2014 में भाजपा की जीत के बाद से चुनावी राजनीति में ‘सांप्रदायिक आपातकाल’ की स्थिति है

2014 के पहले तक ‘राजनीतिक बहुमत’ और ‘सांप्रदायिक बहुमत’ के बीच की खाई औपचारिक रूप से बनी रही. ज़मीन पर जो भी हालात रहे हों लेकिन चुनाव एक भ्रम पैदा करने वाले एक मुखौटे के रूप में काम करते रहे. लेकिन केंद्र में भाजपा के आने के बाद यह मुखौटा भी उतर गया.

//

2014 के पहले तक ‘राजनीतिक बहुमत’ और ‘सांप्रदायिक बहुमत’ के बीच की खाई औपचारिक रूप से बनी रही. ज़मीन पर जो भी हालात रहे हों लेकिन चुनाव एक भ्रम पैदा करने वाले एक मुखौटे के रूप में काम करते रहे. लेकिन केंद्र में भाजपा के आने के बाद यह मुखौटा भी उतर गया.

modi
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो: पीटीआई)

ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन (एआईएससीएफ) के मंच से 1945 में दिए गए एक भाषण में बीआर आंबेडकर ने एक ‘राजनीतिक बहुमत’ और ‘सांप्रदायिक बहुमत’ के बीच फर्क को सामने रखा था.

उनके मुताबिक, ‘राजनीतिक बहुमत स्थिर या हमेशा के लिए बहुमत नहीं होता. उसे हमेशा तैयार किया जाता है. उसे तोड़ा भी जाता है और पुन: तैयार भी किया जाता है. किंतु सांप्रदायिक बहुमत एक स्थायी बहुमत होता है, और उसकी सोच सनातन और स्थिर होती है. इसे खत्म किया जा सकता है, लेकिन इसमें बदलाव नहीं लाया जा सकता.’

आंबेडकर ने बेझिझक यह ऐलान किया था कि ‘भारतीय हालात’ में सिर्फ एक सांप्रदायिक बहुमत ही मौजूद है.

ऐसे हालात में एक साधारण चुनावी बहुमत पर पूरे निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा सकती है. किसी भी चुनी हुई पार्टी या व्यक्ति को सभी घटक समुदायों का प्रतिनिधित्व करने की जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती और न ही उन्हें उनके सच्चे प्रतिनिधि के रूप में कबूल किया जा सकता है.

आंबेडकर के मुताबिक, ऐसा करने से ‘सांप्रदायिक गतिरोध’ की एक स्थिति पैदा होती है, जिसे न तो अल्पसंख्यक समुदायों पर बहुसंख्यकवादी धौंस के जरिए हल किया जा सकता है और न ही उन सताए जाने वाले समुदायों के अंतहीन तुष्टीकरण के जरिए.

इस गतिरोध को सिर्फ एक नए सिद्धांत को अपना कर ही दूर किया जा सकता है, जो चुनावी बहुमत के शासन के एक पूरक के रूप में काम करेगा: वह सिद्धांत है न्याय का सिद्धांत.

न्याय के सिद्धांत के मुताबिक, महज चुनावी बहुमत को एक समाज के राजनीतिक जीवन में भागीदारी को तय करने का अधिकार नहीं होना चाहिए. मिसाल के लिए, सदन में सिर्फ बहुमत वाली पार्टी के सदस्यों से ही सरकार नहीं बनाई जानी चाहिए.

आंबेडकर के नजरिए में, अल्पमत और अल्पसंख्यकों को भी समाज में अपनी स्थिति के आधार पर सरकार में भागीदारी की जगह मिलनी चाहिए. सिद्धांत यह है: सामाजिक स्थिति जितनी ही कमजोर होगी, समुदाय और व्यक्ति के हिस्से में राजनीतिक भागीदारी का मौका उतना ही अधिक होगा.

‘सांप्रदायिक गतिरोध’ को तोड़ने का रास्ता यही है, जिसमें बहुसंख्यक समुदाय को राजनीतिक प्रक्रिया में निरपेक्ष बहुमत हासिल होने की गुंजाइश खत्म हो जाती है और अल्पसंख्यक समुदायों को न तो धौंस और जुल्म को सहना पड़ता है और न ही किसी सरपरस्त का तुष्टीकरण झेलना पड़ता है.

