गोरक्षा के लिए राष्ट्रीय कानून बनाने की भागवत की मांग डरावनी है

उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की व्याख्या आरएसएस ने गोरक्षा और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे अपने पुराने वैचारिक मुद्दों को उठाने के लिए मिली हरी झंडी के तौर पर की है.

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संघ प्रमुख मोहन भागवत. (फोटो: रॉयटर्स)

उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की व्याख्या आरएसएस ने गोरक्षा और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे अपने पुराने वैचारिक मुद्दों को उठाने के लिए मिली हरी झंडी के तौर पर की है.

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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने गोरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय कानून बनाने की मांग की है. संभल कर कहा जाए, तो भी इस मांग के लिए समय का चयन डरावना है. यह बयान तब आया है, जब राजस्थान में गोरक्षा निगरानीकर्ताओं की अनियंत्रित हिंसा में एक बेकसूर मुस्लिम दुग्ध उत्पादक पहलू खान की हत्या की खबर अभी ताजा ही है.

भागवत के बयान से पहले राजस्थान के गृहमंत्री ने इसे हत्या मानने से ही इनकार कर दिया और इस घटना के लिए ‘दोनों पक्षों’ को कसूरवार ठहराया. उनके बयान से पहले केंद्र सरकार ने राजस्थान सरकार से इस हिंसा की सत्यता जांचने का आदेश दिया, इस बात पर ज्यादा ध्यान दिये बगैर कि मीडिया के पास इस घटना के चित्र और वीडियो, दोनों थे.

किसी को यह उम्मीद नहीं थी वैकल्पिक तथ्यों की संभावना संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा तक इतनी आसानी से पहुंच सकती है. शुरुआत में राज्यसभा में भाजपा के मुस्लिम कवच मुख्तार अब्बास नक़वी ने ऐसी किसी घटना के होने से ही इनकार कर दिया.

24 घंटे के बाद नक़वी ने यह माना कि इस तरह की कोई घटना हुई है और आश्वासन दिया कि गृह मंत्रालय सदन में पूरी रिपोर्ट पेश करेंगे. जाहिर तौर पर इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सोची-समझी चुप्पी साध रखी है.

केंद्र और राजस्थान सरकार के वाक छल को देखते हुए भागवत की मांग का समय असंवेदनशील होने के साथ-साथ अनुचित भी नजर आता है. गाय सतर्कता के नाम पर हिंसा की रस्मी निंदा के बाद संघ प्रमुख ने विचारधारा से जुड़े मुख्य प्रश्न पर आते हुए गोवध के खिलाफ एक राष्ट्रीय कानून बनाने की मांग कर डाली.

गौरतलब है कि कई राज्य पहले ही इस संबंध में कानून लागू कर चुके हैं. हाल ही में गुजरात में गोवध की सजा बढ़ाकर आजीवन कारावास कर दी गयी है. भागवत की मांग का सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि आने वाले समय में संघ परिवार गोरक्षा के मुद्दे को और प्रमुखता देने वाला है और इसे अनवरत ढंग से राष्ट्रीय स्तर पर उठाने वाला है.

उत्तर प्रदेश में भाजपा की चकित कर देने वाली जीत की व्याख्या आरएसएस ने गोरक्षा और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे अपने पुराने वैचारिक मुद्दों को उठाने के लिए मिली हरी झंडी के तौर पर की है. राजनीतिक वर्ग को इसका जवाब देना होगा.

1925 में आरएसएस के गठन से कहीं पहले से गोरक्षा और गाय की पवित्रता का इस्तेमाल हिंदू राष्ट्रवाद की भावना को जगाने के लिए किया जाता रहा है. महात्मा गांधी ने इस आंदोलन के नेताओं को यह तर्क देकर समझाने की कोशिश की थी कि वे भी एक धर्मपरायण हिंदू हैं और गोरक्षा के पक्ष में हैं, लेकिन मुस्लिमों पर हमला करके इस उद्देश्य को पूरा नहीं किया जा सकता.

गांधी ने कहा था कि गोरक्षा अभियान प्रेम और मनुहार के बल पर चलाया जाना चाहिए. जाहिर है, गांधी उग्रपंथी हिंदू ताकतों को मनाने की कोशिश कर रहे थे ताकि उनकी शक्ति अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में लगाई जा सके और उन्हें असहयोग आंदोलन से जोड़ा जा सके. दक्षिणपंथी हिंदुत्व को मुख्यधारा में लाने के मकसद से गांधी 1915 में हरिद्वार में हिंदू महासभा के उद्घाटन में भी शामिल हुए थे.

यह भी सही है कि उग्र हिंदू दक्षिणपंथ को मुख्यधारा में शामिल करने की उनकी कोशिश 1922 में उनकी गिरफ्तारी के बाद असफल हो गयी गयी, जब हिंदुत्व के कई नेताओं ने खिलाफत आंदोलन के मुस्लिम नेताओं को गांधी के समर्थन को बहाना बनाकर अपना रास्ता अलग कर लिया.

1925 में केबी हेडगेवार द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का एक आधार यह भी बना. इसके बाद गोरक्षा और राष्ट्रवाद से इसके जुड़ाव के मुद्दे को काफी बढ़ावा मिला. इसलिए भागवत द्वारा गोरक्षा के लिए राष्ट्रीय कानून बनाने की मांग पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए.

संघ परिवार अपने केंद्रीय मुद्दों पर दशकों तक टिके रहने के लिए जाना जाता है. साधु समाजों जैसे असंगठित समूहों के साथ संगठित हिंदू दक्षिणपंथ (आरएसएस और भाजपा) के रिश्तों का एक खास पैटर्न रहा है. रणनीतियों को लेकर हिंदू दक्षिणपंथ की संगठित और असंगगठित इकाइयों के बीच एक तालमेल रहा है.

