राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार से जनता की नाराज़गी भाजपा को पड़ी भारी

बिना चेहरा घोषित किए मैदान में उतरने और टिकट वितरण में खींचतान की वजह से कांग्रेस एकतरफा जीत से चूक गई, लेकिन पार्टी ने सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लिया है.

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Keshoraipatan: Rajasthan Chief Minister Vasundhara Raje speaks during the 'Rajasthan Gaurav Yatra' at Keshoraipatan, near Kota, Monday, Sept 17, 2018. (PTI Photo)(PTI9_17_2018_000146B)
Keshoraipatan: Rajasthan Chief Minister Vasundhara Raje speaks during the 'Rajasthan Gaurav Yatra' at Keshoraipatan, near Kota, Monday, Sept 17, 2018. (PTI Photo)(PTI9_17_2018_000146B)

बिना चेहरा घोषित किए मैदान में उतरने और टिकट वितरण में खींचतान की वजह से कांग्रेस एकतरफा जीत से चूक गई, लेकिन पार्टी ने सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लिया है.

Keshoraipatan: Rajasthan Chief Minister Vasundhara Raje speaks during the 'Rajasthan Gaurav Yatra' at Keshoraipatan, near Kota, Monday, Sept 17, 2018. (PTI Photo)(PTI9_17_2018_000146B)
वसुंधरा राजे. (फोटो: पीटीआई)

राजस्थान में विधानसभा के पिछले पांच चुनावों से कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता की अदला-बदली का क्रम इस बार भी नहीं टूटा. मिशन 180+ का लक्ष्य लेकर चुनावी रण में उतरी भाजपा को हार का मुुंह देखना पड़ा. कांग्रेस को 100 व भाजपा को 73 सीटों पर जीत हासिल हुई है जबकि 26 सीटों पर अन्य दलों के उम्मीदवार व निर्दलीय विजयी रहे हैं.

हालांकि भाजपा की इस बार वैसी दुर्गति नहीं हुई, जैसी 2013 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस की हुई थी. गौरतलब है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस को महज़ 21 सीटों पर संतोष करना पड़ा जबकि भाजपा को 163 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

वसुंधरा सरकार के ख़िलाफ़ एंटीइनकमबेंसी को देखते हुए इस बार भाजपा का भी यही हश्र होने के कयास लगाए जा रहे थे, लेकिन पार्टी सम्मानजनक सीटें हासिल करने में कामयाब रही.

भाजपा के इस प्रदर्शन की वजह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित स्टार प्रचारकों के धुआंधार प्रचार को माना जा रहा है. ख़ुद वसुंधरा खेमे के नेता यह मानते हैं कि यदि मोदी-शाह ने प्रचार की कमान नहीं संभाली होती तो भाजपा की दुर्गति होना तय थी.

भाजपा को यह अंदाज़ा था कि सिर्फ़ आक्रामक चुनाव प्रचार के बूते वसुंधरा सरकार के ख़िलाफ़ एंटीइनकमबेंसी को नहीं काटा जा सकता. पार्टी के रणनीतिकारों ने इसकी काट के तौर पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की.

भाजपा के रणनीतिकारों ने इसके लिए पूरी ताकत झोंकी. मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर प्रचार के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को प्रचार में उतारा गया.

भाजपा की ध्रुवीकरण की यह कोशिश कई सीटों पर तो कामयाब रही, लेकिन पूरे राज्य का चुनावी माहौल मज़हबी रंग में नहीं रंगा. जिन सीटों पर ध्रुवीकरण हुआ भी, वहां स्थानीय परिस्थितियों के चलते ऐसा हुआ. ख़ुद भाजपा के नेता यह मानते हैं कि कई सीटों पर वहां के समीकरणों के चलते ध्रुवीकरण हर चुनाव में होता है.

ध्रुवीकरण के लिहाज़ से हॉट सीट मानी जा रही जैसलमेर ज़िले की पोकरण सीट पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा. पार्टी ने यहां से बाड़मेर के नाथ संप्रदाय के तारातरा मठ के मुखिया प्रतापपुरी को मैदान में उतारा जबकि कांग्रेस ने सिंधी मुस्लिम संत गाज़ी फ़क़ीर के बेटे सालेह मोहम्मद को उम्मीदवार बनाया.

प्रतापपुरी ने यहां खुलेआम हिंदू कार्ड खेला. योगी आदित्यनाथ ने भी उनके यहां सभा की, लेकिन चुनाव नहीं जीत पाए.

भाजपा को यह पहले से पता था कि प्रदेश में वसुंधरा सरकार के ख़िलाफ़ माहौल है, लेकिन वे इसकी काट नहीं ढूंढ पाए. सरकार से नाराज़गी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ़ सात मंत्री चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं.

गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया, पंचायती राज मंत्री राजेंद्र राठौड़, चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ, उच्च शिक्षा मंत्री किरण माहेश्वरी, शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी, महिला एवं बाल विकास मंत्री अनीता भदेल और ऊर्जा मंत्री पुष्पेंद्र सिंह राणावत अपनी सीटें बचाने में सफल रहे.

वहीं, सार्वजनिक निर्माण व परिवहन मंत्री यूनुस ख़ान, सिंचाई मंत्री मंत्री डॉ. रामप्रताप, वन व पर्यावरण मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर, सहकारिता मंत्री अजय सिंह किलक, उद्योग मंत्री राजपाल सिंह, सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री अरुण चतुर्वेदी, स्वायत्त शासन व नगरीय विकास मंत्री श्रीचंद्र कृपलानी, कृषि मंत्री प्रभु लाल सैनी, पर्यटन मंत्री कृष्णेंद्र कौर दीपा, राजस्व मंत्री अमराराम, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री बाबू लाल वर्मा व खान मंत्री सुरेंद्र पाल सिंह टीटी चुनाव हार गए हैं.

भाजपा की ओर से चुनाव हारने वालों में एक और बड़ा नाम अशोक परनामी का है. वे लंबे समय तक राजस्थान में पार्टी के अध्यक्ष रहे. लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी की क़रारी हार के बाद भाजपा नेतृत्व ने उनसे इस्तीफा ले लिया था.

मोदी-शाह उनकी जगह केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को कमान सौंपना चाहता था, लेकिन वसुंधरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं. आखिरकार पार्टी ने मदन लाल सैनी को अध्यक्ष बनाया.

इस चुनाव में सत्ता की अदला-बदला का क्रम तो जारी रहा, लेकिन कई और मिथक टूट गए. मसलन पिछले पांच चुनावों से सत्ता के सिंहासन तक वही पार्टी पहुंची जिसने मेवाड़-वागड़ में जीत हासिल की.

2013 के चुनाव में भाजपा ने यहां की 28 सीटों में से 25 सीटों पर फतह हासिल की थी. भाजपा ने इस बार भी बढ़त बनाई है, लेकिन उसकी सत्ता में वापसी नहीं हो पाई.

भाजपा ने पार्टी का गढ़ माने जाने वाले हाड़ौती में भी अपेक्षाकृत रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है. भाजपा ने यहां की 17 सीटों में से 10 सीटों पर फतह हासिल की है. हालांकि 2013 में यहां से पार्टी को 16 सीटों पर जीत मिली थी. भाजपा को सबसे ज़्यादा नुकसान पूर्वी राजस्थान, शेखावाटी और मारवाड़ में झेलना पड़ा है.

भरतपुर, करौली और सवाई माधोपुर ज़िले में भाजपा को एक भी सीट पर नसीब नहीं हुई. भाजपा में 10 साल बाद डॉ. किरोड़ी लाल मीणा की घर वापसी के बाद यह माना जा रहा था कि पूर्वी राजस्थान में पार्टी की नैया पार लगाएंगे, लेकिन उनकी पत्नी गोलमा देवी सपोटरा और भतीजे राजेंद्र मीणा महुआ से चुनाव हार गए. मीणा बाहुल्य करौली, सवाई माधोपुर व दौसा ज़िलों में भाजपा का पत्ता साफ हो गया.

जाट बाहुल्य शेखावटी में भी भाजपा की हालत पतली रही. कांग्रेस ने यहां से एकतरफा जीत हासिल की. सीकर, झुुंझुनूं और चूरु ज़िले की कुछ सीटों पर ही भाजपा को बमुश्किल जीत हासिल हुई.

भाजपा का गढ़ माने जाने वाले जयपुर ज़िले में पार्टी का प्रदर्शन उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहा. 19 सीटोें में से महज़ 6 सीटों पर पार्टी को जीत नसीब हुई. मारवाड़ से भी भाजपा को क़रारा झटका लगा है. पार्टी को 29 सीटों में से महज़ 5 सीटों पर जीत हासिल हुई है.

कांग्रेस ने भाजपा को पटकनी तो दे दी, लेकिन वह एकतरफा जीत हासिल करने से चूक गई. विश्लेषक इसके पीछे मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं करने और आपसी खींचतान की को ज़िम्मेदार मान रहे हैं.

पार्टी ने चुनाव की रणभेरी बजने से पहले ही यह तय कर लिया था कि वह सामूहिक नेतृत्व में मैदान में उतरेगी. राहुल गांधी के निर्देश पर पार्टी के नेता एक साथ ज़रूर नज़र आए, लेकिन मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के बीच ख़ूब रस्साकशी हुई.

कांग्रेस के टिकट वितरण में अशोक गहलोत, सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी के बीच ज़बरदस्त खींचतान देखने को मिली. यह तय होने के बाद कि गहलोत और पायलट चुनाव लड़ेंगे, इन दोनों नेताओं और डूडी ने अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलवाने के लिए ज़ोर लगा दिया. इस ज़ोर-आजमाइश से कई सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों का चयन हो गया.

