अगर मेरी किताबों में कोई तत्व नहीं है, तो इन्हें सालों से क्यों पढ़ाया जा रहा था: कांचा इलैया

दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एमए के पाठ्यक्रम से दलित लेखक और चिंतक कांचा इलैया शेपहर्ड की किताब हटाने के प्रस्ताव पर उनका कहना है कि विश्वविद्यालय अलग-अलग विचारों को पढ़ाने, उन पर चर्चा करने के लिए होते हैं, वहां सौ तरह के विचारों पर बात होनी चाहिए. विश्वविद्यालय कोई धार्मिक संस्थान नहीं हैं, जहां एक ही तरह के धार्मिक विचार पढ़ाए जाएं.

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साक्षात्कार: दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एमए के पाठ्यक्रम से लेखक और चिंतक कांचा इलैया शेपहर्ड की किताब हटाने के प्रस्ताव पर उनका कहना है कि विश्वविद्यालय अलग-अलग विचारों को पढ़ाने, उन पर चर्चा करने के लिए होते हैं, वहां सौ तरह के विचारों पर बात होनी चाहिए. विश्वविद्यालय कोई धार्मिक संस्थान नहीं हैं, जहां एक ही तरह के धार्मिक विचार पढ़ाए जाएं.

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कांचा इलैया शेपहर्ड (फोटो साभार: विकिपीडिया)

बीते दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय के पॉलिटिकल साइंस पाठ्यक्रम में शामिल लेखक और चिंतक कांचा इलैया शेपहर्ड की किताबों को हटाने का प्रस्ताव रखा गया. शैक्षणिक मामलों को देखने वाली विश्वविद्यालय की स्टैंडिंग कमेटी की पिछली बैठक में यह प्रस्ताव रखा गया कि इलैया की किताबें एमए पॉलिटिकल साइंस के पाठ्यक्रम से हटाई जाएं क्योंकि वे कथित तौर पर हिंदू धर्म का अपमान करती हैं.

इस समिति के सदस्य प्रोफेसर हंसराज सुमन का कहना था कि इस बैठक में कई स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के बारे में चर्चा हुई, साथ ही इलैया की किताबों को हटाने का फैसला लिया गया. उन्होंने कहा था कि हमने व्हाय आई एम नॉट अ हिंदू, गॉड एज़ पॉलिटिकल फिलॉसफर और पोस्ट-हिंदू इंडिया को हटाने का निर्णय लिया है क्योंकि वे हिंदू धर्म का अपमान करती हैं, हमें लगता है कि विद्यार्थियों का इन्हें पढ़ना उचित नहीं होगा.

स्टैंडिंग कमिटी के इस प्रस्ताव को एकेडमिक काउंसिल की मंज़ूरी के बाद ही लागू किया जा सकता है और इसकी बैठक 15 नवंबर से पहले होनी है. वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालय के शिक्षक इसके विरोध में उतर आये हैं.

इससे पहले भी अक्टूबर 2017 में भी इलैया की किताब पोस्ट-हिंदू इंडिया को लेकर विवाद हुआ था, जब इसका तेलुगू अनुवाद प्रकाशित हुआ था. किताब के एक लेख में आर्य-वैश्य यानी बनिया समुदाय को ‘सोशल स्मगलर’ (सामाजिक तस्कर) कहा गया था, जिसके बाद इलैया के ख़िलाफ़ इस समुदाय ने तीखा विरोध शुरू किया और उन्हें जान से मारने की धमकी मिली, साथ ही उन पर हमले की कोशिश भी की गई.

इसके बाद इस किताब पर प्रतिबंध लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर हुई थी, जिसे अदालत ने ने लेखक के अभिव्यक्ति के अधिकार का हवाला देते हुए ख़ारिज कर दिया था.

इस विवाद के बाद द वायर  से हुई बातचीत में उन्होंने कहा था कि धमकियों की बजाय तर्क से उनकी बात का जवाब दिया जाना चाहिए. उनका कहना था, ‘मैंने एक किताब लिखकर मेरी अभिव्यक्ति की आज़ादी का उपयोग किया है और उनके पास बौद्धिक विमर्श के ज़रिये इसका विरोध करने का अधिकार है.’

