जेटली को कैसे समझ आ गया एक जीएसटी रेट, क्या आप समझ पाए?

जीएसटी रेट एक टैक्स से शुरू होता है और बाद में कई टैक्स आ जाते हैं या बढ़ने लगते हैं. या फिर कई टैक्स से शुरू होकर एक टैक्स की ओर जाता है. इसका मतलब है कि एक टैक्स को लेकर कोई ठोस समझ नहीं है. शायद जनता का मूड देखकर टैक्स के प्रति समझदारी आती है.

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(फोटो: पीटीआई)

जीएसटी रेट एक टैक्स से शुरू होता है और बाद में कई टैक्स आ जाते हैं या बढ़ने लगते हैं. या फिर कई टैक्स से शुरू होकर एक टैक्स की ओर जाता है. इसका मतलब है कि एक टैक्स को लेकर कोई ठोस समझ नहीं है. शायद जनता का मूड देखकर टैक्स के प्रति समझदारी आती है.

India Economy GST PTI
(फोटो: पीटीआई)

4 अगस्त 2016 को हमने ख़बर एनडीटीवी और कस्बा पर एक लेख लिखा था. उस हफ्ते राज्यसभा में जीएसटी को लेकर बहस हुई थी. कांग्रेस और भाजपा के नेताओं की बहस को सुनते हुए मैंने लिखा था कि,

‘राज्यसभा में वित्त मंत्री जेटली और पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम की भाषा और देहभाषा ऐसी थी जैसे दोनों एक चैप्टर पढ़कर आए हों और उसे अपना पर्चा बताने का प्रयास कर रहे हों. दोनों के भाषणों में चंद भाषाई असहमतियों के साथ व्यापक सहमति का इज़हार हो रहा था.’

हिन्दी के पाठकों के लिए और ख़ुद समझने के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध कई सामग्रियों का अध्ययन कर यह लेख लिखा था. चार नए पैराग्राफ इसमें जोड़े हैं इस कारण लेख लंबा हो गया है. उस वक्त हिन्दी के पाठकों के लिए काफी रिसर्च के बाद लिखा था. आप पूरा पढ़ें तो अच्छा रहेगा.

जुलाई 2017 में जीएसटी लागू होता है. राहुल गांधी तरह-तरह के टैक्स और अधिक टैक्स को लेकर विरोध शुरू करते हैं. एक टैक्स की मांग करते हैं.

इसके जवाब में वित्त मंत्री अरुण जेटली ट्वीट करते हैं कि ‘राहुल गांधी भारत में एक जीएसटी टैक्स की वकालत कर रहे हैं. यह बुनियादी रूप से ग़लत आइडिया है. एक जीएसटी टैक्स उसी देश में काम कर सकता है जहां सारी आबादी एक जैसी हो और भुगतान करने की क्षमता काफी अधिक हो.’

अब वही अरुण जेटली एक साल के भीतर ज्ञान दे रहे हैं कि ‘जीएसटी में अगले चरण का जो सुधार होगा वह 15 प्रतिशत के मानक टैक्स रेट में बदलने को लेगा. अभी जो 12 और 18 प्रतिशत का टैक्स है, उसका बीच का बिंदु होगा.’

अरुण जेटली के दोनों बयानों का स्क्रीनशॉट लगा रहा हूं. एक साल में ही एक जीएसटी टैक्स को लेकर इतनी समझदारी कहां से आ गई है. पहले में वे राहुल गांधी को मूर्ख बता रहे हैं और दूसरे में ख़ुद को विद्वान.

Jaitley GST Statement
वित्त मंत्री अरुण जेटली के बयान

जब आप मेरे पुराने लेख को पढ़ेंगे तो दो बातें देखने को मिलेंगे. पहली कि जीएसटी रेट शुरू होता है एक टैक्स से और बाद में कई टैक्स आ जाते हैं या बढ़ने लगते हैं.

दूसरा कि कई टैक्स से शुरू होकर एक टैक्स की ओर जाता है. इसका मतलब है कि एक टैक्स को लेकर इसकी कोई ठोस समझ नहीं है. शायद जनता का मूड देखकर टैक्स के प्रति समझदारी आती है.

बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में एक जीएसटी टैक्स के ऐलान का स्वागत किया है. संपादकीय में लिखा है कि 18 राज्य ऐसे हैं जो जीएसटी टारगेट से पीछे चल रहे हैं. केंद्र के स्तर पर पिछले साल की तुलना में इस साल प्रति माह जीएसटी संग्रह अच्छा है मगर सरकार ने बजट में जो टारगेट रखा था, उससे बहुत दूर है.

2018 में सिर्फ अप्रैल और अक्तूबर में एक लाख करोड़ रुपये का जीएसटी संग्रह हुआ था. 2018-19 के पहले आठ महीनों में 7 लाख 76 हज़ार करोड़ जीएसटी जमा हुआ है जो अपने सालाना टारगेट का मात्र 58 फीसदी है.

मलेशिया में जीएसटी ज़्यादा दिन नहीं चला. लागू होने के दो साल के भीतर हटा दिया गया. जबकि वहां एक टैक्स था. 6 फीसदी जीएसटी. वहां नई सरकार चुनाव इसी मुद्दे पर जीती कि आते ही जीएसटी हटा देंगे.

