अब पराया लगता है यह देश

हम देश के एक छोटे से क़स्बे में पले-बढ़े लेकिन उस दौर में लोगों का दिलो-दिमाग राजनीति ने इतना छोटा नहीं था, जबकि देश का विभाजन हुए बहुत अरसा भी नहीं बीता था. नफ़रत की ऐसी आग नहीं लगी हुई थी, जैसी आज लगी है.

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Demonstrators from the Jat community sit on top of a truck as they block the Delhi-Haryana national highway during a protest at Sampla village in Haryana, India, February 22, 2016. REUTERS/Adnan Abidi

हम देश के एक छोटे से क़स्बे में पले-बढ़े लेकिन उस दौर में लोगों का दिलो-दिमाग राजनीति ने इतना छोटा नहीं था, जबकि देश का विभाजन हुए बहुत अरसा भी नहीं बीता था. नफ़रत की ऐसी आग नहीं लगी हुई थी, जैसी आज लगी है.

Demonstrators from the Jat community sit on top of a truck as they block the Delhi-Haryana national highway during a protest at Sampla village in Haryana, India, February 22, 2016. REUTERS/Adnan Abidi
प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स

जिन्हें बुरा लगे उनसे क्षमायाचना करते हुए यह कहना चाहूंगा कि धीरे-धीरे यह अपना ही देश पराया लगने लगा है, हालांकि इसे छोड़कर जाने की न कोई इच्छा है, न जी सकता हूं और कहीं. और मरना तो है ही यहीं. जिए यहां हैं इतने बरस तो मरें क्यों कहीं और जाकर?

मैं जानता हूं मेरे पहले ही क्षमा मांगने के बावजूद मुझे हिंदुत्ववादी निशाना बनाएंगे, कहेंगे कि पाकिस्तान चले जाओ लेकिन कोई बात नहीं क्योंकि जो मैं कहना चाहता हूं, उसे समझने की संवेदनशीलता जिनमें है वे ऐसा नहीं कहेंगे और वे भी कम नहीं हैं.

क्यों कह रहा हूं कि अपना ही देश धीरे-धीरे पराया लगने लगा है?

कारण यह है कि मैं भले ही मध्य प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में पला-बढ़ा लेकिन उस दौर में लोगों का दिलो-दिमाग राजनीति ने इतना छोटा नहीं बनाया था, जबकि देश का विभाजन हुए बहुत अरसा भी नहीं बीता था. इसके बावजूद नफरत की ऐसी आग नहीं लगी हुई थी, जैसी आज लगी है.

तब के नेताओं की जो भी असफलताएं रही हों, सफलता यह थी कि ऐसी आग को बुझाने में वे कामयाब रहे थे. सांप्रदायिक संगठन तब भी थे, उनके समर्थक भी थे मगर उस वातावरण में वे हाशिये पर थे, जो आज केंद्र में आ चुके हैं इसलिए आज परायापन महसूस होता है.

चार साल पहले तक भी यह परायापन महसूस नहीं होता था क्योंकि विरोध का लोकतांत्रिक अधिकार- आपातकाल को छोड़कर- था. दिक्कतें थीं, बाधाएं थीं लेकिन अधिकारों को सिरे से नकारने की क्षमता किसी में नहीं थी.

जब तक यह अधिकार लगभग अक्षुण्ण बना रहता है, तो शासकों के दंभ और सनकीपन से बेखटके लड़ा जा सकता है और कुछ खतरे उठाकर भी यह लड़ाई मैंने तो खैर क्या ही लड़ी है, मगर औरों ने बहुत लड़ी है और जमकर लड़ी है.

लेकिन अब यह दायरा सिकुड़ रहा है. मंगलवार की गिरफ्तारियां इसकी अंतिम चेतावनी हैं कि आप पर कोई भी आरोप लगाकर आपको देशद्रोही से लेकर कुछ भी ठहराया जा सकता है. कोई भी आकर इसके या उसके नाम पर आप पर हमला कर सकता है, जो कन्हैया कुमार, उमर खालिद, प्रशांत भूषण से लेकर स्वामी अग्निवेश के साथ हो चुका है.

इससे अधिक खतरनाक बात यह है कि ऐसी सभी हरकतों का आगे बढ़कर समर्थन करने वाले पढ़े-लिखों की भी एक बड़ी फौज है.

आप आठ साल की लड़की के साथ बलात्कार करके उसे मार डालो, आप एक बंगाली मजदूर की अकारण हत्या कर दो, आप जिसको चाहो गो तस्करी से लेकर फ्रिज में गोमांस भरा है, यह कहकर मार दो, समर्थक मिल जाएंगे.

वे आपकी वीरता के गीत गाएंगे, वे आपकी झांकी निकालेंगे, वे आपको दिल्ली से माला पहनाने आएंगे, वे अदालत में आपके लिए खड़े हो जाएंगे, वे पीड़ित पक्ष के वकील को सामने आने नहीं देंगे.

ऐसे में कई बार अपनोंं के बीच भी खुद को अकेला पाएंगे. यह अकेलापन अस्तित्ववादी अकेलापन, परायापन नहींं है, यह आपका वाास्तविक यथार्थ अकेलापन है, जिसकी जड़ें कहींं और नहीं ठीक यहींं हैं, इसी समय में है.

इसलिए लगता है कि यह अपना होते हुए अपना देश नहीं रहा.

हम दिल्ली के पर्यावरण प्रदूषण को सह सकते हैं, जिसके बारे में ताजा शोध कहते हैं कि इससे आपकी जिंदगी का एक साल कम हो सकता है, मगर इस दूसरे प्रदूषण में तो कार्बन डाई ऑक्साइड है सिर्फ़, ऑक्सीजन तो नाममात्र की है.

और जो इस सबके बावजूद परायापन महसूस नहीं करते, जिन्हें पहले से अधिक यह देश अपना लगता है, वे अपने को सौभाग्यशाली मान सकते हैं, मानें और उन्हें उन सबकी ओर से शुभकामनाएं, जिन्हें ऐसा कुछ नहीं लगता.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)