मिस्टर जेटली! ये अपनी पीठ थपथपाने का वक्त नहीं है

अरुण जेटली को एनडीए बनाम यूपीए सरकार के झगड़े से निकलकर भूमंडलीय आर्थिक खतरों के काले बादलों पर ध्यान लगाना चाहिए. यह पिछली सरकार के प्रदर्शन से तुलना करके अपनी पीठ थपथपाने का वक्त नहीं है.

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Mumbai: Arun Jaitley, Union Minister of Finance and Corporate Affairs and Urjit Patel, RBI Deputy Governor during the launch of Pradhan Mantri Suraksha Bima Yojana, Atal Pension Yojana and Pradhan Mantri Jeevan Jyoti Bima Yojana in Mumbai on Saturday. PTI Photo by Mitesh Bhuvad(PTI5_9_2015_000161B)

अरुण जेटली को एनडीए बनाम यूपीए सरकार के झगड़े से निकलकर भूमंडलीय आर्थिक खतरों के काले बादलों पर ध्यान लगाना चाहिए. यह पिछली सरकार के प्रदर्शन से तुलना करके अपनी पीठ थपथपाने का वक्त नहीं है.

Mumbai: Arun Jaitley, Union Minister of Finance and Corporate Affairs and Urjit Patel, RBI Deputy Governor during the launch of Pradhan Mantri Suraksha Bima Yojana, Atal Pension Yojana and Pradhan Mantri Jeevan Jyoti Bima Yojana in Mumbai on Saturday. PTI Photo by Mitesh Bhuvad(PTI5_9_2015_000161B)
वित्त मंत्री अरुण जेटली और आरबीआई गर्वनर उर्जित पटेल. (फाइल फोटो: पीटीआई)

वैश्विक आर्थिक कारक गहराई से घरेलू समष्टि या वृहत आर्थिक प्रबंधन (मैक्रो इकोनॉमिक मैनेजमेंट) को प्रभावित करते हैं. सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए दोनों पर यह बात समान रूप से लागू होती है. इसलिए वित्तमंत्री अरुण जेटली को मामले के अतिकथन से से बाज आना चाहिए कि पिछले चार वर्षों में अर्थव्यवस्था ने ‘साधारण से कम वृद्धि’ अर्जित की है लेकिन समष्टि आर्थिक की ‘गुणवत्ता’ यूपीए शासनकाल की तुलना में ज्यादा बेहतर रही है.

तथ्य यह है कि निर्यात, कृषि, औद्योगिक उत्पादन, निजी निवेश और बैंक क्रेडिट (बैंक ऋण) जैसे सभी मोर्चों पर उम्मीद से कमतर वृद्धि दिखाई दी है. वित्तमंत्री बातों को चाहे जैसे घुमाएं, इस हकीकत से मुंह नहीं चुराया जा सकता.

जेटली के तर्क कुछ-कुछ ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाले लगते हैं, क्योंकि उनका यह बयान राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के उस अध्ययन के संदर्भ में दिया गया था जिसमें जीडीपी के बहुप्रतीक्षित बैक सीरीज आंकड़े को जारी किया गया था.

इसमें यह बात उभरकर सामने आई कि पिछली यूपीए सरकार ने दरअसल अपने दस सालों के कार्यकाल में कहीं ज्यादा उच्च वृद्धि दर हासिल की, जिनमें से दो साल 10 प्रतिशत से ज्यादा वृद्धि दर वाले थे.

जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस बात का एहसास हुआ कि यह आंकड़ा आर्थिक प्रदर्शन के एक महत्वपूर्ण पैमाने पर पिछली यूपीए सरकार की तुलना में वर्तमान एनडीए सरकार को पिछड़ता हुआ बता रहा है, तब जल्दबाजी में नेशनल सांख्यिकी आयोग द्वारा जारी किए गए आंकड़े को सरकार के आधिकारिक आंकड़े की जगह ‘ड्राफ्ट रिपोर्ट’ घोषित कर दिया गया.

बेहतर समष्टि आर्थिक प्रबंधन का जेटली का दावा इसलिए भी खोखला है क्योंकि तथ्य यह है कि घरेलू समष्टि आर्थिक प्रबंधन का संबंध वास्तव में वैश्विक आर्थिक कारकों से होता है. हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने पिछले छह महीने में ब्याज दर को दूसरी बार बढ़ाने के बाद एक अर्थपूर्ण टिप्पणी की.

उन्होंने कहा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पहले ही एक व्यापार युद्ध के बाद व्यापारिक झगड़ों का अनुभव कर चुका है और अब हम एक मुद्रा युद्ध की शुरुआत होते हुए देख रहे हैं. आगे उन्होंने इशारों ही इशारों में कहा कि ऐसे में भारत यही कर सकता है कि वह तनकर बैठे और अपनी सुरक्षा पेटी कस ले.

वास्तव में दो बार ब्याज दर बढ़ाने का आरबीआई का फैसला काफी हद तक उभरते हुए बाजारों की मुद्रा पर संभावित हमले से रुपए को बचाने के मकसद से लिया गया है. व्यापार युद्ध के कारण चीनी अर्थव्यवस्था और मुद्रा के कमजोर होने औैर इसके साथ ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दर बढ़ाने के कारण अमेरिकी डॉलर के मजबूत होने की स्थिति ऐसे हमले की वजह बन सकती है.

आरबीआई के गर्वनर को यह बात खूब अच्छी तरह से मालूम है. यह अच्छा होगा अगर अरुण जेटली भी एनडीए के समष्टि आर्थिक प्रबंधन को लेकर आशावादी घोषणा करने से पहले इन कारकों पर भी गौर कर लें.

