जब तक हिंदू सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी, अस्पृश्यों के प्रति भेदभाव भी बना रहेगा: डॉ. आंबेडकर

भेदभाव का मूल हिंदुओं के हृदयों में बसे हुए उस भय में निहित है कि मुक्त समाज में अस्पृश्य अपनी निर्दिष्ट स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और हिंदू सामाजिक व्यवस्था के लिए ख़तरा बन जाएंगे.

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डॉ. भीमराव आंबेडकर, 20 मई, 1951 को बुद्ध जयंती के अवसर पर दिल्ली के आंबेडकर भवन में संबोधित करते हुए. (साभार: विकीमीडिया)

 आज़ाद भारत के संविधान-शिल्पी डॉ. बीआर आंबेडकर पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के ऐसे नायक हैं जो न सिर्फ़ अंग्रेज़ी ग़ुलामी के विरुद्ध लड़े, बल्कि भारतीय समाज में गहरे तक व्याप्त ग़ुलामी, अस्पृश्यता और भेदभाव के ख़िलाफ़ आजीवन लड़ते रहे. सामाजिक मसलों पर उनके लिखे ज़्यादातर लेख आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जैसे कि वे 21वीं सदी के भारत के लिए ही लिखे गए हों. पढ़िए ‘भेदभाव की समस्या’ शीर्षक से लिखा उनका यह लेख:

अस्पृश्यों को जिन गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनमें क्रम से इंसानों का दर्जा पाने की समस्या के बाद दूसरी समस्या भेदभावपूर्ण व्यवहार की आती है. अस्पृश्यों के साथ हिंदुओं द्वारा कितना भेदभाव किया जाता है, इसके परिणाम की कल्पना करना किसी विदेशी व्यक्ति के लिए असंभव है. जीवन में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां अश्पृश्य और हिंदुओं की एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा न होती हो और जिसमें अस्पृश्यों के साथ भेदभाव न किया जाता हो. यह भेदभाव बहुत ही मर्मांतक तरीक़े से होता है.

सामाजिक संबंध, जैसे आमोद-प्रमोद, खान-पान, खेलकूद और पूजा-पाठ के मामले में यह प्रतिबंध का रूप ले लेता है. इस कारण साधारण से साधारण क्षेत्र में भी भाग लेने पर रोक लग जाती है.

सार्वजनिक सुविधाओं के क्षेत्र में यह भेदभाव अस्पृश्यों को स्कूलों, कुओं, मंदिरों और यातायात से वंचित कर देता है. सार्वजनिक प्रशासन अस्पृश्यों के प्रति भेदभाव से सबसे अधिक प्रभावित है. इसने कचहरियों, सरकारी विभागों, सहकारी बैंकों, विशेषकर पुलिस को प्रभावित किया है. भूमि, ऋण और नौकरियां प्राप्त करने के मामले में तो यह खुल्लम-खुल्ला देखने को मिलता है. यह सबसे ज़्यादा नौकरियों के क्षेत्र में है.

हालांकि, कोई विनियम नहीं है, लेकिन कुछ ऐसे सर्वमान्य नियम ज़रूर हैं, जो नौकरियों में अस्पृश्यों के प्रवेश और उनकी प्रोन्नति को नियंत्रित करते हैं. अस्पृश्यों को अकसर प्रवेश नहीं मिलता. इनके लिए सारे विभाग बंद हैं. कपड़ा मिलों में बुनाई विभाग, सेना के सभी अंगअस्पृश्यों के लिए बंद हैं. अगर उसे प्रवेश मिल भी जाए, तब वहां पूर्व निर्धारित एक स्तर होता है जिसके बाद अस्पृश्य आगे उठ नहीं सकता, चाहे वह कितना ही कुशल या पुराना क्यों न हो. जिस सिद्धांत का आमतौर पर पालन किया जा रहा है, वह यह है कि अस्पृश्य को हिंदुओं के ऊपर कोई प्रशासनिक अधिकार वाला पद नहीं दिया जाएगा.

इसका परिणाम यह होता है कि जब तक कि किसी पूरी शाखा को अस्पृश्यों के हवाले न कर दिया जाए, तब तक परिणामस्वरूप बहुत थोड़े पद ऐसे होंगे जो अस्पृश्यों द्वारा भरे जा सकें. ठोस उदाहरण के रूप में कहा जाए तो नौकरी में सिर्फ़ एक क्षेत्र ही ऐसा है, जहां अस्पृश्यों के साथ कोई भेदभाव नहीं है और वह है सफाई का काम. इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की कोई ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि सारे के सारे पद अस्पृश्यों के लिए होते हैं और इस क्षेत्र में हिंदुओं की उनके साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती. लेकिन यहां भी ऊंचे पदों के भरे जाने के मामले में भेदभाव बरता जाता है. सभी गंदा काम अस्पृश्यों द्वारा किया जाता है. लेकिन सभी पर्यवेक्षी पद जिनके वेतन अधिक होते हैं और जिनका गंदगी से कोई वास्ता नहीं होता, हिंदुओं के द्वारा भरे जाते हैं.

