दंगाइयों पर फूल बरसाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर किस मुंह से सवाल उठाते हैं?

जिस तरह इस्लामिस्ट आतंकवादी अपनी हरकतों से इस्लाम का ही ग़लत मतलब पेश करते हैं, वही स्थिति हिंदुत्व आतंकवादियों की होती है, वे हिंदू धर्म का इस्तेमाल कर उसकी ग़लत छवि पेश करते हैं.

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जिस तरह इस्लामिस्ट आतंकवादी अपनी हरकतों से इस्लाम का ही ग़लत मतलब पेश करते हैं, वही स्थिति हिंदुत्व आतंकवादियों की होती है, वे हिंदू धर्म का इस्तेमाल कर उसकी ग़लत छवि पेश करते हैं.

Bhavesh Patel ANI
भवेश पटेल का भरुच पहुंचने पर हुआ स्वागत (फोटो साभार: एएनआई)

समूचा मुल्क जिन दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, अग्रणी लेखकों-कवियों एवं वकीलों की गिरफ्तारी के मसले को लेकर उद्वेलित था, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दमनकारी कानूनों के तहत इस गिरफ्तारी के बारे में चिंता जाहिर की थी और उसने इसकी आवश्यकता स्पष्ट करने के लिए महाराष्ट्र पुलिस को निर्देश दिया था, उन दिनों गुजरात से आई इस खबर पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया होगा.

मालूम हो, गुजरात के शहर भरूच का वह नजारा कई मायनों में अविश्वसनीय सा था, जब सैकड़ों की तादाद में सड़कों पर जुटे लोग केसरिया कपड़ा पहने एक शख्स की जय जयकार कर रहे थे. वहां मौजूद लोगों में गोया आप से होड़ मची थी कि कौन उस शख्स को कंधे पर उठाएगा.

सत्ताधारी पार्टी के कई स्थानीय नेताओं की वहां मौजूदगी भी कैमरों में कैद हो रही थी.

गौरतलब था कि लोगों के उन्मादी किस्म के आकर्षण का केंद्र वह शख्स न कोई खेल जगत का सितारा था, जो एशियाई गेमों में पदक लेकर लौटा था, न कि बालटी बाबा, चिमटा बाबा आदि तरह तरह के नामों से मशहूर कोई साधु था, जिसके मुरीद उसे पाकर धन्य हो रहे थे.

दरअसल वह शख्स भवेश पटेल (बम धमाके में दोषसिद्ध मुजरिम था) जिसे जमानत मिली थी. भवेश जिस आतंकी समूह का सदस्य था उसके द्वारा अंजाम दी गई आतंकी कार्रवाई में तीन लोग मारे गए थे और 17 लोग घायल हुए थे.

11 अक्टूबर 2007 को हुई घटना अजमेर शरीफ के उस ऐतिहासिक दरगाह में हुई थी जो एक सूफी मजार है, जहां हिंदू और मुसलमान दोनों अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं जब रमजान का महीना चल रहा था और इफ्तार की नमाज का वक्त हो चला था.

आतंकियों का इरादा दरअसल अधिकाधिक लोगों को मारना था अलबत्ता बम का सर्किट बनाने में उनसे कुछ भूल हुई थी, उसके चलते वहां हजारों की तादाद में लोगों के एकत्रित होने के पहले ही बम विस्फोट हो गया था, जिसे एक टिफिन कैरियर में रखा गया था.

राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने पाया था कि इस घटना के प्रमुख साजिशकर्ता कथित तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रचारक रहे सुनील जोशी और लोकेश शर्मा रहे थे और भवेश का काम बम को नियत स्थान पर रखना था.

अगर हम उन दिनों की और उसके बाद चली जांच की अखबार की कतरनों को पलटते हैं तो हम देखते हैं कि इसी संगठन के एक वरिष्ठ नेता का नाम इस आतंकी कार्रवाई के असली मास्टरमाइंड के तौर पर बार-बार उभर रहा था, खबरें यहां तक आयी थी कि जयपुर के किसी होटल में किस तरह इसने इस आतंकी मॉड्यूल के साथ मीटिंग की थी जिसमें कई अन्य हिंदुत्व आतंकी शामिल थे, किस तरह पैसा और हथियार जुटाने की जिम्मेदारी बंटी थी.

