अदाकार वही है जो गांधी का भी रोल कर ले और विलेन का भी: नीरज कबि

फिल्म शिप ऑफ थिसियस, मॉनसून शूटआउट, डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी, तलवार, वेब सीरीज़ सेक्रेड गेम्स और हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ फिल्म वंस अगेन में मुख्य भूमिका में नज़र आए अभिनेता नीरज कबि से प्रशांत वर्मा की बातचीत.

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अभिनेता नीरज कबि. (फोटो साभार: फेसबुक/Neeraj Kabi)

फिल्म शिप ऑफ थिसियस, मॉनसून शूटआउट, डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी, तलवार, वेब सीरीज़ सेक्रेड गेम्स और हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ फिल्म वंस अगेन में मुख्य भूमिका में नज़र आए अभिनेता नीरज कबि से प्रशांत वर्मा की बातचीत.

अभिनेता नीरज कबि. (फोटो साभार: फेसबुक/Neeraj Kabi)
अभिनेता नीरज कबि. (फोटो साभार: फेसबुक/Neeraj Kabi)

अभी आपकी फिल्म वंस अगेन नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई. सिनेमाहाल में फिल्म के रिलीज़ होने के बाद उसकी कमाई से उसके हिट या फ्लॉप होने का पता चल जाता है, लेकिन आॅनलाइन प्लेटफॉर्म पर जब फिल्म रिलीज़ होती है तो हिट या फ्लॉप कैसे पता चलता है?

इसमें हिट या फ्लॉप का पता करना ज़रा मुश्किल बात है, क्योंकि हमें पता नहीं चलता है कि कितने लोग इसे देख रहे हैं. जब हम इसकी चर्चा फेसबुक पर देखते हैं तभी हमें पता चलता है. मैंसेजेज या फिर लोग कॉल करके अपनी प्रतिक्रियाएं देते हैं.

मेरे ख़्याल ये आजकल फेसबुक, ट्विटर जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं, उसके ज़रिये हमें पता चलता है. मेरा जितना भी काम है, वो चाहे अमेज़ॉन पर है या नेटफ्लिक्स पर, मुझे दर्शकों की प्रतिक्रिया ऐसे ही पता चलती है कि लोग इसे पसंद कर रहे हैं.

बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का तो नहीं पता चलता है, ये बात तो नेटफ्लिक्स वाले जानते हैं, क्योंकि वे पूरी फिल्म को ख़रीद लेते हैं.

नेटफ्लिक्स और अमेज़ॉन जैसे आॅनलाइन प्लेटफॉर्म पर फिल्में रिलीज़ होने से क्या इसका कोई असर सिनेमाघरों पर पड़ेगा या पड़ सकता है?

ये दोनों बिल्कुल अलग माध्यम हैं. इनकी अपनी-अपनी ज़िंदगी है और इनका रास्ता अलग-अलग हैं. कोई किसी पर हावी नहीं होगा. मेरे ख़्याल से अभी आपको ऐसा लग रहा है कि वेब, जो नेटफ्लिक्स या अमेज़ॉन है वो पूरी तरह से छाया हुआ है, लेकिन चंद महीनों में या एक-आध साल के अंदर आप देखेंगे की वही स्थिति वापस आ जाएगी.

सबके अपने-अपने रास्ते हैं. कोई किसी के आड़े नहीं आने वाला. ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि दोनों माध्यम बिल्कुल अलग-अलग हैं. दोनों के कंटेंट अलग होने वाले हैं, दोनों माध्यमों में शूटिंग का तरीका अलग होने वाला है.

आप वेब पर फिल्म कंटेंट को नहीं डाल सकते हैं. एक फिल्म का मज़ा आप (वेब) उस पर नहीं ले सकते हैं. अगर आपके पास होम थियेटर हो तो ही आप इस चीज़ का मज़ा ले पाएंगे.