इस परिस्थिति में नागरिकता के अधिकार का आशय अस्पृश्यों के अधिकार से नहीं होता. जनता की सरकार और जनता के लिए सरकार का आशय अस्पृश्यों के लिए सरकार से नहीं होता, सभी के लिए समान अवसर का आशय अस्पृश्यों के लिए समान अवसर नहीं होता, समान अधिकार का आशय अस्पृश्यों के लिए समान अधिकार का नहीं होता. सारे देश में कोने-कोने में अस्पृश्यों को अड़चनों का सामना करना पड़ता है, भेदभाव सहन करना पड़ता है, उनके साथ अन्याय होता है, वे भारत के सबसे अधिक दीन-हीन लोग हैं.

यह कितना सच है, यह केवल अस्पृश्य जानते हैं, जिन्हें मुसीबतें उठानी पड़ती हैं. यह भेदभाव अस्पृश्यों के रास्ते में सबसे कठिन बाधा है. यह उनको इससे उबरने नहीं देती. इसके कारण उन्हें प्रतिक्षण किसी न किसी का, बेरोज़गारी का, दुर्व्यवहार का, उत्पीड़न आदि का डर बना रहता है. यह असुरक्षा की ज़िंदगी होती है.

भेदभाव का एक और रूप भी है जो हालांकि बहुत ही अप्रत्यक्ष होता है, तथापि यह बहुत ही ठोस होता है. इसके अधीन सुयोग्य अस्पृश्यों की प्रतिष्ठा और उनकी मर्यादा को कम करने के सुनियोजित प्रयत्न किए जाते हैं. एक हिंदू नेता को एक महान भारतीय नेता बताया जाता है. कोई उसे कश्मीरी ब्राह्मणों का नेता नहीं कहता, हालांकि वह कश्मीरी ब्राह्मण होता है.

अगर कोई नेता अस्पृश्य जाति का होता है, तब उसके बारे में यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति अस्पृश्यों का नेता है. हिंदू डॉक्टर को एक महान भारतीय डॉक्टर बताया जाता है. कोई उसे अयंगार नहीं कहता, भले ही वह अयंगार क्यों न हो. अगर कोई डॉक्टर अस्पृश्य जाति का होता है, तब यह कहा जाता है कि अमुक डॉक्टर अस्पृश्य जाति का है.

हिंदू गायक के बारे में कुछ भी कहते समय यह कहा जाता है कि वह एक महान भारतीय गायक है. अगर वही व्यक्ति अस्पृश्य जाति का हो, तब उसे अस्पृश्य जाति वाला गायक कहा जाता है. किसी हिंदू कुश्तीबाज़ का वर्णन करते समय उसे भारत का एक महान कुश्तीबाज़ कहा जाता है. अगर वह अस्पृश्य जाति का हो, तब उसे अस्पृश्य जाति का कुश्तीबाज़ बताया जाता है.

इस प्रकार के भेदभाव का मूल हिंदुओं की इस विचारधारा में है कि अस्पृश्य लोग हीन होते हैं और वे चाहे जिनते योग्य हों, उनके महान व्यक्ति केवल अस्पृश्यों के लिए महान हैं. वे उन व्यक्तियों से महान नहीं हो सकते और न उनके बराबर हो सकते हैं, जो हिंदुओं में महान हैं. इस प्रकार भेदभाव यद्यपि सामाजिक होता है, परंतु यह आर्थिक भेदभाव से कम कष्टदायक नहीं होता है.

स्वतंत्रता के अभाव का ही दूसरा नाम भेदभाव है. जैसा कि श्री टोनी का कथन है:

स्वतंत्रता जैसी कोई चीज़ दुनिया में नहीं है जो विशिष्ट काल और स्थान से अप्रभावित रहती हो. इसका चाहे जो आशय हो या न भी हो, इसमें कई विकल्पों में से चयन करने की शक्ति निहित रहती है. विकल्पों में से यह चयन यथार्थ होता है, केवल सांकेतिक नहीं होता, इसकी सत्ता वास्तविक होती है, सिर्फ़ काग़ज़ों पर ही नहीं रहती. संक्षेप में, इसका आशय कुछ करने की योग्यता से या किन्हीं निश्चित परिस्थितियों में, निश्चित क्षण में, निश्चित कार्य करने से विरत रहने से या इसका आशय कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि कोई व्यक्ति जब कुछ सोचता है, इच्छा करता है और कुछ करता है, तब वह प्राय: कोई व्यक्ति होता है, इस स्वतंत्रता में वह सब कुछ होता है, जिसके बारे में कवियों ने कह रखा है, लेकिन प्रतिदिन के जीवन के गद्य में यह बिल्कुल व्यावहारिक और वास्तविक होता है.