यह अलग बात है कि जब अजमेर बम धमाके की चार्जशीट फाइल की गई थी, तब उस मास्टरमाइंड का नाम रहस्यपूर्ण तरीके से गायब मिला था.

अगर हम बम धमाके में दोषी साबित हुए भवेश पटेल जैसे शख्स के उस शाही स्वागत को देखें तो यह बात समझ में आती है कि वे तमाम लोग जो वहां जुटे थे, उनके लिए ऐसी आतंकी घटनाओं की कोई अहमियत नहीं थी. फिर कोई इबादत/पूजा करते किसी गैर को विस्फोटकों से उड़ा दे या गोलियों से भून दे.

क्या यह किसी स्वस्थ्य समाज का लक्षण कहा जा सकता है, जो किसी निरपराध का खून बहा देने को लेकर विचलित नहीं होता!

अगर हम हिंदुत्व आतंकवादियों की हिंसक गतिविधियों पर गौर करें, तो पता चलता है कि ‘अन्यों’ की हत्या अर्थात धार्मिक अल्पसंख्यकों की उस वक्त हत्या करने की घटनाएं जब वह अपने खुदा की इबादत में जुटे हों, कई प्रसंगों में नजर आती हैं.

आप मालेगांव बम धमाके (सितंबर 2006) को देखें- जिसमें शबे बारात के दिन अर्थात पैगम्बर मुहम्मद के जन्मदिन पर एक साथ तीन स्थानों पर बम रखे गए थे, जिसमें चालीस के करीब मुसलमान मार दिए गए थे.

या आप मक्का मस्जिद बम धमाके को देखें (नवंबर 2007), जब हैदराबाद स्थित इस मस्जिद पर सुनील जोशी जैसे आतंकी की अगुआई वाले मॉड्यूल ने बम रखा था.

या आप नांदेड़ बम धमाके (अप्रैल 2006) को देखें, जो संघ के कार्यकर्ता रहे लक्ष्मण राजकोंडवार के घर पर हुआ था, जिसमें बम बनाते उनका बेटा और अतिवादी हिंदू संगठनों का कार्यकर्ता हिमांशु पानसे मारा गया था और बाद में चली पुलिस जांच में इसके पहले हुए बम धमाकों को अंजाम देने वालों का पता लग गया था.

इस आतंकी मॉड्यूल ने परभणी में उस वक्त बम फेंके थे जब जुम्मे के रोज अर्थात शुक्रवार को लोग नमाज अता करने में लगे हुए थे. चलती मोटर साइकिल से किए इस आतंकी हमले को अंजाम देने वालों का उस वक्त पता नहीं चला था, मगर नांदेड़ बम धमाके में महाराष्ट्र की एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड ने जो पड़ताल की थी उसमें यह सभी खुलासे हुए थे.  विस्तृत विवरण के लिए देखें (‘Godse’s Children: Hindutva Terror in India’ Subhash Gatade, Pharos Media, 2012, Second Edition)

एक क्षेपक के तौर पर हम इस बात पर गौर कर सकते हैं कि इस उपमहाद्वीप में चलती हिंदुत्व अतिवादियों और इस्लामिस्ट आतंकियों की गतिविधियों में काफी समानता दिखती है.

अहम बात यह है कि जिस तरह इस्लामिस्ट आतंकवादी अपनी हरकतों से इस्लाम का ही गलत मतलब पेश करते हैं, वही स्थिति हिंदुत्व आतंकवादियों की होती है, वह हिंदू धर्म का इस्तेमाल कर उसकी गलत छवि पेश करते है.

एक सूत्र के रूप में कहा जा सकता है कि जिस तरह इस्लाम और राजनीतिक इस्लाम को समकक्ष नहीं रखा जा सकता, उसी तरह हिंदू धर्म और उसके राजनीतिक इस्तेमाल हिंदुत्व को या उसके नाम पर हिंसक कार्रवाईयों को समकक्ष नहीं रखा जा सकता.

