अब मीडिया सरकार की नहीं बल्कि सरकार मीडिया की निगरानी करती है: पुण्य प्रसून बाजपेयी

विशेष: वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी बता रहे हैं कि न्यूज़ चैनलों पर नकेल कसने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के भीतर बनाई गई 200 लोगों की ‘गुप्त फ़ौज’ क्या और कैसे काम करती है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह. (फाइल फोटो: पीटीआई)

विशेष: वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी बता रहे हैं कि न्यूज़ चैनलों पर नकेल कसने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के भीतर बनाई गई 200 लोगों की ‘गुप्त फ़ौज’ क्या और कैसे काम करती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)

दिल्ली में सीबीआई हेडक्वार्टर के ठीक बगल में है सूचना भवन. सूचना भवन की 10वीं मंज़िल ही देश भर के न्यूज़ चैनलों पर सरकारी निगरानी का ग्राउंड ज़ीरो है. हर दिन 24 घंटे तमाम न्यूज़ चैनलों पर निगरानी रखने के लिए 200 लोगों की टीम लगी रहती है.

बीते चार बरस में यह पहला मौका आया है कि मॉनिटरिंग करने वालों के मोबाइल अब बाहर ही रखवा लिए जा रहे हैं. पहली बार एडीजी ने मीटिंग लेकर मॉनिटरिंग करने वालों को ही चेताया कि अब कोई सूचना बाहर जानी नहीं चाहिए जैसे ‘मास्टरस्ट्रोक’ की मॉनिटरिंग की जानकारी बाहर चली गई.

ऐसे में बरसों-बरस से काम करने के बावजूद छह-छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे मॉनिटरिंग से जुड़े ऐसे 10 से 15 लोगों को हटाने की तैयारी हो चली है, जो मॉनिटरिंग करते हुए स्थायी सेवा और अधिक वेतनमान की मांग कर रहे थे.

वैसे मॉनिटरिंग करने वालों को साफ़ निर्देश है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को कौन सा न्यूज़ चैनल कितना दिखाता है, उसकी पूरी रिपोर्ट हर दिन तैयार हो. कुछ लालच अपनी छवि को लेकर सूचना एवं प्रसारण मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को लेकर भी है तो वह भी अपनी रिपोर्ट तैयार कराते हैं कि कौन सा चैनल उन्हें कितनी जगह देता है.

यानी न्यूज़ चैनल क्या दिखा रहे हैं… क्या बता रहे हैं… और किस दिन किस विषय पर चर्चा कराते हैं… उस चर्चा में कौन शामिल होता है… कौन क्या कहता है… किसके बोल सत्तानुकूल होते हैं… किसके सत्ता विरोध में… इन सब पर नज़र है.

पर कन्टेंट को लेकर सबसे पैनी नज़र प्राइम टाइम के बुलेटिन पर और ख़ासकर न्यूज़ चैनल का रुख़ क्या है… कैसी रिपोर्ट दिखाई-बताई जा रही है… रिपोर्ट अगर सरकारी नीतियों को लेकर है तो अलग से रिपोर्ट में ज़िक्र होगा और धीरे-धीरे रिपोर्ट दर रिपोर्ट तैयार होती जाती है. फाइल मोटी होती है.

उसके बाद मॉनिटरिंग करने वालों की निगाहों में वह चेहरे भर दिए जाते हैं जिन कार्यक्रम पर ख़ास नज़र रखनी है. यानी रिपोर्ट दर रिपोर्ट का आकलन कुछ इस तरह होता है जिसमें सत्तानुकूल होने की ग्रेडिंग की जाती है और जो सबसे ज़्यादा सरकार का राग गाता है उन्हें आश्वस्त वाली कैटेगरी में डाला जाता है.

जो चैनल बीच की श्रेणी में आते हैं यानी प्रधानमंत्री का चेहरा कम दिखाते हैं, उन्हें मॉनिटरिंग टीम में से कोई फोन कर देता है और दोस्ती भरे अंदाज़ में चेताता है कि आपको और दिखाना चाहिए.

