किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकती मोदी सरकार

उत्तर प्रदेश ही नहीं, दूसरे राज्य भी बैंकों को फ़सली क़र्ज़ माफ़ करने के लिए बॉन्ड (ऋण-पत्र) जारी कर सकते हैं. मगर ये बात सबको मालूम है कि इससे मामला हल नहीं होगा. केंद्र को इन बॉन्डों की गारंटी लेनी ही होगी.

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प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो: रॉयटर्स)

उत्तर प्रदेश ही नहीं, दूसरे राज्य भी बैंकों को फ़सली क़र्ज़ माफ़ करने के लिए बॉन्ड (ऋण-पत्र) जारी कर सकते हैं. मगर ये बात सबको मालूम है कि इससे मामला हल नहीं होगा. केंद्र को इन बॉन्डों की गारंटी लेनी ही होगी.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

इस बात पर किसी को कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में 36,000 करोड़ रुपये के छोटे फ़सली ऋण को माफ़ करने के फ़ैसले का असर कई राज्यों पर पड़ेगा. ऐसी राहत की मांग वैसे राज्यों से भी उठ सकती है, जहां एक के बाद एक पड़े सूखे के कारण किसान भीषण संकट का सामना कर रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपी चुनाव के दौरान किसानों को ख़ासतौर पर आश्वस्त करते हुए राहत देने का वादा किया था. लेकिन अब वे संकोच में मौन धारण पड़ते दिख रहे हैं. अरुण जेटली ने इस क़र्ज़ माफ़ी में केंद्र की भूमिका के सवाल पर ख़ुद को अलग करना शुरू कर दिया है.

जेटली यह जताना चाह रहे हैं कि यह क़र्ज़ माफ़ी उत्तर प्रदेश का मामला है और इससे केंद्र की राजकोषीय स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन वे पूरी तरह से ग़लत हैं. इस क़र्ज़ माफ़ी से उत्तर प्रदेश का ऋण-जीडीपी अनुपात तीन प्रतिशत अंक बढ़कर राज्य की जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत हो जाएगा.

ऐसी स्थिति लगातार सूखे का सामना कर रहे कई दूसरे राज्यों में भी बन सकती है. यूपी जैसी क़र्ज़ माफ़ी इन राज्यों के राजकोषीय घाटे को बेक़ाबू कर देगी. एक तरह से इसे टाला नहीं जा सकता. केंद्र द्वारा यह दिखाने की कोशिश व्यर्थ है कि इसका केंद्र और राज्यों के सम्मिलित राजकोषीय घाटे पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

हाल के दशकों में किसी एक राज्य द्वारा इतनी बड़ी क़र्ज़ माफ़ी की दूसरी मिसाल नहीं मिलती. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नेतृत्व में चली एक लंबी कैबिनेट बैठक के बाद राज्य के मंत्री और प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह ने मीडिया से कहा कि फ़सली ऋण माफ़ी का बोझ पूरी तरह से राज्य सरकार द्वारा उठाया जाएगा. इसके लिए राज्य किसानों की तरफ़ से ऋण अदायगी के तौर पर बैंकों को समतुल्य मूल्य का बॉन्ड (ऋण-पत्र) जारी करेगा.

बाद में जब एक टीवी एंकर ने यह सवाल पूछा कि क्या इतनी बड़ी क़र्ज़ माफ़ी राज्य की वित्तीय स्थिति को कमज़ोर करेगी, तो मंत्री जी का जवाब था, ‘राज्य पहले से ही दिवालिया स्थिति में था’, इसलिए इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा!

मंत्री महोदय को उस समय भी शब्द खोजने में दिक्कत हुई जब उनसे पूछा गया कि आख़िर क्यों छोटे और सीमांत किसानों के सभी क़र्ज़े को माफ़ करने के मोदी के वादे को पूरा नहीं किया जा रहा है. मंत्री महोदय के मुताबिक वर्तमान समय में प्रति किसान एक लाख तक का क़र्ज़ माफ़ किया जा रहा है.

यूपी में 2.15 करोड़ किसान हैं, जिनकी जोतों का आकार दो हेक्टेयर से कम है. इन छोटे किसानों द्वारा लिया गया कुल क़र्ज़ क़रीब 80,000 करोड़ के बराबर हो सकता है. वादा इस पूरी राशि को माफ़ करने का किया गया था.