हमारी ये फिल्म सिनेमाघर में रिलीज़ होने वाली फिल्म की तरह बनी है. हम ये देखना चाह रहे हैं कि इसके लोग किस तरह से देख रहे हैं.

अपनी फिल्म वंस अगेन की कहानी के बारे में कुछ बताइए. इसे दर्शकों की कैसे प्रतिक्रिया मिल रही है?

फिल्म वंस अगेन में अभिनेता नीरज कबि और अभिनेत्री शेफाली शाह. (फोटो: लाउडस्पीकर मीडिया)
फिल्म वंस अगेन में अभिनेता नीरज कबि और अभिनेत्री शेफाली शाह. (फोटो: लाउडस्पीकर मीडिया)

अब तक तो अच्छी प्रतिक्रियाएं मिली हैं. अमर एक फिल्म स्टार हैं और तारा एक रेस्टोरेंट चलाती हैं और अमर के लिए खाना बनाती है. दोनों के बच्चे हैं. जिसे हम मिडल एज रोमांस कहते हैं, ये अमर और तारा के बीच शुरू हो जाता है. ये जो सिलसिला शुरू होता है, यही फिल्म की कहानी है.

जैसे आप रोमांटिक कहानियां देखते हो, ये उस तरह से रोमांचक नहीं है, जहां नाच-गाने होते हैं, ये वो नहीं है. ये एक अलग किस्म की कहानी है, जिसमें एक अलग किस्म की चाहत है, ये आम फिल्मों में देखने को नहीं मिलती है.

और इस फिल्म का कोई अंत भी नहीं है. जैसे आख़िर में जाकर दोनों बिछड़ गए या मिल गया, ऐसा कुछ नहीं होता है.

फिल्म की थीम खाना है. रेस्टोरेंट चलाने वाली तारा, अभिनेता अमर के लिए खाना बनाती हैं और दोनों को प्यार हो जाता है. इसी तरह इरफ़ान ख़ान की फिल्म लंचबॉक्स भी थी. लोग इसकी तुलना लंचबॉक्स से भी कर रहे हैं. इस पर क्या कहेंगे?

नहीं-नहीं. कोई तुलना नहीं है दोनों की. लंचबॉक्स अलग फिल्म थी और ये अलग फिल्म है. केवल एक ही तुलना है और वो खाने को लेकर है. दोनों की आप तुलना नहीं कर सकते. दोनों में अलग-अलग एहसास है.

काफी लोग हमसे ऐसा बोल रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है. बस खाना ही में कॉमन फैक्टर है.

1997 में आप द लास्ट विज़न में भारतीय सिनेमा में क़दम रखा था. उसके बाद एक लंबे समय तक आप बड़े पर्दे से गायब रहे. इसके बाद 2013 में आप शिप ऑफ थिसियस में नज़र आते हैं. इतने समय बाद फिल्म क्यों की और हिंदी सिनेमा अब तक के सफ़र के बारे में बताइए?

यात्रा तो मैं ऐसे नहीं बता सकता. ये बहुत लंबी यात्रा है, ये पूरी राम कहानी, ये मैं नहीं बता सकता लेकिन आया था मैं 1997 में उसके बाद यहां तक आने के लिए इतने साल लग गए.

मेरी शुरुआत भी यहां पर काफी लेट हुई है. आम तौर पर 25 से 30 साल में लोग शुरू कर देते हैं. मेरे ख़्याल में मेरी शुरुआत 42 साल की उम्र में हुई, जब मैंने शिप ऑफ थिसियस किया था.

1997 में एके पीर नाम के ओडिशा के एक निर्देशक थे, बहुत ही सीनियर निर्देशक हैं. उन्होंने उड़िया में एक फिल्म बनाई थी द लास्ट विज़न. ये मेरी पहली फिल्म थी.

उसके बाद एक लंबा अरसा ऐसा रहा जब कोई काम नहीं था तब थियेटर करता रहा, सिर्फ इंडस्ट्री में सरवाइव करने के लिए. जब आप मुंबई आते हैं तो परिवार के साथ रहना आसान नहीं होता.