अपनी बहुचर्चित किताब ‘हिंदुत्व’ में सावरकर, जो उसके विचारक समझे जाते हैं, इस बात को बखूबी स्पष्ट करते हैं कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व अलग-अलग चीजें हैं…

Hindutva is different from Hinduism

…[H]induism is only a derivative, a fraction, a part of Hindutva. Unless it is made clear what is meant by the latter the first remains unintelligible and vague. Failure to distinguish between these two terms has given rise to much misunderstanding and mutual suspicion between some of those sister communities that have inherited this inestimable and common treasure of our Hindu civilization. What is the fundamental difference in the meaning of these two words would be clear as our argument proceeds. Here it is enough to point out that Hindutva is not identical with what is vaguely indicated by the term Hinduism. By an ‘ism’ it is generally meant a theory or a code more or less based on spiritual or religious dogma or system. But when we attempt to investigate into the essential significance of Hindutva we do not primarily — and certainly not mainly — concern ourselves with any particular theocratic or religious dogma or creed. Had not linguistic usage stood in our way then s Hinduness ‘ would have certainly been a better word than Hinduism as a near parallel to Hindutva…

दूसरी अहम बात यह है कि इस्लामिस्टों को पेशावर के स्कूल पर हमला करके डेढ़ सौ से करीब बच्चों को मारने में गुरेज नहीं होता या सूफी मजारों पर आत्मघाती हमला करने को वह वाजिब ठहराते हैं और वही आलम हिंदुत्व आतंकियों का ही है.

इस तरह चाहे हिंदुत्व आतंकवादी हों या इस्लामिस्ट आतंकवादी, सभी के चिंतन में यही विचार हावी रहता है कि उनके हिसाब से जो ‘अन्य’ हैं, फिर वह चाहे अन्य आस्थाओं वाले लोग हों या ऐसे लोग हों जो धर्म की उनकी व्याख्या से सहमत नहीं हैं, उनका समूल नाश किया जाए.

अगर हम मुंबई के पास स्थित नालासोपारा में वैभव राउत जैसों के घरों से हथियारों, विस्फोटकों, डिटोनेटर्स की बरामदगी की हालिया घटना को देखें तो वह इसी बात की ताईद करती है, जिसमें अब तक गिरफ्तार लोगों की संख्या सात तक हो गई है.

उस इस पूरी बरामदगी को लेकर जो थोड़े बहुत विवरण उपलब्ध हैं उसके मुताबिक इन आतंकियों की योजना थी कि गणेशोत्सव और ईद जैसे त्योहारों के मौकों पर उनका प्रयोग किया जाए, जब भारी मात्रा में लोग एकत्रित होते हैं.

इन अतिवादियों में से कईयों के ताल्लुकात पश्चिमी भारत में आतंकी घटनाओं में लंबे समय से लिप्त संगठन से बताए जाते हैं. ‘दुष्टों की समाप्ति को आध्यात्मिक कार्य’ घोषित करने वाले और उसके लिए हथियारों की ट्रेनिंग तक देने वाले ऐसे संगठनों पर पाबंदी लगाने की मांग ने नए सिरे से जोर पकड़ा है.

वे सभी न्यायप्रिय लोग, जिन्हें इस विवरण को पढ़ते हुए वितृष्णा हो रही हो या जो दोषसिद्ध आतंकी का स्वागत करने वाली भीड़ को देख कर अंदर से विचलित हो रहे हों, उनका दिल यह सुन कर और बैठ जाएगा, अगर उन्हें बताया जाए कि हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के दायरे में अतिवादियों का ऐसा स्वागत अब आम हो चला है.

पांच सौ साल पुरानी एक मस्जिद को ध्वंस करने की मुहिम का खाका खींचने वाले और उसके ध्वंस को अंजाम देने वाले शख्स को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के तौर पर सम्मानित करना हो या, रामनवमी के धार्मिक जुलूस में एक हत्यारे की -जिसने एक निरपराध मुस्लिम कामगार को तलवार से काट डाला था और इस कारनामे का वीडियो बना कर लोगों के साथ साझा किया था.

झांकी रखनी हो या मॉब लिंचिंग के दोषसिद्ध अपराधियों को घर बुलाकर अपने हाथों से कैबिनेट मंत्री महोदय द्वारा अपने हाथों से मिठाई खिलाना हो, निश्चित तौर पर इस दिशा में भारत काफी आगे निकल गया है.

वैसे तमाम सारे लोग उस घटना से वैसे वाकिफ भी नहीं होंगे कि किस तरह 2002 के दंगों में संगठन की प्रत्यक्ष भूमिका की कथित तौर पर ताईद करने वाले एक शख्स को सम्मानित करने के लिए कुनबे की तमाम बड़ी शख्सियतें इकट्ठा हुई थीं.

