अयोध्या: मीडिया 1992 की तरह एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में घी डाल रहा है

अयोध्या में 1990-92 में प्रिंट मीडिया का प्रभुत्व था, अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उसे पीछे धकेलकर सांप्रदायिक पत्रकारिता का परचम उससे छीन लिया है और ख़ुद को राम मंदिर आंदोलन का अघोषित प्रवक्ता बना लिया है.

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अयोध्या में 1990-92 में प्रिंट मीडिया का प्रभुत्व था, अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उसे पीछे धकेलकर सांप्रदायिक पत्रकारिता का परचम उससे छीन लिया है और ख़ुद को राम मंदिर आंदोलन का अघोषित प्रवक्ता बना लिया है.

Shiv Sena Chalo Ayodhya PTI
(फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार की दो-दो ‘भव्य’, ‘देव’ व ‘दिव्य’ सरकारी दीपावलियों के बावजूद न तो अयोध्या में उस अभीष्ट ‘त्रेता की वापसी’ हुई और न विश्व हिंदू परिषद व शिवसेना का मंदिर राग अयोध्या की आंखों में वैसा उन्माद उतार पा रहा है, जिसे ‘निहारकर’ भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव अथवा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को लेकर आश्वस्त हो सके.

हालांकि मीडिया, खासकर हिंदी मीडिया, न सिर्फ़ अपनी 1990-92 की भूमिका में उतर गया बल्कि उसे प्राण-प्रण से दोहरा रहा है. उसके इस दोहराव में कोई अंतर आया है तो सिर्फ इतना कि 90-92 में प्रिंट मीडिया का प्रभुत्व था, जबकि अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उसे पीछे धकेलकर उसका ‘सांप्रदायिक’ पत्रकारिता का परचम उससे छीन लिया है. ख़ुद को राम मंदिर आंदोलन का अघोषित प्रवक्ता तो बना ही लिया है.

लेकिन इधर ये चैनल एक बड़ी मुश्किल से जूझ रहे हैं. अयोध्या है कि प्राइम टाइम का ज़्यादातर वक़्त राम मंदिर विवाद को समर्पित करने के उनके लक्ष्य में सहायक सिद्ध होने को तैयार नहीं है.

धीरे-धीरे करके ही सही आम अयोध्यावासी इस विवाद की व्यर्थता को समझने लगे हैं और अपनी ओर से किसी अंदेशे को हवा नहीं देना चाहते. अयोध्या के इर्द-गिर्द के गांवों के किसान व मज़दूर खाद, बीज, डीजल, बिजली व नहरों में पानी की उपलब्धता और गन्ना व धान बिक्री से जुड़ी अपनी समस्याओं से जूझने से ही फुरसत नहीं पा रहे जबकि भाजपा सरकारों की अनेक वादाख़िलाफ़ियों से दुखी मध्यवर्ग ने भी निर्लिप्तता की चादर ओढ़ ली है.

सो, शिवसेना और विहिप को अपनी कवायदों में उल्लास व उमंग भरने के लिए अपने भरोसेमंद कार्यकर्ताओं पर ही निर्भर करना पड़ रहा है. इससे अयोध्या इन चैनलों के लिहाज़ से पहले जितनी ख़बर-उर्वर या न्यूज़फ्रेंडली रह ही नहीं गई है.

इसका एक कारण ये भी कि चूंकि ‘दूसरे’ पक्ष ने अपनी नियति स्वीकार कर सारे प्रतिरोधों से हाथ खींच लिए हैं, इसलिए कहीं कोई ‘टकराव’ नहीं दिखता.

कई बुज़ुर्ग, शिवसैनिकों व विहिप कार्यकर्ताओं को इंगित कर कहते हैं कि ये जो राम मंदिर का नाम लेकर ‘रोने’ वाले लोग वादाख़िलाफ़ प्रधानमंत्री के कार्यालय के बाहर ‘रोने’ के बजाय चुनाव निकट देख यहां ‘रोने’ आ गए हैं.