ऐसे में सरवाइव करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ा. अब उन बातों में मैं जा नहीं सकता क्योंकि वो मेरी निजी कहानी है और वही मेरी ताकत है और उसे मैं बयां नहीं कर सकता.

फिल्म शिप आॅफ थिसियस में अभिनेता नीरज कबि. (फोटो साभार: IMDb)
फिल्म शिप ऑफ थिसियस में अभिनेता नीरज कबि. (फोटो साभार: IMDb)

फिर काफी सालों बाद 2010 एक फोन कॉल आया. ये फोन आनंद गांधी का था. उन्होंने कहा कि फिल्म बना रहा हूं शिप ऑफ थिसियस और मैं चाहता हूं आप आएं, इसको पढ़ें. उसके बाद से एक नई शुरुआत हुई जो अब तक देखते आ रहे हैं.

आपने थियेटर में एक लंबा वक़्त गुज़ारा है और उसके बाद सिनेमा में आए. थियेटर और सिनेमा में अभिनय के बारे में क्या कहेंगे?

दोनों ही माध्यमों में मुझे मज़ा आता है. दोनों ही माध्यम अलग-अलग होते हैं. थियेटर का जो फायदा होता है वो ये हैं कि आप एक लीनियर फॉमेट (क्रमिक) में कहानी को समझ सकते हैं.

शुरुआत से अंत तक आप क्रमिक रूप से दर्शकों के सामने पेश करते हैं, लेकिन फिल्म में ऐसा नहीं होता. जैसे आज आप सीन 57 कर रहे हैं तो कल आप सीन वन कर रहे होंगे, परसों आप सीन 125 कर रहे होते हैं.

थियेटर का फायदा ये है कि स्क्रिप्ट की समझ ज़्यादा होती है. आप एक-एक चीज़ को समझ पाते हैं. एक-एक चीज़ को आप बार-बार दोहराते हैं. तब आपको पता चलता है कि किरदार क्या है और कहानी क्या है.

फिल्म में ऐसी बात नहीं होती. आप आते हैं और तुरंत आप शूट करना शुरू कर देते हैं. उसकी तैयारी आपको करके आनी पड़ती है. तैयारी के जो तरीके होते हैं, ये आप थियेटर से सीखते हैं. थियेटर हमेशा नींव रहेगा.

फिल्म मॉनसून शूटआउट, डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी और फिर वेब सीरीज़ सेक्रेड गेम्स में आप नकारात्मक चरित्रों में नज़र आए. एक ही तरह के चरित्र निभाने से कलाकार के टाइपकास्ट होने का ख़तरा नहीं होता?

देखिए, आपको इंडस्ट्री कहीं न कहीं टाइपकास्ट कर ही देती है. हालांकि ये आपके ऊपर है कि इन किरदारों को जिनको आप निगेटिव कहते हैं, उन्हें किस तरह से निभाते हो. अगर आप देखें तो डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी का डॉ. अनुकूल गुहा वो नहीं है जो आप मॉनसून शूटआउट के विलेन में देखते हैं.

और मॉनसून शूटआउट का विलेन भी वो नहीं है जो आपने तलवार फिल्म में देखा है. अभी एक फिल्म मनोज बाजपेयी के साथ आई है, गली गुलियां… उसका किरदार अलग है. हालांकि है वो भी विलेन लेकिन उसका किरदार एकदम अलग है.

तो किरदारों के जो अलग-अलग शेड्स हैं वो आप स्क्रीन पर पेश करते हो. एक कलाकार के रूप में यही आपकी कला है. विलेन का रोल आप लगातार कर रहे हो तो आप एक ही चीज़ को बार-बार कर सकते हो. जैसे- एक ही तरह की चाल, एक ही तरह की आवाज़ या एक ही तरह से हंसना, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए.