यह कार्यक्रम अहमदाबाद में हुआ था जब प्रोफेसर केका शास्त्री को सम्मानित किया गया था. (2004) विश्व हिंदू परिषद के नेता केका शास्त्री, गुजराती भाषा के अग्रणी लेखक भी माने जाते हैं, उनकी जन्मशती पर उनको सम्मानित करने का यह आयोजन था. (क्षेपक के तौर पर बता दें कि अपनी किताब ‘ज्योतिपुंज’ में जिसमें वह उन तमाम लोगों के बारे में लिखते हैं, जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया, जनाब मोदी ने केका शास्त्री के लिए बाकायदा एक अलग अध्याय लिखा है.)

वर्ष 2004 के चुनावों में भाजपा की आकस्मिक हार के बाद आयोजित यह पहली जनसभा थी, जिसमें पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से लेकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तथा विहिप के तोगड़िया, अशोक सिंघल आदि के साथ केसरिया बाना पहने तमाम साधु लोग भी एकत्रित हुए थे.

प्रोफेसर केका शास्त्री की साहित्यिक गुणवत्ता जो भी हो, जिस पर गुजराती जुबान का जानकार बता सकता है, मगर शेष भारत ने उन्हें गुजरात 2002 के दंगों के बाद ही जाना था. रेडिफ डॉट काम को दिए अपने साक्षात्कार के जरिए वह चर्चित हुए थे.

इस साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया था कि गोधरा की घटना के बाद किस तरह संगठित रूप में चीजों को अंजाम दिया गया था. दरअसल उस साक्षात्कार में एक तरह से हिंदुत्व ब्रिगेड से जुड़े किसी सदस्य द्वारा दंगों में अपनी कथित सीधी संलिप्तता की बात को कबूला गया था, जिसमें दो हजार से अधिक लोग मारे गए थे और लाखों लोग अपने घरों से विस्थापित हुए थे.

उन्होंने संवाददाता को बताया था कि ‘28 फरवरी की सुबह ही अहमदाबाद में मुसलमानों के मिल्कियत वाले दुकानों की सूची तैयार की गई थी.’(“the list of shops owned by Muslims in Ahmedabad was prepared on the morning of 28 February itself.”)

टेप किए उस साक्षात्कार में उन्होंने साफ बताया कि ‘सुबह ही हम लोग बैठे थे और हम लोगों ने सूची तैयार की थी, हम लोग पहले से तैयार नहीं थे.’

जब साक्षात्कारकर्ता ने उनसे पूछा कि आखिर ऐसा उन्होंने क्यों किया तो उनका जवाब था कि ‘उसे किया जाना था, उसे किया ही जाना था. हमें वह पसंद नहीं था, मगर हम जबरदस्त गुस्से में थे…’( “It had to be done, it had to be done. We don’t like it, but we were terribly angry…”)

जब उनसे आगे पूछा गया कि उनके जैसा विद्वान और साहित्यकार मासूमों के जलाए जाने को किस तरह सही ठहरा सकता है, उनका जवाब था ‘युवाओं ने कुछ गलत चीजें की होंगी, जो हमें पसंद नहीं हैं. हम उनका समर्थन नहीं करते हैं. मगर हम उनकी निंदा नहीं कर सकते क्योंकि वह हमारे बच्चे हैं.’ (“The youngsters have done some things which we don’t like. We don’t support it. But we can’t condemn it because they are our boys.”)

निसंदेह अगर हिंदुत्व के कुनबे के लोग सूबे में हुकूमत में नहीं होते तो जनाब केका शास्त्री को अपने उस साक्षात्कार के लिए कानूनी जोखिमों का सामना करना पड़ता और मुमकिन है बाकी उम्र सलाखों के पीछे गुजारनी पड़ती.

याद रहे भारतीय दंड विधान में ऐसे तमाम प्रावधान हैं जिनके तहत उन पर कार्रवाई हो सकती थी.

जैसे, भारतीय दंड विधान की धारा, दंगा फैलाने की नियत से भड़काऊ कार्रवाई करने के लिए (धारा 153), धर्म के आधार पर दो समुदायों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने के लिए (धारा 153 ए), राष्ट्रीय एकता को बाधा पहुंचाने वाले वक्तव्यों, बयानों (धारा 153 बी), ऐसे शब्दों का उच्चारण जिनके जरिए दूसरे व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को आहत करना (धारा 298), सार्वजनिक शांति व्यवस्था को बाधित करने वाले वक्तव्य (धारा 505 (1), बी और सी) और अलग-अलग तबकों के बीच नफरत, दुर्भावना और दुश्मनी पैदा करने वाले वक्तव्य (धारा 505/2) आदि विभिन्न सेक्शन्स में उन्हें सजा सुनायी जा सकती थी.