आंबेडकर ऐसा नहीं सोचते थे कि ब्रिटिश शासकों ने इस दिशा में पर्याप्त काम किया है और वे सांप्रदायिक गतिरोध का हल करने के मामले में ‘कांग्रेस के हिंदुओं’ (यह आंबेडकर के ही शब्द हैं) पर भी भरोसा नहीं करते थे.

आजादी की दहलीज पर खड़े होकर, आंबेडकर को इसमें कोई भरोसा नहीं था कि लोकतंत्र के भविष्य के संविधान को महज संस्थानों का एक सूत्रीकरण बना कर रखा जा सकता है, जैसे कि चुनाव नामक संस्था बहुसंख्यकवादी प्रतिनिधित्व के नियम के आधार पर चलाई जाए. बल्कि संविधान को ऐसे मुक्तिकामी सिद्धांतों की बुनियाद रखनी थी, जो उन ढांचागत समस्याओं की भरपाई कर सकें जो स्वतंत्रता और समतापरक मैत्री के बुनियादी उसूलों को साकार करने के दौरान सामने आती हैं.

वरना राजनीतिक बहुमत और सांप्रदायिक बहुमत के बीच के औपचारिक फर्क को राजनीतिक सत्ता के जमीनी हालात में लगातार ही झूठा और नकारा बनाया जाता रहेगा. ऐसे में चुनाव समय-समय पर इस्तेमाल किए जाने वाले ऐसे रस्मी औजार बन कर रह जाएंगे जो महज अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यक समुदाय के शासन को मजबूत करने का काम करेंगे. 1945 में आंबेडकर ने संकट की पहचान इस रूप में की थी.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि तब और 2014 के बीच में, जब ज्यादातर कांग्रेस शासन में रही, यह सांप्रदायिक गतिरोध कायम रहा. इस हद तक ‘भारतीय स्थितियों’ में राजनीतिक बहुमत और एक सांप्रदायिक बहुमत के बीच की खाई भी औपचारिक रूप से बनी रही. जमीन पर जो सचमुच के हालात थे, चुनाव उनके प्रति भ्रम पैदा करने वाले एक जटिल मुखौटे के रूप में काम करते रहे.

अगर समय का पैमाना छोटा रखें तो ऐसा मुमकिन है कि कभी-कभार राजनीतिक बहुमत और सांप्रदायिक बहुमत में फर्क नजर आए, लेकिन अगर इस पूरे दौर को मिला कर देखें तो हम पाएंगे कि ‘कांग्रेस के हिंदुओं’ का राज अभी भी कायम था.

2014 में भाजपा की जीत के बाद यह मुखौटा भी उतर गया है और हालात ने करवट ली है कि सांप्रदायिक गतिरोध की जगह सांप्रदायिक आपातकाल की स्थिति ने ले ली है.

‘सांप्रदायिक आपातकाल’ से मेरा मतलब एक ऐसी परिघटना से है, जिसकी तरफ इशारा खुद आंबेडकर ने ही किया था जब उन्होंने कहा था कि हिंदू एक निरपेक्ष बहुमत (एब्सॉल्यूट मेजॉरिटी) के लिए ‘अड़े हुए’ हैं: वे सापेक्ष बहुमत (रिलेटिव मेजॉरिटी) को कबूल नहीं करेंगे और उन्हें अल्पसंख्यकों के साथ सह-अस्तित्व से और उनके साथ मिल कर काम करने से इनकार है.

2014 से, हमने देखा है कि भाजपा, उनके पार्टी अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, आरएसएस सदस्य, मीडिया विचारक…, सब अड़े हुए हैं और सबकी जिद है. इसकी जिद कि 2014 के चुनाव किसी और चुनाव की तरह महज एक और चुनाव नहीं थे, जिसमें राजनीतिक और सांप्रदायिक बहुमत के बीच फर्क अभी भी कायम था. ये चुनाव महज एक ‘नतीजा’ नहीं थे: 2014 के नतीजे असल में एक फैसला थे, एक फरमान थे कि भारत के इतिहास को एक बार बदल दिए जाने के बाद उसकी दिशा को वापस मोड़ा नहीं जा सकता.

ambedkar
बीआर आंबेडकर

और आज जिस वक्त मैं यह लिख रहा हूं, तब भी दावा किया जा रहा है कि इस बदलाव का बुनियादी तत्व यह है कि 2014 के लोकसभा चुनावों का फैसला यह था कि ये ऐसे चुनाव थे, जिनकी कसौटी पर भविष्य के सारे चुनावों को खरा उतरना होगा.