अगर, दूसरे राज्य भी छोटे किसानों की इसी परिभाषा का इस्तेमाल करें और उनके क़र्ज़े को माफ़ कर दें, तो सभी राज्यों का कुल राजकोषीय घाटा बढ़कर 3 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है. ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन्न को बोतल से बाहर निकाल दिया है. आदित्यनाथ ने कमान संभाल ली है. अब दूसरे राज्यों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव से बचना मुश्किल होगा.

राज्य बैंकों को फ़सली क़र्ज़ माफ़ी बॉन्ड जारी कर सकते हैं, लेकिन यह हर कोई जानता है कि बाजार में इन बॉन्डों का कोई मूल्य नहीं होगा. निजी निवेशक इन बॉन्डों से उसी तरह दूर भागेंगे जैसे कोई प्लेग महामारी से दूर भागता है.

यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि भारतीय रिज़र्व बैंक की इन बांडों पर किस तरह की प्रतिक्रिया होगी, क्योंकि वह एक निश्चित और आसानी से स्वीकार्य सीमा के बाद राज्यों द्वारा बाज़ार से उधार लेने को हतोत्साहित करता है.

इन ऋण-पत्रों के चलन में आने लायक होने के लिए केंद्र को इसकी गारंटी लेनी होगी. यह राज्यों द्वारा राज्य बिजली बोर्डों के बहीखातों को दुरुस्त करने के लिए जारी किये गये उदय ऋण-पत्रों के समान ही होगा.

ऋण-पत्रों को जारी करना किसी भी तरह से समस्या का समाधान नहीं है. इसके द्वारा बस समस्या को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है. और यह केंद्र और राज्य सरकारों को यह दिखावा करने का मौक़ा देता है कि राजकोषीय प्रबंधन के मामले में सबकुछ ठीक है. आज या कल निवेशकों और ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों को सच पता चल जाएगा.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

 

हक़ीक़त यह है कि मोदी ने एक साथ ग़रीबों और सामाजिक क्षेत्र को तोहफ़े बांटना पसंद नहीं करने वाले ग्लोबल वित्तीय पूंजी के एजेंटों के सामने बड़े-बड़े वादे कर दिये हैं. बाज़ार के निवेशकों का सिद्धांत यही रहा है कि राजकोषीय अनुशासन का सख़्ती से पालन करना, निवेश पर अच्छा लाभ दिलाता है.

उन्हें एक बार में कंपनियों का बक़ाया माफ़ करने से कोई दिक्कत नहीं होती, क्योंकि उनके मुताबिक इससे स्टॉक मार्केट में सकारात्मकता आती है. लेकिन किसानों की ऋण माफ़ी से उन्हें दिक्कत होती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे स्टॉक मार्केट में नकारात्मक भावना फैलती है. इसीलिए मोदी ने अतिसाहसी ढंग से यह घर्षण बनाए रखा है (कम से कम कुछ समय पहले तक) कि उनकी सरकार लोगों का सशक्तीकरण करने में यक़ीन करती है, न कि यूपीए की तरह तोहफे बांटने में.

फसली क़र्ज़ माफ़ी को मुख्य तौर पर यूपीए के समय के रोग की तरह देखा जाता था, लेकिन देश भर में कृषि अर्थव्यवस्था की नाज़ुक स्थिति को देखते हुए नरेंद्र मोदी ने यूपी चुनाव के वक़्त अपना रास्ता बदल लिया.

यह एक सच्चाई है आज देशभर में किसान एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं. हाल ही में तमिलनाडु के किसानों के द्वारा किये गये प्रदर्शन इसकी एक बानगी भर हैं. 2014 में बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में किसानों से किया गया कृषि लागत से 50 फ़ीसदी ज़्यादा कमाई का वादा भुला दिया गया है.

नीति आयोग तो यहां तक कह चुका है कि 2022 तक कृषि आय को दोगुना करना संभव नहीं है. एक तरीक़े से मोदी के वादों का प्रेत उन्हें लौटकर सताने लगा है. फ़िलहाल उन्होंने आदित्यनाथ को आगे कर दिया है, लेकिन देर-सवेर यह प्रेत उन तक ज़रूर लौटेगा.

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