इस बार भी उनका यही कहना है कि अगर उनकी किताब में कुछ अपमानजनक है तो उस पर बात होनी चाहिए, बिना किताब पढ़े कोई भी निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए. कांचा इलैया से मीनाक्षी तिवारी की बातचीत.

बीते 10 सालों से आपकी किताबें दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ायी जा रही थीं, अब इन्हें एमए पाठ्यक्रम से हटाने का प्रस्ताव रखा गया है. इस पर क्या कहेंगे?

मेरी किताबों को हटाने की पहली कोशिश की जा चुकी है और यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और गैर-शैक्षणिक है. उनका कहना है कि मेरी किताबें डाटा पर आधारित नहीं हैं, संदर्भित नहीं हैं. इन्हें पढ़ने की बात छोड़िये, मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने मेरी किताबें देखी भी नहीं हैं.

गॉड एज़ पॉलिटिकल फिलॉसफर मेरी पीएचडी थीसिस है और इसमें ढेरों संदर्भ हैं. यह छठी शताब्दी ईसापूर्व में गौतम बुद्ध के राजनीतिक विचारों पर है.

मैं अपने विचारों को गौतम बुद्ध के राजनीतिक विचार नहीं बता सकता. इस किताब में बुद्ध को प्लेटो-अरस्तू, कौटिल्य-मनु से भी कहीं ज्यादा गंभीर राजनीतिक चिंतक के रूप में स्थापित करती है. देश को मज़बूत बनाने के लिए आज की तारीख में बुद्ध के विचारों का महत्त्व बढ़ जाता है. वे न इसे पढ़ते हैं, न इसे समझते हैं.

स्टैंडिंग कमेटी के सदस्यों का कहना है कि आपकी किताबें हिंदू धर्म का अपमान करती हैं.

लेकिन यह हिंदू धर्म के बारे में हैं ही नहीं! यह किताब ‘गॉड एज़ पॉलिटिकल फिलॉसफर’ हिंदू धर्म के बारे में है ही नहीं क्योंकि तब कोई हिंदू धर्म था ही नहीं और बुद्ध के राजनीतिक विचार किस तरह हिंदू धर्म के लिए अपमानजनक कैसे हैं?

व्हाय आई एम नॉट अ हिंदू तो एक क्लासिक के बतौर जानी जाती है और 1996 में इसके प्रकाशन के बाद से देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जा रही है. इस किताब की मुख्य विषय-वस्तु यह है कि दलित बहुजन संस्कृति कैसे ब्राह्मण बनिया संस्कृति से अलग है. क्या इन प्रोफेसर को लगता है कि दलित, बहुजन या शूद्र हिंदू हैं भी या नहीं?

अगर मैं उनकी खानपान की संस्कृति, उनकी उत्पादन करने की संस्कृति, श्रम के बारे में उनकी सोच, उनके बीच महिला-पुरुष संबंध को ब्राह्मण बनिया संस्कृति के बरक्स रखता हूं, तो ये हिंदू धर्म का अपमान कैसे है? इसका अर्थ ये है कि वो समझते हैं कि केवल ब्राह्मण और बनिया ही हिंदू हैं! सवाल यह है कि कौन हिंदू है कौन नहीं, हिंदू धर्म क्या है, इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए.

तीसरी किताब पोस्ट हिंदू इंडिया है, जिसमें आदिवासी, दलित, ओबीसी शूद्र ज्ञान के बारे में क्या सोचते हैं, उनके उत्पादन के साधन क्या हैं, सिंधु घाटी सभ्यता के समय से लेकर वर्तमान तक उनकी सभ्यता के बारे में विस्तार से पड़ताल की गई है. इसमें उनके खाद्य उत्पादन, दूध और मांस आधारित अर्थव्यवस्था, आदिवासियों के खाना इकठ्ठा करने और शिकार करने, उनकी सभ्यता आदि के बारे में बताया गया है.