इस अर्थ में, हम एक ऐसे लोकतंत्र को छोड़ कर, जो चुनावों पर आधारित हो और अपने आप में जो संवैधानिक तोकतंत्र का एक पतित और कांग्रेसपरस्त स्वरूप था, एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिए गए हैं, जहां लोकतंत्र सिर्फ एक चुनाव पर आधारित हो गया है.

साफ तौर पर अमित शाह का सपना यही है: हरेक चुनाव में एक ही चुनाव को साम, दाम, दंड, भेद से लड़ना, जहां खुलेआम, बड़े गर्व से और अचूक तरीके से राजनीतिक बहुमत को सांप्रदायिक बहुमत के साथ मिला दिया जाता है.

कांग्रेसी शासन का लंबा इतिहास, जिसमें यह अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न और तुष्टीकरण के बीच डोलती रही थी, एक झटके से खत्म होता हुआ दिखता है जब हम इस भयावह चमत्कार को देखते हैं कि एक खास पार्टी और उनका सर्वोच्च नेता दोनों ही यह सच बयान करते हैं कि ‘हम वाकई एक सांप्रदायिक और एक निरपेक्ष बहुमत हैं और हम इस पर अड़े हुए हैं.’

यह जिद कि 2014 एक चमत्कार था और उसके बाद से हर चीज ही नए सिरे से बनाई गई है और ‘नए भारत’ के पास लोकतांत्रिक या संवैधानिक सिद्धांतों के बारे में सोचने के लिए बर्बाद करने का समय नहीं है, यह जिद आज आपातकाल के दौर में अल्पसंख्यकों को एक गहरे तक पैबस्त होती हुई हिंसा के रूप में महसूस हो रही है.

अल्पसंख्यकों के लिए, सैद्धांतिक सोच पर ही तो हर चीज निर्भर करती है. जब न्याय के सिद्धांत पर सोचा जाता है, सिर्फ तभी आंबेडकरी अर्थ में दलित, मुसलमान, आदिवासी और महिलाएं वजूद में आती हैं- वे राजनीतिक तौर पर वजूद हासिल करती हैं.

वरना तो सिर्फ सांप्रदायिक बहुमत ही वजूद में रहता है, और यह वजूद किसी की भी परवाह नहीं करता, निरपेक्ष और खोखला होता है, बिना किसी चिंतन या विचार के, जो कि एक ब्रांड के रूप में ‘नए भारत’ का चमत्कार है, जिसमें सोच के साथ जुड़े श्रम और परेशानी के लिए कोई जगह नहीं है. जो एक ऐसा ब्रांड है जिस पर चमत्कारी बाबा अड़े हुए हैं और जिसका वे निरंतर प्रचार करते हैं.

लेकिन 2014 के बाद से जिस आक्रामक चमत्कार पर बार-बार जोर दिया जाता रहा है, उसकी गहनता और बढ़ती गई है. जब अल्पसंख्यकों को उनके राजनीतिक वजूद से वंचित किया जाता है, तब उनकी जिंदगियां महज एक भौतिक वजूद में सिमट जाती हैं और वे बस एक ‘आबादी’ बन कर रह जाते हैं.

यही वो हालात हैं, जिनमें मुसलमानों की स्थिति खास तौर से चिंताजनक बन जाती है. अगर भाजपा बुनियादी तौर पर एक हिंदू बहुसंख्यकपरस्त पार्टी है जो अपने को एक ‘सांप्रदायिक चमत्कार’ के रूप में पेश करती है और जिसे कांग्रेस के उलट मुसलमान समुदाय को इस्तेमाल करने में भी दिलचस्पी नहीं है, तब इस मुसलमान ‘आबादी’ के साथ इसका क्या रिश्ता रह जाता है?

लगता है कि यह एक नकारात्मक और सतही रिश्ता है, जैसे भाजपा का मुसलमानों से न कुछ लेना है और न देना है. इस समुदाय से न तो उनका कोई उम्मीदवार होता है और न ज्यादा वोटों की उम्मीद होती है…

लेकिन फौरन ही हम यह भी देखते हैं कि ऊपरी तौर पर ‘नामौजूद रिश्ते’ से गढ़ी हुई नकारात्मक छवियों का एक सिलसिला निकल पड़ता है: दुष्ट कल्पनाओं के आधार पर कहा जाता है कि मुसलमान मोटे तौर पर एक ऐसी ‘मुसलिम दुनिया’ का हिस्सा हैं जिसमें वह देश भी शामिल है, जिसको भारत का सबसे बड़ा ‘दुश्मन देश’ बताया जाता है.