ये अभिनय नहीं है और फिर न तो आप कलाकार हो. तब तो आप ख़ुद अपने आपको टाइपकास्ट कर देते हो. तो लोग समझते हैं कि आप सिर्फ यही कर सकते हो, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए.

एक कलाकार कभी भी पकड़ में नहीं आता, इसीलिए हम उसे अभिनेता कहते हैं. आप उसे पकड़ ही नहीं पाओगे कि ये वही है जो उस फिल्म में था.

श्याम बेनेगल के निर्देशन में बने धारावाहिक संविधान में नीरज कबि ने गांधी का किरदार निभाया था. (फोटो साभार: फेसबुक/Neeraj Kabi)
श्याम बेनेगल के निर्देशन में बने धारावाहिक संविधान में नीरज कबि ने गांधी का किरदार निभाया था. (फोटो साभार: फेसबुक/Neeraj Kabi)

जैसे- आप शिप ऑफ थिसियस देखें, उसके बाद श्याम बेनेगल साहब की टीवी सीरीज़ संविधान देखें, जिसमें मैंने गांधी का रोल किया है, फिर ब्योमकेश बक्शी देखिये, फिर तलवार फिल्म देखिये तो आपको इन किरदारों में एक अलग विस्तार दिखेगा.

आपको ये पकड़ना मुश्किल हो जाता है कि ये वही एक्टर है जिसने गांधी किया और अब वोब्योमकेश बक्शी में विलेन का रोल भी कर रहा है. आप नहीं पकड़ पाएंगे.

एक अभिनेता का पेशा होता है कि हर फिल्म में वो वैसा नहीं दिखे जैसा किसी दूसरी फिल्म में दिखा था. दिखने का मतलब मेकअप करके नहीं… आप ख़ुद को रूपांतरित करते हो… बदलते हो एक किरदार से दूसरे किरदार तक.

ये जो यात्रा होती है, उसे हम अभिनय कहते हैं. अ जर्नी ऑफ ट्रांसफॉरमेशन (रूपांतरण). और उस एहसास को दर्शकों तक लेकर जाना, उन्हें उस एहसास को महसूस करवाना, वहीं एक अदाकार का काम होता है.

मैं जो महसूस कर रहा हूं, क्या उसे दूसरे को भी महसूस करवा सकता हूं या नहीं. उस एहसास का दर्शकों तक लेकर जाने को ही हम अभिनय कहते हैं.

सेक्रेड गेम्स में जिस तरह का कंटेंट था, जैसे हिंसा के दृश्य, डायलॉग और न्यूड सींस तो क्या आज के समय में उस तरह से सिनेमा बनाया जा सकता है?

देखिये, सिनेमा में एक फायदा ये होता है कि आप शुरुआत से अंत दो घंटे में कर सकते हैं. वेब सीरीज़ में आठ या दस एपिसोड होते हैं, एक घंटे का एक एपिसोड. उसका एक अलग मज़ा है.

मेरे ख़्याल में सिनेमा का जो मज़ा है लोग अभी वेब सीरीज़ में भी ढूंढ रहे हैं. जैसे एक बैठक में सारे एपिसोड देख जाना. वेब में आपको आठ से 10 घंटे मिल जाते हैं कहानी को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए. फिल्म में आपको सिर्फ दो घंटे ही आपको सारी बातें कहनी पड़ती हैं.

अभी ये शुरुआत है, इन पर चर्चा करने का ये वक़्त नहीं हैं, इन्हें थोड़ा वक़्त देना चाहिए. अभी ये कहना मुश्किल है कि भविष्य में सिनेमा कैसा रहेगा या वेब सीरीज़ कैसा रहेगा.

वेब सीरीज़ को थोड़ा वक़्त देना होगा.

मेरा मतलब है अगरसेक्रेड गेम्स  पर फिल्म बनाई जाती तो वो शायद सेंसर बोर्ड से पास ही नहीं हो पाती.