यह याद दिलाया जा सकता है कि पिछले साल संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान हजारों साधु संसद का घेराव करने के मकसद से राजधानी दिल्ली में जमा हुए थे. वे गोवध के खिलाफ राष्ट्रीय कानून की मांग कर रहे थे. वे संसद तक पहुंचने के लिए पूरी तरह से तैयार थे, लेकिन आखिरी क्षण में उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया. सवाल है, ऐसा कैसे हुआ?

यह कयास लगाना अतार्किक नहीं होगा कि उन्हें कुछ ठोस वायदे करके उन्हें मनाया गया होगा. जाहिर है संसद के बाहर उनके हिंसक प्रदर्शन से मोदी सरकार को अकल्पनीय शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता. आप याद कर सकते हैं कि 1966 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने के भीतर ही साधु समाज ने इसी तरह संसद का घेराव किया था.

इस प्रदर्शन ने हिंसक रूप अख्तियार कर लिया था, और सरकार को साधुओं के जत्थों को पीछे धकेलने सेना बुलानी पड़ी थी. इस क्रम में हुई फायरिंग में कई लोगों की जानें चली गयीं. प्रदर्शनकारियों ने कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज के घर में भी आग लगा दी थी.

हम इस बात के लिए निश्चिंत रह सकते हैं कि जब तक भाजपा केंद्र की सत्ता में है, तब तक हिंदूवादी ताकतों द्वारा 1966 जैसा कोई हिंसक जन प्रदर्शन नहीं होगा. इसका कारण है कि संगठित दक्षिणपंथ और असंगठित उग्रवादी हिंदुत्व तत्व के बीच एक एक ढीला-ढाला सा तालमेल है.

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राजस्थान के अलवर में मुस्लिम दुग्ध उत्पादक पहलू खान की पिटाई करते कथित गोरक्षक

हाल ही में अजमेर ट्रेन ब्लास्ट मामले में आरएसएस के पूर्व प्रचारकों को मिली सजा इसका सबूत है. आग को सुलगाए रखने और कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए गोरक्षा के नाम पर व्यक्तियों या समूहों के खिलाफ छिटपुट हिंसा आने वाले समय में जारी रहेगी. हम अभी ढीले-ढाले ढांचे वाले कट्टरपंथी तत्वों द्वारा ‘नियंत्रित हिंसा’ का दौर देख रहे हैं.

संगठित समूह फिलहाल अभी तक इसे नकारने की कोशिश कर रहे हैं. भाजपा नेतृत्व वाली राज्य सरकारों ने अब तक संघ परिवार की केंद्रीय विचारधारा से जुड़े आंदोलनों से संबद्ध हिंसा, चाहे वह दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या का मामला हो या राजस्थान में पहलू खान की हत्या का मामला हो, के प्रति नरमी का प्रदर्शन किया है.

यह भी साफ हो चुका है कि प्रधानमंत्री ने भी एक तरह से अपने मौन के द्वारा इन सबके प्रति अपने नरम रवैये का इजहार किया है. उनके लिए अपने गर्भनाल को काटना नामुमकिन है. और उन्हें यह करने की जरूरत भी क्या है, जब इसी व्यवस्था ने उन्हें आज इस मुकाम तक पहुंचाया है. यही वह बिंदु है जहां सरकार से सहानुभूति रखनेवाले टिप्पणीकारों की दृष्टि धुंधला जाती है (जानबूझ कर या अनजाने में) जब वे यह तर्क देते हैं, ‘आदित्यनाथ को एक मौका जरूर देना चाहिए’.

जाहिर है, जैसा कि मोदी ने अतीत में किया है, आदित्यनाथ ‘विकास पुरुष’ के तौर पर नया अवतार ग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन, इससे व्यापक प्रवृत्ति, जिसे संघ की प्रणाली भी कहा जा सकता है, में कोई बदलाव नहीं होने वाला. मुख्यमंत्री बनने के एक हफ्ते के भीतर उन्होंने गोरखपुर में एक आयोजन की शोभा बढ़ाई.

इसमें उनके एक पुराने सहयोगी जो अयोध्या में दिगंबर अखाड़ा के प्रमुख भी हैं, ने राम मंदिर के निर्माण के लिए एक राष्ट्रीय कानून के निर्माण की मांग की. आदित्यनाथ इस मांग पर शांत रहे, जिसका अर्थ यही निकाला जा सकता है कि उन्होंने इसे अपना समर्थन दिया.

साधारण समझ रखने वाले किसी भी टिप्पणीकार के लिए ये बात आसानी से समझ में आने वाली है. फिर भी कुछ लोग ‘उन्हें एक मौका देने’ की बात कर सकते हैं.

वास्तव में यह कोई नही जानता कि आने वाले समय में कई राज्यों में भाजपा की पकड़ और मजबूत होने के बाद राष्ट्रीय कानून निर्माण को लेकर सरकार की प्राथमिकता किस तरफ जानेवाली है? हो सकता है कि हम विकास पुरुष को फिर किसी नए अवतार में देखें. वैसे क्या वास्तव में उन्होंने इसमें कभी बदलाव किया भी था?

यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि भारत में ‘गुलाबी क्रांति’ को रोकने का आह्वान और किसी ने नहीं, खुद प्रधानमंत्री ने 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान किया था. बाद में अमित शाह ने हमें बताया था कि हिंदुत्व और विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और बराबर हैं. यह दिखाया जा चुका है.

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