मुसलमान जो अपनी बनावट में ही ‘पिछड़े’ हैं मानो पिछड़ापन ऐतिहासिक भेदभाव का मामला न हो बल्कि सामाजिक या धार्मिक पैदाइश या जीन जैसी कोई चीज हो…

और मुसलमानों से (सिर्फ मुसलमान नाम वालों को ही नहीं बल्कि खुद ‘मुसलमान’ नाम से ही) यह साफ नफरत, उनको खारिज करने की अथक कोशिशें, खास तौर पर एक विडंबना ही है.

क्योंकि जब हम याद करते हैं कि 1945 में आंबेडकर जब ‘सांप्रदायिक गतिरोध’ को विचारों और सिद्धांतों की कसौटी पर कस रहे थे, तब वे भारतीय मुसलमानों को एक भविष्य के लोकतांत्रिक भारत और भविष्य के एक पाकिस्तान के बीच, जिसकी पूरी योजना एक सांप्रदायिक बहुमत पर आधारित थी, सचमुच का एक विकल्प पेश करने की कोशिश कर रहे थे.

ऐसा उन्होंने आत्म निर्णय के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए किया था, जिस पर पाकिस्तान की मांग आधारित थी. आज जब राष्ट्र के विचारक ‘आत्म निर्णय’ का नाम भर सुन कर भड़क उठते हैं, वे सारे लोगों को शामिल करने वाले एक लोकप्रिय लोकतंत्र के रूप में भारत के आत्म निर्णय पर सोचने की मेहनत करने से नफरत करते हैं.

लेकिन सिर्फ इसलिए कि भाजपा एक अपरिवर्तनीय चुनावी चमत्कार (2014) को भारत की नियति पर थोपना चाहती है और इसलिए इसके अध्यक्ष चाहते हैं कि हरेक चुनाव उसी एक चुनाव की लीक पर चले और उसकी नकल करे, सिर्फ इसलिए कि वे इसके लिए ‘अड़े’ हुए हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि चीजें हर हाल में इसी रूप में सामने आएंगी.

इसीलिए भाजपा 2014 के बाद से कई राज्यों में, स्थानीय चुनावों में और लोक सभा उपचुनावों में हारी है. लेकिन फिर भी पार्टी अड़ी हुई है! 2014 के अपने ‘चमत्कार’ के सिद्धांत पर आधारित, जिससे सांप्रदायिक बहुमत का पुनर्जन्म हुआ, बल्कि यह पहली बार पैदा हुआ, सिद्धांतत: यह 2014 के बाद की किसी चुनावी हार को एक त्रुटि या गलती मानती है.

कोई भी ऐसा चुनाव जिसमें राजनीतिक और सांप्रदायिक बहुमत के बीच का फर्क फिर से दिखने लगे, तो वह एक पुरानी, बासी चीज होगी. इसलिए, इतिहास चाहे जो कहे, नियति के तर्क से पार्टी (भाजपा) को चुनावी गलती में हस्तक्षेप करने और उसे सुधारने का हक है, चाहे यह हस्तक्षेप कितना ही अवैध क्यों न दिखे (मिसाल के लिए राज्यपालों के बेधड़क इस्तेमाल को देखा जा सकता है).

यह चुनावी जीन विज्ञान का एक नव-फासीवादी कार्यक्रम है, जिसमें अल्पकालिक तौर पर फासीवाद और राजनीतिक आपातकाल की जानी-पहचानी शर्त यानी संविधान को निलंबित किए जाने की जरूरत नहीं पड़ती.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

साथ ही, यह चुनावी जीन विज्ञान चुनावी नतीजों में हेर-फेर करने में उतनी दिलचस्पी नहीं रखता, जितना इसे यकीनी बनाने में कि नतीजे चाहे जो हों, चुनाव के बाद उभरने वाले परिदृश्य में सत्ता के लिए होड़ लगा रहे अनगिनत गुटों, पार्टियों या समूहों वाले तेजी से बदलते हुए हालात के सामने एक चुनावी फैसला पेश किया जाए और उन पर सांप्रदायिक बहुमत की एक ऐसी रूपरेखा की परत चढ़ा दी जाए, जिसे चुनावों से पहले से ही तैयार रखा गया है.