उनका इलाज यही है कि उन्हें भरपूर रोने और थक जाने देना चाहिए. बुज़ुर्ग यह भी समझाते हैं कि कैसे मीडिया ने दुरभिसंधिपूर्वक इस विवाद को पहले ‘बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद’ से ‘राम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवाद’ बनाया और कैसे अब न्यूज़ चैनल अपने ‘अयोध्या से लाइव’ कार्यक्रमों में ‘राम मदिंर विवाद’ बताने लगे हैं. इसलिए जागरूक व सचेत नागरिक तो उनके ऐसे ‘लाइव’ कार्यक्रमों से सायास परहेज़ बरतने लगे हैं.

इन चैनलों द्वारा इस हेतु संपर्क किए जाने पर कई जागरूक नागरिक यह पूछने से भी संकोच नहीं करते कि जब उन्होंने अपना पक्ष पहले से तय कर रखा है तो उनके द्वारा इस सिलसिले में कराई जाने वाली किसी भी बहस का क्या मतलब है?

राम मंदिर को लेकर शिवसेना की ओर से ‘पहले मंदिर फिर सरकार’ का नारा दिया गया है. (फोटो साभार: फेसबुक/शिवसेना)
राम मंदिर को लेकर शिवसेना की ओर से ‘पहले मंदिर फिर सरकार’ का नारा दिया गया है. (फोटो साभार: फेसबुक/शिवसेना)

स्थानीय दैनिक ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतला सिंह तो इन चैनलों के प्रतिनिधियों से दो टूक पूछ लेते हैं कि मैं आपकी स्वार्थसाधना का हिस्सा बनने आपके कार्यक्रम में क्यों चलूं? ऐसे में ये चैनल स्थानीय लोगों के असहयोग की भरपाई इस तरह कर रहे हैं कि तीर्थयात्रियों को जमाकर लेते और उन्हें ही अयोध्यावासी बताते रहते हैं.

हां, अपने अहर्निश प्रयासों से वे ऐसे लोगों की एक जमात पैदा करने में सफल रहे हैं जो टीवी पर दिखने के लालच में कैमरे के सामने कुछ भी बोल देने या कैसे भी ऊल-जलूल नारे लगाने को तैयार हो जाती है.

चूंकि इस जमात के बूते चैनलों का काम भरपूर चल निकला है इसलिए ज़मीनी हक़ीक़त की उन्हें परवाह नहीं है. उन्हें यह भी नहीं दिखता कि अयोध्या में यह पहली बार हुआ है कि विहिप के मुकाबले शिवसेना बाज़ी मार ले गयी है- आक्रामकता में भी और प्रचार में भी.

अयोध्या और उसके जुड़वां शहर फ़ैज़ाबाद में प्राय: हर प्रमुख जगह पर लगे शिवसेना के ‘पहले मंदिर, फिर सरकार’ के होर्डिंगों ने विहिप की ‘धर्मसभा’ की चमक छीन ली है.

शिवसेना के मैनेजरों द्वारा विहिप के क़िले में सेंधमारी की कोशिशें भी सफल होती दिखती हैं. पिछले दिनों एक चैनल पर शिवसेना के प्रतिनिधि ने यह कहकर भाजपा के स्थानीय सांसद लल्लू सिंह की तीखी आलोचना शुरू की तो उसे यह कहकर रोक दिया गया कि किसी जनप्रतिनिधि का नाम इस तरह कैसे ले सकते हैं. जैसे कि उसने कोई गंभीर अपराध कर दिया हो.

उन ख़ौफ़ों और अंदेशों को तो ख़ैर प्रिंट मीडिया भी नहीं ही देख रहा, इस अंचल के रोज़ कुंआ खोदने व पानी पीने वाले निम्न आय वर्ग के लोग जिनके शिकार हैं, वे 1990 और 92 के दूध के जले हुए हैं, इसलिए उन्हें न प्रशासन की भरपूर बताई जा रही सुरक्षा व्यवस्था के छाछ पर एतबार हो पा रहा है, न शिवसैनिकों व विहिप के कार्यकर्ताओं की ‘सदाशयता’ पर.