संवाद कैसे होता है ये भी कम दिलचस्प नहीं है. बीते हफ़्ते ही नोएडा से चलने वाले यूपी केंद्रित एक चैनल के संपादक के पास फोन आया. पुराना परिचय देते हुए मीडिया पर बात हुई. उसके बाद दोस्ती भरे अंदाज़ में चेताया गया…

आपका चैनल कम दिखाता है…

किसे कम दिखाता है…

अरे! अपने प्रधानमंत्री जी को.

अरे नहीं! हम तो ख़ूब दिखाते हैं.

वह आपके अनुसार ‘ख़ूब’ होता होगा हम तो मॉनिटरिंग करते हैं न. रिपोर्ट देख रहे थे आपके चैनल का नंबर कहीं बीच में है.

अब आप कह रहे हैं तो और दिखाएंगे.

अरे जैसा आप ठीक समझें…

तो ये सुझाव है या चेतावनी? सोचिए, कैसे चैनलों के बीच होड़ लगती होगी कि कौन ज़्यादा से ज़्यादा प्रधानमंत्री मोदी को दिखाता होगा. और कितनों को फोन दोस्ती में चेताने के लिए किया जाता होगा.

हालांकि इसके आगे मॉनिटरिंग की पहल दोस्ती नहीं देखती. सुझाव के तौर पर उभरती है और इस बार फोन सूचना भवन से बाहर निकल कर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय या बीजेपी दफ्तर तक पहुंचता है, जिसमें किसी ख़ास ख़बर या किसी ख़ास मौके पर चैनल को लाइव काटने (दिखाना) से लेकर चर्चा का विषय तक बताने के लिए होता है.

और चैनल ने अगर दिखाया नहीं या चर्चा न की जो सुझाव भरे अंदाज़ में चेतावनी भी होती है. जैसे, ‘अरे आप समझ नहीं रहे हैं… ये कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है. आप संपादक हैं आप ही निर्णय लें, देश के लिए क्या ज़रूरी है ये तो समझें. आप देशहित को ध्यान में नहीं रखते. देखिये, वक़्त बदल रहा है, अब पुरानी समझ का कोई मतलब नहीं… आप तो समझते हैं… हमारा ध्यान दीजिए, नहीं तो हम आपके कार्यक्रम में आ नहीं पाएंगे.’

ये महत्वपूर्ण है कि इसके आगे के तरीके चैनलों के मालिकों तक पहुंचते हैं. सामान्य तौर पर तो अब मालिक ही ख़ुद को संपादक मानने लगे हैं तो प्रोफेशनल संपादक की हैसियत भी मालिक/संपादक के सामने अक्सर ट्रेनी वाली हो जाती है.

पद-पैसा-मान्यता को बरक़रार रखने के लिए प्रोफेशनल संपादक भी अक्सर बदल जाता है. इन हालातों के बीच जब मॉनिटरिंग करने वालों की तैयार रिपोर्ट की फाइल किसी मालिक/संपादक के पास पहुंचती है तो दो प्रतिक्रियाएं साफ़ दिखाई देती हैं.

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पहली, हमारा चैनल इतना शानदार है जो सरकार को नोटिस लेना पड़ा. दूसरा, इतनी मोटी फाइल में कुछ तो सच होगा. तो फिर संपादक की क्लास ली जाती है और चैनल नतमस्तक हो जाता है.

हालांकि पहली प्रतिक्रिया के भी दो चेहरे हैं. एक, मालिक/संपादक को लगता है कि फाइल के ज़रिये सौदेबाज़ी की जा सकती है और दूसरा, अगर चैनल पर दिखाए गए तथ्य सही हैं तो फिर सरकारी फाइल सिवाय डराने के और कुछ नहीं.

ऐसे में पत्रकारिता की साख़ पर सवाल न उठे, ये सोच भी जागती है पर इस दायरे में कितने आ पाते हैं ये भी सवाल है. ऐसे मालिक/संपादक हैं, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता.

ख़ैर मॉनिटरिंग के इन तरीकों पर ग़ौर करने से पहले ये समझ लें कि मॉनिटरिंग का चेहरा मोदी सरकार की ही देन है, ऐसा नहीं है. हालांकि मोदी सरकार के दौर में मॉनिटरिंग के मायने और मॉनिटरिंग के ज़रिये मीडिया पर नकेल कसने का अंदाज़ ही सबसे महत्वपूर्ण हो गया है.