आखिरकार अब सरोकार धांधलीपूर्ण या फिर ईमानदार चुनावों के जरिए लोकतांत्रिक वैधता हासिल करने में निहित नहीं हैं, बल्कि सरोकार सत्ता पर पकड़ बनाए रखने से है, उस हद तक जिस हद तक इस प्रक्रिया और पकड़ से एक निश्चित संप्रभु और फूहड़ वैभव जुड़ा हुआ है.

लेकिन इस चरम वैभव तक पहुंचने के लिए, सबसे पहले चुनावी प्रतिनिधित्व के तर्क को इस तरह से तोड़ना-मरोड़ना पड़ेगा: जनता को सांप्रदायिक बहुमत के एक निर्मम ‘तथ्य’ और दिव्य ‘सिद्धांत’ के आगे समर्पण करने के लिए मनाना जरूरी है.

अगर वे इस बात को लेकर निश्चिंत हों कि एक राजनीतिक बहुमत को ‘तैयार करना, तोड़ना और फिर से तैयार करना’ अब मुमकिन नहीं रहा, कि सिर्फ सांप्रदायिक बहुमत का अस्तित्व है, तब चुनाव एक ब्लैकमेल या अपहरण (हाइजैक) वाली स्थिति बन जाते हैं: अगर आप बहुसंख्यकवादी पार्टी के लिए वोट नहीं करते तो आप सत्ता के फूहड़ स्वाद से महरूम हो जाएंगे और इसके बजाए आपको इसकी संप्रभु हिंसा का प्रकोप बर्दाश्त करना पड़ेगा.

दूसरी तरफ, अगर आप इसके लिए वोट करते हैं तो एक तरह से आप उस हिंसा का लाभ उठा सकते हैं (जैसा आज सांप्रदायिक लिंच मॉब किया करती है).

ऐसे में अल्पसंख्यकों के लिए रास्ता यही है कि वे या तो चुप हो जाएं या फिर सांप्रदायिक आतंक का राजनीतिक रूप से प्रतिरोध करें-या फिर ब्लैकमेलर या अपहरणकर्ता के प्यार में पड़ जाएं (आरएसएस से जुड़ जाएं…)

स्टॉकहोम सिंड्रोम के इस रुझान को भाजपा और मोदी के प्रति उस खूब सारे प्यार में देखा जा सकता है जिसका चलन पूरे देश में इन दिनों चल पड़ा है.

मेरी नजर में मौजूदा दौर में चल रही परियोजना की यह बुनियादी प्रवृत्ति है जो छल से भरी हुई, हिंसक और चिंताजनक रूप से कारगर दिख रही है. लेकिन इस विकृत सफलता का ये मतलब नहीं है कि आज के समय में विजेता दिख रही सांप्रदायिक आम सहमति के खिलाफ एक निराशापूर्ण उदारवादी आम सहमति कायम की जाए कि अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलमानों का राजनीतिक अलगाव, सांस्कृतिक अपमान और शारीरिक हिंसा हमारे राष्ट्रीय जीवन का ‘नया चलन (न्यू नॉर्मल)’ है.

बाकी हम सभी लोग निराशा-या उत्साह-के साथ जिस बात को एक ‘चलन’ (नॉर्मल) के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, उसे अल्पसंख्यकों को एक आपातकाल की तरह जीना पड़ता है. नए ‘भारतीय हालात’, चाहे जितने भी जिद के साथ उस पर अड़े रहें, वो कभी भी एक चलन या सामान्य बात नहीं बन सकते और उन्हें बनना भी नहीं चाहिए.

(सौम्यव्रत चौधरी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और हाल ही में डॉ. बीआर आंबेडकर के चिंतन पर उनकी किताब आंबेडकर एंड अदर इम्मॉर्टल्स: एन अनटचेबल रिसर्च प्रोग्राम प्रकाशित हुई है.)

यह लेख मूल रूप से इंडियन कल्चर फोरम की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था. इसे लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित किया गया है. रेयाज़ उल हक़ द्वारा हिंदी में अनूदित.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50