तो अगर इन लोगों, जिन्होंने भारत के विज्ञान और तकनीक में योगदान दिए हैं, वे महान नहीं हैं, तो कौन महान है? मैंने यह किताब लिखने के लिए 10 सालों तक उन पर काम किया, उनके बारे में पढ़ा और तब यह किताब सेज (एक प्रतिष्ठित अमेरिकी प्रकाशन) से प्रकाशित हुई है. मेरी 10 साल की मेहनत को इस तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता.

जिस प्रोफेसर को इस पर आपत्ति है क्या उनकी कोई भी अच्छी किताब किसी बड़े प्रकाशन से छपी है? अगर उनकी कोई किताब आई है तो क्या है? क्या वे किसी महत्वपूर्ण किताब के लेखक हैं? मुझे नहीं लगता उन्होंने कोई किताब लिखी भी होगी! अगर उन्होंने कोई महत्वपूर्ण किताब नहीं लिखी है, तो उन्हें कैसे पता कि अच्छी किताब होती क्या है?

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कांचा इलैया की किताबें व्हाय आई एम नॉट अ हिंदू, पोस्ट-हिंदू इंडिया और गॉड एज़ पॉलिटिकल फिलॉसफर (फोटो साभार: amazon/flipkart)

ऐसी ही ताकतों की मांग है कि बीडी सावरकर और गोलवलकर की किताबें विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जाएं. क्या वे संदर्भित और डाटा आधारित हैं?

असल में यह भाजपा, संघ और मानव संसाधन और विकास मंत्रालय के बड़े एजेंडा का हिस्सा है. यह एजेंडा है कि विश्वविद्यालयों में एकआयामी विचार ही पढ़ाए जाएं. वे कह रहे हैं कि मेरी किताबें संदर्भित या डाटा आधारित नहीं हैं लेकिन उनके अनुसार सावरकर की हिंदुत्व की किताब और गोलवलकर की ‘बंच ऑफ थॉट्स’ पाठ्यक्रम में होनी चाहिए.

क्या सावरकर की किताब पीएचडी थीसिस है? क्या इसमें विभिन्न संदर्भ हैं? क्या गोलवलकर की किताब में कोई फुट नोट्स आदि हैं? आप कैसे सोच सकते हैं कि उन्हें पाठ्यक्रम में होना चाहिए?

अच्छा अगर आप इन्हें पाठ्यक्रम में चाहते भी हैं तो मुझे कोई परेशानी नहीं है लेकिन आप सालों के शोध के बाद लिखी गई प्रमाणिक किताबों को अपमानजनक कैसे बता सकते हैं? अपमानजनक क्या होता है? अकादमिक चर्चाओं में अपमान जैसा कुछ नहीं होता. हम एक दूसरे से बहस कर रहे नेता थोड़े न हैं.

ऐसा लगता है कि मानव संसाधन और विकास मंत्रालय सभी विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम एकआयामी बनाने के लिए काम कर रहा है. वे वेदों को पढ़ाना चाहते हैं, वैदिक समय को, रामायण, महाभारत को पढ़ाना चाहते हैं. आप चाहते हैं कि बच्चे उस समय के बारे में पढ़ें, लेकिन मेरा सवाल है कि क्या राजनीतिक विचार समझाने के लिए रामायण-महाभारत की शिक्षाएं पर्याप्त होंगी? या फिर आपके बताए किसी चिंतक की तुलना में गौतम बुद्ध के विचार ज्यादा मजबूत नहीं हैं? इन सब बातों पर अब बहस होनी चाहिए.

सवाल यह भी है कि प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारों को पढ़ाने का तरीका क्या है? गौतम बुद्ध एक राजनीतिक विचारक हैं या नहीं? मैं ये कहने वाला पहला व्यक्ति हूं कि बुद्ध प्लेटो और अरस्तू से कहीं बड़े राजनीतिक विचारक थे. इससे मानव संसाधन और विकास मंत्रालय को क्या परेशानी है? बुद्ध भारतीय नहीं हैं क्या? क्या कौटिल्य और मनु बुद्ध से ज्यादा विचारवान थे? यह सब समझने के लिए उन्हें मेरी किताबें पढ़नी चाहिए. भाजपा सरकार सभी विश्वविद्यालयों को बर्बाद करना चाहती है और चाहती है कि एक समय के बाद वे कुछ न सोचें, कुछ सृजन न करें और मैं इसके खिलाफ हूं.

