगी, यह अभी तय नहीं हुआ है.

डास्सो एविएशन ने इसके लिए 100 से अधिक भारतीय कंपनियों को इशारा किया है. इसमें से दो सरकारी कंपनियां हैं एचएएल और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड. क्या डास्सो एविएशन ने आंख मारकर इशारा किया है या सीटी बजाई है.

100 कंपनियां पार्टनर बनने वाली हैं फिर भी रक्षा मंत्रालय को आॅफसेट पार्टनर के बारे में पता नहीं होगा? रिलायंस को पता है मगर रक्षा मंत्रालय को नहीं. दो सरकारी कंपनियां हैं, उनके बारे में सरकार को तो पता होगा.

आप सभी पाठकों से निवेदन हैं कि मैंने हिंदी की सेवा के लिए इतनी मेहनत की है. हिंदी के अख़बारों में ये सब होता नहीं है. आप इसे करोड़ों लोगों तक पहुंचा दें.

अगर यशंवत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी के प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद सरकार जवाब देगी तो उसे भी विस्तार से पेश करूंगा. इनकी प्रेस रिलीज़ बहुत लंबी है, अंग्रेज़ी में है इसलिए सारी बातें यहां पेश नहीं की हैं और न ही रिलायंस डिफेंस के जवाब की सारी बातें. आप दोनों ही इंटरनेट पर सर्च कर सकतें हैं.

(यह लेख मूलतः रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है.)

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