किसी अनहोनी के डर से वे अपने सामर्थ्य भर खाने-पीने व आवश्यक उपभोग की चीज़ें अपने घरों में जमा कर ले रहे हैं लेकिन सबसे बुरा हाल उनका है, जिनके घरों में इस बीच शादियां या कोई अन्य समारोह है.

शादी वाले एक घर के मुखिया जब मैंने पूछा कि वह सैकड़ों मेहमानों के लिए खाना पकवा ले और अचानक कर्फ्यू लग जाए तो क्या होगा? बाहर से आने वाली बारात शहर में कैसे प्रवेश पाएगी? बढ़ती असुरक्षा के बीच अयोध्या में कार्तिक पूर्णिमा का मेला भी ख़ासा फीका रहा. बड़ी संख्या में मेलार्थी आए ही नहीं.

Ayodhya: A wall of bricks bearing 'Shri Ram' chants seen at the Ram Janmabhomi Nyas-run workshop at Karsevakpuram in Ayodhya, Monday, Nov 12, 2018. (PTI Photo) (STORY DES 2)(PTI11_12_2018_000102B)
अयोध्या स्थित कारसेवकपुरम में राम जन्मभूमि न्यास द्वारा संचालित एक केंद्र में रखी ईंटें. (फोटो: पीटीआई)

इससे पहले बाबरी मस्जिद के पक्षकार इक़बाल अंसारी ने, जो मरहूम हाशिम अंसारी के बेटे भी हैं, कहा कि असुरक्षा ऐसी ही रही तो वे अयोध्या छोड़कर चले जाएंगे तो मीडिया ने उनकी तकलीफ़ को ज़्यादा कान नहीं दिया, लेकिन मंदिर निर्माण के लिए क़ानून बनाने की मांग पर उनका बयान आया तो उसका अनर्थ करके हाथों-हाथ लपक लिया.

दरअसल, इक़बाल ने कहा यह था कि वे क़ानून बना सकते हैं तो बना लें. हम तो क़ानून के पाबंद नागरिक हैं, जो भी कानून बन जाएगा, उसका पालन करेंगे और नहीं कर सकते तो उपयुक्त मंच पर फरियाद करेंगे.

लेकिन हिंदी के अख़बारों और न्यूज़ चैनलों ने इसे इस तरह पेश किया कि जैसे वे अपना दावा छोड़कर मंदिर निर्माण के लिए क़ानून का समर्थन कर रहे हों. मज़े की बात यह कि ये चैनल, यक़ीनन, भ्रम गहरा करने के लिए लोगों से यह सवाल तो पूछते हैं कि आप अयोध्या में मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं या नहीं, लेकिन किसी से भूल कर भी नहीं पूछते कि वहीं मंदिर निर्माण की ज़िद का क्या अर्थ है और क्या इस निर्माण के लिए वह देश के क़ानून, संविधान और सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा की बलि भी चाहता है?

विहिप कहती है कि वह इसके लिए अयोध्या की धर्मसभा में तीन लाख लोगों को जुटा रही है तो फौरन इसका प्रचार शुरू कर देने वाले न्यूज़ चैनल उससे इतना भी नहीं पूछते कि उसके अपेक्षाकृत छोटे सभास्थल में ये इतने लाख लोग समाएंगे कैसे?

इससे समझा जा सकता है कि वे लोग कितने ग़लत थे, जो मनमोहन सिंह के राज में कहें या भाजपा व विहिप के पराभव के दिनों में, कहने लगे थे कि भारत 1990-92 के सांप्रदायिक जुनून के दौर से बहुत आगे निकल आया है और अब जाति व धर्म की संकीर्णताओं के लिए अपने पंजे व डैने फड़फड़ाना बहुत मुश्किल होगा.

अब जब सरकारें और उनके समर्थक ही सांप्रदायिक आधार पर अशांति व अंदेशे पैदा कर रहे हैं, समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन ही ठीक नज़र आते हैं, जिन्होंने तब कहा था कि बढ़ती हुई सांप्रदायिकता आर्थिक तनावों का बाय-प्रोडक्ट है और उसे तब तक ख़त्म नहीं किया जा सकता, जब तक अनर्थकारी आर्थिक नीतियों से निजात नहीं पा ली जाती.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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