पता नहीं, ये कहना थोड़ा मुश्किल काम है. जब तक किसी ने ऐसा बनाया नहीं हो तब तक आप उस पर चर्चा नहीं कर सकते हो. जैसे अब जब लोग सेक्रेड गेम्स को देख चुके हैं तब आप उस पर फिल्म बनाएं तो लोग पक्का उसे देखने जाएंगे.

सेक्रेड गेम्स में जैसा कंटेट और डायलॉग है, क्या उसी के साथ रिलीज़ हो सकती है फिल्म?

वो स्वतंत्रता आप नहीं ले सकते हैं, जो वेब सीरीज़ में ले लेते हो. सेक्रेड गेम्स में जिस तरह के डायलॉग हैं, जिस तरह के अश्लील शब्दों का आप इस्तेमाल करते हैं, वो स्वतंत्रता आपको वेब सीरीज़ में मिल जाती है, क्योंकि वहां पर सेंसरशिप नहीं है. वो आप फिल्म में नहीं कर सकते हैं.

आरुषि तलवार हत्याकांड से प्रेरित फिल्म तलवार ने अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा के साथ नीरज कबि. (फोटो साभार: यूट्यूब/जंगली पिक्चर्स)
आरुषि तलवार हत्याकांड से प्रभावित फिल्म तलवार में अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा के साथ नीरज कबि. (फोटो साभार: यूट्यूब/जंगली पिक्चर्स)

कई दृश्यों को आप यहां फिल्मों में नहीं कर सकते हैं क्योंकि फिल्मों पर सेंसरशिप है. यही एक फ़र्क़ है और कोई फ़र्क़ नहीं हैं. अदाकारी की अगर बात की जाए तो उसमें कोई फ़र्क़ नहीं है. मैं ये सोचकर परफॉर्म नहीं करता कि ये फिल्म के लिए कर रहा हूं और वो वेब सीरीज़ के लिए.

आने वाले समय में दर्शक आपको और किन रूपों में देख सकेंगे?

दो और फिल्में आ रही हैं. एक फिल्म हैं, द फील्ड. यह एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म है, अभय देओल और रोनित रॉय के साथ. ये एक गैंगस्टर फिल्म है. इसमें मेरा काफी बड़ा किरदार है. ये भी एक तरह का निगेटिव किरदार है, लेकिन मैं इसे निगेटिव या पॉजीटिव की तरह नहीं देखता.

मेरे लिए किरदार… किरदार होता है. चाहे वो निगेटिव हो या पॉजीटिव उसके कई सारे शेड्स होते हैं. एक हीरो में भी निगेटिव शेड्स होते हैं अगर वो हीरो उसे दर्शा सकता है तो उसे हम अदाकार कहते हैं.

इसके अलावा विलेन में जो पॉजीटिव शेड्स हैं, वो भी अगर विलेन दिखा पाएगा तो उसे हम अदाकार कहेंगे. अगर आप विलेन हैं और सिर्फ नकारात्मकता दिखा रहे हैं लेकिन ऐसा आम तौर पर ऐसा नहीं होता.

आप अगर देखें, जिन्हें हम खलनायक कहते हैं तो वो भी इंसान होते हैं. उनकी अच्छी बातें भी होती हैं जिन्हें दर्शाना आपका काम होता है.

इसके अलावा एक फिल्म गौतम घोष के साथ है, वन डे इन अ रेन. ये आदिल हुसैन के साथ है. दोनों फिल्में पोस्ट प्रोडक्शन में हैं.

अगर सेक्रेड गेम्स में इंस्पेक्टर परुलकर के किरदार की बात की जाए तो इसके लिए क्या और कैसी तैयारियां करनी पड़ी थीं?

इस वेब सीरीज़ की कहानी इसी नाम की एक किताब पर आधारित है, आप जानते होंगे, जिसे विक्रम चंद्रा ने लिखा है. इस किरदार की तैयारी में रिसर्च के तौर पर उस किताब से मुझको बहुत कुछ मिला.