भारतीय दंड विधान की सेक्शन 153 ए या बी का किसी व्यक्ति द्वारा किया जा रहे उल्लंघन के खिलाफ कार्यकारी दंडाधिकारी को कार्रवाई शुरू करने का अधिकार है.

आलम तो यह था कि उन्हें अपने वक्तव्यों के लिए पुलिस स्टेशन तक नहीं बुलाया गया. साक्षात्कार में उन्होंने इसी बात को रखा था जिसको अमली जामा बाकी लोग पहना रहे थे.

केका शास्त्री प्रसंग से एक और बात स्पष्ट होती है. अपने हाथों में सत्ता आने के बाद हिंदुत्व वर्चस्ववादी संविधान के सिद्धांतों एवं मूल्यों से पूरी तौर पर विपरीत आचरण करने में संकोच नहीं करते, भले आए दिन वह उसकी हिफाजत का पहाड़ा पढ़ते हो.

कुछ माह पहले का कठुआ बलात्कार एवं हत्या के मामले को देखें जब आठ साल की एक खानाबदोश समुदाय से जुड़ी बच्ची का अपहरण किया गया, उसे कई दिनों तक नशे में रखा गया और बार-बार मंदिर परिसर में उसके साथ बलात्कार होता रहा. बाद में उसकी हत्या भी कर दी गई.

मकसद यही था कि कठुआ से मुसलमान खानाबदोशों को निकाल दिया जाए. अपनी केसरिया रुझानों के लिए कुख्यात लोगों द्वारा अंजाम दिए गए इस कारनामे के बाद बलात्कारियों को बचाने के लिए जम्मू में रैलियां हुई थीं, जिसमें भाजपा के कई राज्यमंत्री शामिल हुए थे.

या हम आदित्यनाथ की अगुवाई वाली भाजपा सरकार को देखें जिसने हुकूमत संभालते ही 2013 के मुजफफरनगर दंगों के 131 आपराधिक मामलों को वापस लेने की कोशिश शुरू की थी जो ऐसे मामले थे जिनमें 60 लोग मारे गए थे और चालीस हजार लोग विस्थापित हुए थे.

जिन मामलों को वापस लेने की बात थी उनमें हत्या और हत्या की कोशिशों के दो दर्जन मामले थे और आगजनी, दंगा करना, डकैती, विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाना जैसे दर्जनों मामले थे.

याद कर सकते हैं कि उनके दो वरिष्ठ नेता संगीत सोम और सुरेश राणा मुजफ्फरनगर के दंगों में उनकी कथित भूमिका के चलते उन दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के प्रावधानों के तहत गिरफ्तार भी किए गए थे.

जनाब सोम पर यह आरोप था कि उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर एक वीडियो साझा किया था जिसने इलाके में तनाव पैदा किया था तो जनाब राणा को हिंसा भड़काने में उनकी कथित भूमिका के लिए गिरफ्तार किया गया था.

2013 में आगरा में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की रैली के पहले उन्हें भाजपा की तरफ से ‘नायक’ के तौर पर सम्मानित भी किया गया था जिन्होंने ‘हिंदुओं की सुरक्षा को सुनिश्चित किया था.’

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और शामली जिले के जिला प्रशासन ने 2013 के दंगों के इन 131 मामलों को वापस लेने से इनकार किया. इन दोनों जिलों के जिला मजिस्ट्रेट, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) और अभियोजन अधिकारियों ने ‘प्रशासनिक सरोकारों’ को रेखांकित करते हुए सरकार को यह लिखा कि वह इन मामलों को वापस लेने के पक्ष में नहीं है.

निश्चित तौर पर इन दोनों जिलों के पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों के इस रुख ने योगी सरकार की कोशिशों को फौरी झटका लगा हो, मगर वह अस्थायी ही साबित हो सकता है. यह संभावना हमेशा ही बनी रहेगी कि कुछ रूटीन तबादलों के बाद राज्य सरकार अपने प्रस्ताव पर मुहर लगाने में सफल रहे.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)

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