वे यह भी कह रहे हैं कि ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. आज दलित शब्द का इस्तेमाल करने के लिए वे मेरी किताबों को हटाना चाहते हैं, कल वे कहेंगे कि आंबेडकर की किताबों को भी हटाया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने भी दलित शब्द का इस्तेमाल किया है. और एक दलित चिंतक के बतौर आंबेडकर पर बहुत-सी किताबें लिखी गयी हैं और आप नहीं चाहते कि यह शब्द विश्वविद्यालयों में इस्तेमाल न हो!

अकादमिक काउंसिल में शामिल एक और प्रोफेसर का कहना है कि आपकी किताबों में कोई कंटेंट, कोई तत्व नहीं है.

अगर मेरी किताबों में कोई कंटेंट नहीं है तो ये इतने सालों से पाठ्यक्रम में क्यों थीं, क्यों इन्हें पढ़ाया जा रहा था? शिक्षक, शैक्षणिक समितियां और विभागीय कमेटी, जिनके अध्यक्ष विभागाध्यक्ष स्तर के लोग होते हैं, जो खुद राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं ,आदि सभी किताबों के कंटेंट को पढ़ते हैं, परखते हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय तो इसके मानकों के लिए जाना जाता है, यदि किताबों में कोई तत्व नहीं था तो उन्होंने ऐसी किताबों को कोर्स में शामिल कैसे किया?

और जो प्रोफेसर कह रही हैं कि मेरी किताबों में कोई शैक्षणिक कंटेंट नहीं है, क्या उन्होंने मेरी किताब पढ़ी है? बिना पढ़े कैसे कोई शिक्षाविद या प्रोफेसर ऐसी किसी किताब पर टिप्प्पणी कर सकता है, जो पहले से ही पाठ्यक्रम में शामिल है?

बात सिर्फ उतनी ही है कि जिन किताबों से आप सहमत नहीं हैं, उन्हें हटा रहे हैं. इतने सालों से छात्र इन किताबों को पढ़ रहे हैं, परीक्षाएं दे रहे हैं, क्या वे यह कहना चाहती हैं कि इतने सालों से इन किताबों को पढ़ने और पढ़ाने वाले मूर्ख हैं!

और अगर यह प्रोफेसर इस बारे में गंभीर हैं, तो उन्हें मेरी किताब की समीक्षा लिखकर किसी प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित करवानी चाहिए, तब मैं उनके विचारों पर जवाब दूंगा.

क्या विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा आपसे संपर्क किया गया?

नहीं. सामान्य रूप से जब वे आपकी किताबें कोर्स में शामिल करते हैं, तब बात नहीं की जाती क्योंकि किताबें तो पहले से ही सार्वजनिक क्षेत्र में होती हैं. और वैसे मैं मानता हूं कि क्या पढ़ाया जाना चाहिए या नहीं, इसके बारे में पूछना, सवाल उठाना उनकी अकादमिक आज़ादी का हिस्सा है, लेकिन वे जिन किताबों से इत्तेफाक नहीं रखते, उन्हें हटाने की बात करना गैर-शैक्षणिक और घातक है.

विश्वविद्यालय अलग-अलग विचारों को पढ़ाने, उन पर चर्चा करने के लिए होते हैं. वहां सौ तरह के विचारों को आपस में टकराना चाहिए. विश्वविद्यालय कोई धार्मिक संस्थान नहीं हैं, जहां एक ही तरह के धार्मिक विचार पढ़ाए जाएं.

मानव संसाधन और विकास मंत्रालय को दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी विश्वविद्यालय में इस तरह की गैर-शैक्षणिक गतिविधियों की अनुमति नहीं देनी चाहिए. मैं शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों से देश में बढ़ रही इस प्रवृत्ति से के खिलाफ खड़े होने और अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता बचाने की अपील करता हूं.

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