मैं इसे पूरा तो पढ़ नहीं पाया लेकिन काफी सारा मैंने पढ़ लिया है, जिससे काफी मदद मिली, परुलकर के किरदार को बनाने के लिए. इसके बाद मॉनसून शूटआउट फिल्म के दौरान मैंने जो रिसर्च की थी, वो भी बहुत काम आया.

उसमें भी इंस्पेक्टर का किरदार है. आप इसके लिए पुलिसवालों की ज़िंदगी है, उसमें झांकते हो. उसके साथ आप रहते हैं, देखते हैं, उनसे बातें करते हैं, ये जानने के लिए कि उनकी निजी ज़िंदगी में क्या-क्या होता है.

ये सब मैं पहले ही कर चुका था और इस किताब से काफी कुछ जानने को मिला. अगर आप परुलकर की शारीरिक वास्तविकता को देखेंगे तो जैसे एक नाशपाती होता है, उस बनावट का वो इंसान है, उसका पेट का हल्का सा बड़ा हुआ होता है. ये बात किताब में लिखी गई है कि परुलकर का शरीर नाशपाती की तरह होता है.

सेक्रेड गेम्स में इंस्पेक्टर परुलेकर के किरदार में अभिनेता नीरज कबि.
सेक्रेड गेम्स में इंस्पेक्टर परुलकर के किरदार में अभिनेता नीरज कबि.

अब जैसे परुलकर का सबऑर्डिनेट ऑफिसर उसके केबिन से जाने लगता है तो वो बार-बार टोकता है. मतलब वो पावर का भूखा नहीं है, लेकिन कुछ बातें हैं जो वो मानता है अनुशासन के तौर पर.

जैसे अगर आप जूनियर हैं या सबऑर्डिनेट हैं तो सीनियर को सलाम करना ज़रूरी होता है. और वो अपने सबआॅर्डिनेट के साथ वैसा पेश भी नहीं आता तो लोग उसे बहुत हल्के में लेते भी हैं, जिसे वो बर्दाश्त नहीं कर सकता है.

हालांकि वो भ्रष्ट है लेकिन उसमें एक तरह का अनुशासन भी है. अगर आप देखें तो वो गंदा इंसान नहीं है. वो सड़क पर पान थूकता हुआ पुलिस ऑफिसर नहीं है. या औरतों को लेकर जाना या मर्डर करना, ये सब वो नहीं करता.

उसकी अपनी एक मर्यादा भी है और मर्यादा के साथ वो भ्रष्ट है. इस तरह की अदाकारी करने में थोड़ी मुश्किल होती है. आप उसी इंसान को जब हीरोइन के साथ देखेंगे तो वो उसके साथ बिल्कुल जेंटलमैन है. एक पढ़ा-लिखा इंसान है. अदब है उसमें, अदाएं हैं उसमें.

और जब वो गायतोंडे को पीटता है तो बिल्कुल अलग इंसान बन जाता है, राक्षस बन जाता है. जब आप अपने किरदारों में ये शेड्स लाते हो तब काम का मज़ा आता है.

तब आप उसे पकड़ नहीं पाते. आप सोचते हो कि ये विलेन है लेकिन औरतों के साथ अच्छी तरह पेश आता है. जब आपको लगता है कि बड़ा अच्छा आदमी है तब वह किसी को बेरहमी से पीट रहा होता है.

ये भी नहीं कि डंडे से पीट रहा है, वो तो गायतोंडे के साथ क्रिकेट खेल रहा होता है. उसको क्रिकेट बैट से कितना पीटता है तो ये पागलपन भी उसके अंदर है. तो सकारात्मक या नकारात्मक किरदार कुछ नहीं होते, दोनों रंगों को जो अपने किरदार में दर्शाता है वो अदाकार होता है.

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