इनकार इससे भी नहीं किया जा सकता कि मनमोहन सिंह के दौर में यानी 2008 में ही मॉनिटरिंग की व्यवस्था शुरू हुई थी पर तब मनमोहन के दौर में ‘भारत निर्माण’ योजना केंद्र में थी. यानी ग्रामीण इलाकों में भारत निर्माण को लेकर चैनलों की कवरेज पर ध्यान.

2009 में अंबिका सोनी सूचना एवं प्रसारण मंत्री हुईं तो मॉनिरटिंग के ज़रिये संवेदनशील मुद्दों पर नज़र रखी जाने लगी. पर न तो मनमोहन सिंह, न ही अंबिका सोनी की इसमें रुचि जगी कि मॉनिटरिंग के ज़रिये छवि निखारने की सोची जाए. हां, जानकारी होनी चाहिए ये ज़रूर था.

छवि को लेकर चिंता कांग्रेसी दौर में मनीष तिवारी में जगी, जब वह सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने. उनके तेवर निराले थे. पर 2014 में सत्ता बदलते ही मॉनिटरिंग करने-देखने का नज़रिया ही बदल गया.

पहले जहां 15 से 20 लोग काम करते थे, यह तादाद 200 तक पहुंच गई और बाकायदा सूचना भवन में शानदार तकनीक लगी. ब्रॉडकास्ट इंजीनिंयरिंग कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड के ज़रिये भर्तियां शुरू हुईं.

ग्रेजुएट लड़के-लड़कियों की भर्ती शुरू हुई. ग्रेजुएट होने के साथ महज़ एक बरस के डिप्लोमा कोर्स वाले बच्चों को 28,635 रुपये देकर छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया. कभी किसी को स्थायी नहीं किया गया.

मॉनिटरिंग पद से ऊपर सीनियर मॉनिटरिंग (37,450 रुपये) और कंटेंट एडिटर (49,500 रुपये) जिनकी कुल तादाद 50 हैं उन्हें भी स्थायी नहीं किया गया, भले ही उन्हें भी काम करते हुए चार बरस हो गए हों.

यानी मॉनिटरिंग इस बात को लेकर कभी नहीं हुई कि चैनल उन मुद्दों को उठाते हैं या नहीं जो जन अधिकार से जुड़े हों, जो संविधान से जुड़े हों. बीते चार बरस से मॉनिटरिंग सिर्फ़ इसी बात को लेकर हो रही है कि प्रधानमंत्री मोदी की छवि कैसे निखारते रहें.

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दिलचस्प तो ये भी है कि मॉनिटरिंग के निशाने पर सबसे पहले डीडी न्यूज़ ही आया, जिसने शुरुआत में ही प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा को सबसे कम कवरेज दिया. उसके बाद डीडी न्यूज़ में ही ख़ासा बदलाव हो गया.

यानी मॉनिटरिंग का मतलब छवि बनाने, नीतियों के प्रचार-प्रसार में प्राइवेट चैनलों को भी लगा देना. तरीके कई रहे और प्रधानमंत्री के साथ बीते छह महीनों में दूसरा नाम बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का जुड़ा है.

अब चैनल दर चैनल उनके कवरेज के पैमाने को भी मापा जा रहा है और नए-नवेले सूचना प्रसारण मंत्री इस कड़ी में अपनी कवरेज की रिपोर्ट भी मंगाने लगे हैं. पहली बार ‘मास्टरस्ट्रोक’ प्रकरण के बाद सूचना भवन के इमरजेंसी सरीखे हालात हो गए हैं.

लगातार पूछताछ, मीटिंग या निगरानी की जा रही है कि मॉनिटरिंग की कोई बात मॉनिटरिंग करने वाला बाहर न भेज दें, इस पर नज़र रखी जा रही है. अब मॉनिटरिंग करने वालों के मोबाइल तक बाहर दरवाज़े पर रखवा लिए जा रहे हैं.

मोबाइल नंबरों को भी खंगाला जा रहा है कि आख़िर कैसे मॉनिटरिंग करने वाले शख़्स ने ही ‘मास्टरस्ट्रोक’ पर तैयार हो रही रिपोर्ट को बाहर पहुंचा दिया. अब मीडिया पर नकेल कसने के लिए मॉनिटरिंग की अनोखी मशक्कत जारी है.

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