हालात के आकलन के मामले में केंद्रीय बैंक कहीं ज्यादा यथार्थवादी है. इसके द्वारा रेपो रेट (वह दर जिस पर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है) में वृद्धि इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि यह केंद्र सरकार के राजकोषीय प्रबंधन से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं है और यह मुमकिन फिसलन से बचाव के लिए रक्षा-कवच तैयार कर रहा है.

जैसा कि द वायर ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था, सीएजी (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) ने वित्तीय वर्ष 2015-16 के बजट दस्तावेज में वित्त मंत्रालय द्वारा राजकोषीय घाटे के दिखाए गए और वास्तविक आंकड़े में 50,000 करोड़ से ज्यादा का अंतर बताया है.

इसके अलावा केंद्र सरकार नकद के ढेर पर बैठे सार्वजनिक क्षेत्र के ओएनजीसी, एनटीपीसी जैसे उपक्रमों और यहां तक कि एलआईसी के खजाने का इस्तेमाल अपने खर्चे के अंतर को पाटने के लिए लापरवाह ढंग से कर रही है. जबकि वास्तव में इसका अर्थ सरकार के कर्जों को उसके अपने खाते से हटाकर इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के खाते में स्थानांतरित कर देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है. यह एक दिखावटी साज-सज्जा के अलावा कुछ नहीं है. खासतौर पर आरबीआई ऐसे उपायों को राजकोषीय घाटे में संरचनात्मक कमी के तौर पर नहीं देखता है.

वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी को लेकर अस्पष्टता के कारण वास्तव में समष्टि आर्थिक प्रबंधन के एक बड़े हिस्से का बोझ आरबीआई के कंधों पर आ गया है. मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम की विदाई के बाद इस बात को लेकर भ्रम और बढ़ गया कि नई दिल्ली से समष्टिगत नीतियों की जानकारी कौन देगा?

एक ऐसे समय में जब भूमंडलीय व्यापार और मुद्रा युद्ध तीव्र हो रहे थे, उस समय हमारे यहां एक वास्तविक निर्वात की स्थिति बनी हुई थी.

यही कारण है कि आरबीआई को पहल करते हुए इस निर्वात में दाखिल होना पड़ा और कमान अपने हाथों में लेना पड़ा है. वास्तव में वित्त मंत्रालय की तरफ से किसी तरह का कोई समष्टि आर्थिक संदेश नहीं आया है.

हाल ही में जब रुपये का विनिमय दर गिरकर 70 रुपये के भी पार चला गया, तब आर्थिक मामलों के विभाग के सचिव सुभाषचंद्र गर्ग ने यह बयान दिया कि गिरता हुआ रुपया तब तक सरकार की चिंता की वजह नहीं है- भले ही यह प्रति डॉलर 80 के स्तर पर भी क्यों न आ जाए, जब तक दूसरी मुद्राओं में भी इसी दायरे में गिरावट आ रही है.

यह रुपये की विनिमय दर जैसे संवेदनशील पर मसले पर एक विनाशकारी संदेश था. इसका मतलब यह हुआ कि आप भूमंडलीय बाजार को यह संदेश दे रहे हैं कि भारत रुपये को 80 रुपये प्रति डॉलर तक गिरने देने के लिए तैयार है, बशर्ते दूसरी मुद्राएं भी इस दायरे में गिर रही हैं.

इसका अर्थ यह निकलता है कि अगर चीन अमेरिका द्वारा आयात शुल्क वृद्धि के असर को कम करने के लिए अपनी मुद्रा का 15 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक अवमूल्यन करता है, तो भारत भी ऐसा करेगा. वास्तव में ऐसी कोई सूरत पैदा होने से पहले ही खुले तौर पर ऐसी मंशा जाहिर करना, परिवपक्वता की कमी को दिखाता है.

पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद वीरमानी, जिन्होने एनडीए और यूपीए दोनों के साथ काम किया, ने मुझे बताया कि इससे पहले आज कभी भी आरबीआई या वित्त मंत्रालय में से किसी ने भी व्यावहारिक विनिमय दर के तौर पर किसी खास अंक का उल्लेख नहीं किया था. मुद्रा प्रबंधन का अनकहा नियम यही कहता है कि विनिमय दर बाजार से निर्धारित होती है और भारतीय रिजर्व बैंक सिर्फ अस्थिरता पर नियंत्रण करने के लिए हस्तक्षेप करता है.

लेकिन वर्तमान शासन में अधिकारियों द्वारा सभी तरह के बयान बाजार की संवेदनशीलता को ध्यान में रखे बिना दिए जा रहे हैं. आज वैश्विक मुद्रा सट्टेबाज इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि भारत आनेवाले समय में रुपये का और ज्यादा अवमूल्यन होने देने के लिए तैयार है.

जेटली ने यह भी कहा कि भारत के पास रुपये की रक्षा के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार है. यह बेहद रक्षात्मक बयान था, क्योंकि जब आपके पास पर्याप्त मुद्रा भंडार होता है, तब आप शेखी नहीं बघारते हैं, बल्कि आपका काम ही आपके बदले में बोलता है.

कई महीनों के मेडिकल अवकाश से लौटकर वित्त मंत्रालय का कार्यभार पुनः संभालने वाले अरुण जेटली को यह जरूर समझना चाहिए कि उचित संचार और नीतियों का बुद्धिमान ढंग से इशारा करना समष्टि आर्थिक प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

उनकी सरकार को एनडीए बनाम यूपीए सरकार के झगड़े से बाहर निकलकर भूमंडलीय क्षितिज पर जमा हो रहे समष्टिगत आर्थिक खतरों के काले बादलों पर ध्यान लगाना चाहिए. यह पिछले सरकार के प्रदर्शन बनाम अपने प्रदर्शन की तुलना करके अपनी पीठ थपथपाने का वक्त नहीं है.

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