गहलोत, पायलट और डूडी के बीच रस्साकशी यदि बंद कमरे में होती तो फूट जगज़ाहिर नहीं होती, लेकिन कई सीटों पर इन दिग्गजों की सिर-फुटव्वल सार्वजनिक हो गई.

खींचतान का आलम यह रहा कि केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सामने सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी में भिड़ंत हो गई थी. दोनों के बीच जयपुर ज़िले की फुलेरा सीट पर अपनी पसंद के नेता को टिकट देने को लेकर तूतू-मैंमैं हुई.

मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी जता चुके नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी ने नोखा सीट से ख़ुद की सीट से जीत सुनिश्चित करने के लिए पिछले चुनाव में उनके सामने निर्दलीय चुनाव लड़ चुके कन्हैया लाल झंवर को कांग्रेस की सदस्यता दिलवाई, बल्कि उन्हें महज़ आधे घंटे बाद बीकानेर पूर्व सीट से पार्टी का टिकट भी दिलवा दिया. दूसरी ओर पांच बार विधायक रहे डॉ. बीडी कल्ला को बीकानेर पश्चिम से टिकट नहीं मिला.

कल्ला का टिकट कटने से नाराज़ उनके समर्थकों ने बीकानेर में तीखा विरोध किया तो पार्टी ने उनको उम्मीदवार बना दिया. वहीं, बीकानेर पूर्व से कन्हैया लाल झंवर की जगह यशपाल गहलोत को उम्मीदवार बना दिया.

इस बदलाव से नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी उखड़ गए. उन्होंने यहां तक धमकी दे दी कि पार्टी ने कन्हैया लाल झंवर को टिकट नहीं दिया तो वे विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे.

डूडी के इस हठ से आलाकमान के हाथ-पांव फूल गए. पार्टी ने कन्हैया लाल झंवर को बीकानेर पूर्व से प्रत्याशी बना दिया और यशपाल गहलोत को बेटिकट कर दिया. बार-बार उम्मीदवार बदलने को भाजपा ने मुद्दा बना लिया.

हालांकि इतनी उठापटक करने के बावजूद रामेश्वर डूडी चुनाव हार गए. कन्हैया लाल झंवर भी बीकानेर पूर्व से चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हुए. बीकानेर पश्चिम से बीडी कल्ला ज़रूर जीत गए.

आपसी खींचतान के चलते कांग्रेस को 35 सीटों पर सीधी बगावत झेलनी पड़ी. यदि पार्टी टिकट वितरण से उपजे असंतोष को रोकने में कामयाब हो जाती तो पार्टी लगभग दो दर्जन सीटों पर और जीत दर्ज कर सकती थी.

हालांकि पार्टी के आधा दर्जन बागी निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब हुए हैं. इनमें बाबू लाल नागर, महादेव सिंह खंडेला, संयम लोढ़ा और आलोक बेनीवाल बड़े नाम हैं.

कांग्रेस ने राजस्थान में फतह ज़रूर हासिल की, लेकिन पार्टी के कई बड़े नेता चुनाव हार गए हैं. इनमें नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के अलावा डॉ. गिरिजा व्यास, दुर्रु मियां, वीरेंद्र बेनीवाल, डॉ. कर्ण सिंह यादव, हरिमोहन शर्मा व मांगीलाल गरासिया बड़े नाम हैं.

गिरिजा व्यास यूपीए सरकार में मंत्री रही हैं जबकि दुर्रु मियां, वीरेंद्र बेनीवाल, हरिमोहन शर्मा और मांगीलाल गरासिया प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं. वहीं, डॉ. कर्ण सिंह यादव अलवर से सांसद हैं.

इस चुनाव में प्रदेश में तीसरे मोर्चे के खड़े होने की संभावनाओं पर भी विराम लगा दिया है. निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल ने चुनाव से पहले जयपुर में बड़ी सभा कर यह दावा किया था कि उनके समर्थन के बिना राजस्थान की अगली सरकार नहीं बनेगी, लेकिन उनकी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी महज़ तीन सीटों पर चुनाव जीतने में सफल हुई. उन्होंने कई सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के समीकरण ज़रूर ख़राब किए.

वहीं, भाजपा से नाता तोड़ भारत वाहिनी पार्टी के बैनर तले कांग्रेस और भाजपा को चुनौती देने वाले घनश्याम तिवाड़ी का प्रदर्शन बेहद फीका रहा. उनकी पार्टी को एक सीट पर भी जीत हासिल नहीं हुई. छह बार विधायक रहे तिवाड़ी सांगानेर सीट से तीसरे नंबर पर रहे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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