प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपेक्षाएं होती हैं- इनमें भौतिक जीवन के लिए ज़रूरी चीज़ों के साथ वाणी और लिपि के द्वारा स्वयं को अभिव्यक्ति करने की भी अपेक्षा शामिल है, समान हित के कार्यों में भाग लेने और अपने-अपने ढंग से ईश्वर की आराधना करने या उसकी आराधना से विरत रहने की अपेक्षा भी शामिल है, अर्थात जो कुछ उसके कल्याण के लिए आवश्यक है, उसे प्राप्त करने का संतोष. इन सारी अपेक्षाओं में से अगर मूल अपेक्षा को ही ग्रहण किया जाए, तब उसकी स्वतंत्रता प्रकृति द्वारा नियत सीमाओं में उसके द्वारा प्राप्त किए गए अवसर और उसके संगी-साथियों द्वारा समान अवसरों का उपभोग करने और यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने में निहित है कि ये अपेक्षाएं पूरी हों.

मेरा इरादा इन स्वतंत्रताओं के लिए आवश्यक अधिकारों की एक और सूची जोड़ने का नहीं है, क्योंकि इनकी सूची तो पहले से ही विद्यमान है. लेकिन दो बातें ऐसी हैं जो इन सभी पर लागू होती हैं. पहली बात तो यह कि यदि स्वतंत्रता के लिए अधिकारों को प्रभावी होना है, तब वे इस प्रकार न बनाए जाएं, जैसे जिन लोगों में अधिक सामर्थ्य है, वे सभी रिट्ज होटल में खा-पी सकते हैं. वे ऐसे होने चाहिए कि जब कभी प्रयोग करने का अवसर आए तब उनका वास्तविक रूप में प्रयोग किया जा सके. मत देने और एकजुट होने के अधिकार हालांकि पूरी तरह मूल्यहीन नहीं होते, तो भी वे स्पष्ट रूप से तब निष्प्रभावी हो जाते हैं, जब पहले का परिणाम निष्कासन और दूसरे का परिणाम सर्वनाश होता है.

अगर किसी व्यवसाय में प्रवेश का ख़र्च अपनी शक्ति से ज़्यादा हो तो ये किसी व्यवसाय को चुनने का बेरोक अधिकार, अगर कोई ग़रीब आदमी न्याय की क़ीमत न चुका सके तब न्याय पाने का अधिकार, अगर वातावरण ऐसा हो कि जिसमें यह सुनिश्चित कर दिया गया हो कि जितने बच्चे पैदा हुए हैं, उनके से अधिकांश जन्म के बाद बारह महीने में मर जाएंगे, तब कोई आशा करना मानो अपनी सारी पूंजी को जुए में दांव पर लगा बैठना है. दूसरी बात यह है कि जो अधिकार स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है, वे ऐसे होने चाहिए जो न केवल अल्पसंख्यकों को, बल्कि सभी के लिए प्रत्येक स्वतंत्रता सुनिश्चित कर सकें.

किसी मनीषी ने कहा है और अधिकांश का जीवन समस्याओं से ग्रस्त है, पति-पत्नी अपने दायित्व को नहीं समझते हैं, तब विवाह राष्ट्रीय संस्था नहीं कहा जा सकता. यह बात स्वतंत्रता के लिए सच है. जिस समाज में कुछ वर्गों के लोग जो कुछ चाहें वह सब-कुछ कर सकें और बाकी वह सब भी न कर सकें जो उन्हें करना चाहिए, उस समाज के अपने गुण होते होंगे, लेकिन इनमें स्वतंत्रता शामिल नहीं होगी.

यह समाज वहीं तक स्वतंत्र है, सिर्फ़ वहीं तक स्वतंत्र है, जहां तक इस संगठित करने वाले सभी तत्व वास्तव में, केवल सिद्धांत में ही नहीं, अपनी शक्ति का आधिकारिक प्रयोग कर सकते हैं, अपना पूर्ण विकास कर सकते हैं, वह सब-कुछ कर सकते हैं, जिसे वे अपना कर्तव्य समझते हैं, और चूंकि स्वतंत्रता का कठोर नहीं होना चाहिए- जब वे अपने डैनों को फैलाना चाहें तब वे उन्हें फैला सकें. अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सिमित है, सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना अधिक उचित होगा.

अस्पृश्यों के प्रति भेदभाव हिंदुओं की उन गंभीर और तीव्र तिरस्कार की भावनाओं की प्रतिच्छवि है जो क़ानून और प्रशासन में भी मिलती है, यह क़ानून और प्रशासन अस्पृश्यों के विरुद्ध हिंदुओं और उनमें भेदभाव को उचित ठहराता है. इस भेदभाव का मूल हिंदुओं के हृदयों में बसे हुए उस भय में निहित है कि मुक्त समाज में अस्पृश्य अपनी निर्दिष्ट स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और हिंदू सामाजिक व्यवस्था के लिए ख़तरा बन जाएंगे, जिसका आधारभूत आदर्श अस्पृश्यों की तुलना में हिंदुओं की वरीयता और उनके प्रभुत्व को बनाए रखना है. जब तक यह हिंदू सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक अस्पृश्यों के प्रति भेदभाव भी बना रहेगा.

(स्रोत: डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वाङ्मय, खंड-9, डॉ. आंबेडकर प्रतिष्ठान, पृष्ठ- 169-173)

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