भारत के वित्त मंत्री अभी भी 15 प्रतिशत जीएसटी की बात कर रहे हैं. दूसरा जीएसटी को लेकर इस तरह के बकवास से दूर रहें कि इससे रोज़गार बढ़ता है, ग़रीबी दूर होती है और अर्थव्यवस्था में तेज़ी आ जाती है. ऐसा कुछ नहीं होता है.

आए दिन रिपोर्ट आती है कि दुनिया की 25 विकसित अर्थव्यवस्था में दो तिहाई परिवारों की वास्तविक आय घटी है या जस की तस रह गई है. सिर्फ 2 प्रतिशत परिवारों की वास्तविक आय बढ़ी है.

अब आप इस पैराग्राफ के बाद अगस्त 2016 में लिखे मेरे लेख को पढ़ें. मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूं, मैं भी तमाम लेखों के ज़रिए आपकी तरह समझने का प्रयास कर रहा हूं. दो साल पहले के इस लेख को पढ़ते हुए आप समझ पाएंगे कि अरुण जेटली एक जीएसटी टैक्स की बात कर न तो नई बात कह रहे हैं और न ही जनता को राहत दे रहे हैं.

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भारत ने भी जीएसटी लागू करने में लंबा वक्त लिया. ऑस्ट्रेलिया ने तो 1975 से चर्चा शुरू की और लागू किया 2000 में.

भारत जिस जीएसटी को ऐतिहासिक बता रहा है, वो सबसे पहले फ्रांस में 1954 में लागू हुआ था. अप्रैल 2016 में मलेशिया ने जीएसटी लागू किया है. न्यूज़ीलैंड में 1986 में लागू हुआ. 1991 में कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में लागू हो चुका है. 140 से ज़्यादा देश जीएसटी लागू कर चुके हैं. अमेरिका में जीएसटी नहीं है.

जीएसटी मूलत एक उपभोग कर है. जीएसटी अंतिम उपभोक्ता देता है. इसे 1950 के दशक से दुनिया भर में इनकम टैक्स के विकल्प के रूप में लाया जा रहा है.

मौजूदा दौर में पूंजी कहीं ठहरती नहीं है. वो एक देश से दूसरे देश में रातों रात चली जाती है. दिन में सेंसेक्स धड़ाम से गिर जाता है और इस आवाजाही से सरकार को राजस्व को भारी नुकसान होता है. इसलिए पूंजी को आकर्षित करने और रोक कर रखने के लिए टैक्स और ब्याज़ दरों में कई प्रकार की छूट दी जाती है. फिर भी पूंजी की यह प्रकृति नहीं बदल पाई है.

लिहाज़ा इसकी भरपाई का यह आइडिया निकाला गया कि अगर सभी उत्पादों के उपभोग पर जीएसटी के नाम से एक टैक्स लगा दें तो टैक्स वसूली का आधार व्यापक होगा.

जीएसटी लागू करते समय यही बताया जाता है कि एक समान और स्थायी टैक्स है. मगर आगे आप पढ़ेंगे कि कैसे सरकारों ने जीएसटी की दरें बढ़ाने की तरकीबें निकाली हैं ताकि कॉरपोरेट का टैक्स कम होता चला जाए. उन्हें पैकेज दिया जा सके.

जिनकी संस्थानिक और व्यक्तिगत कमाई ज्यादा है, उन्हें राहत देकर आम और ग़रीब जनता पर समान रूप से टैक्स लाने का सिस्टम लाया गया है. जो ज़्यादा कमाएगा वो कम टैक्स दे और जो कम कमाता है वो एक समान टैक्स के नाम पर ज़्यादा टैक्स दे.

सबने कहा कि जीएसटी से तीन साल महंगाई आती है. मैंने कहीं नहीं पढ़ा कि महंगाई सिर्फ तीन साल के लिए आती है, बल्कि यही पढ़ा कि महंगाई आती है.

न्यूज़ीलैंड का जीएसटी सबसे उत्तम श्रेणी का माना जाता है. यहां पर किसी भी उत्पाद को जीएसटी के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है. जीएसटी की दर एक है और सब पर लागू है. भारत की तरह तीन प्रकार की जीएसटी नहीं है.

न्यूज़ीलैंड के सामने भारत की तरह अलग अलग राज्य व्यवस्था की चुनौती नहीं है. जैसे भारत में शराब, तंबाकू और पेट्रोल को जीएसटी से बाहर रखा गया है. ऑस्ट्रेलिया की तरह भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सेवाओं को बाहर नहीं रखा गया है.

जीएसटी का समान टैक्स लागू होने से सर्विस टैक्स बढ़ेगा और स्वास्थ्य और शिक्षा और महंगे हो जाएंगे. जहां भी जीएसटी लागू हुआ है वहां कुछ साल तो एक टैक्स होता है मगर उसके बाद बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू होती है.

1 जुलाई 2017 को संसद के विशेष सत्र में जीएसटी की शुरुआत करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (फोटो: पीटीआई)
1 जुलाई 2017 को संसद के विशेष सत्र में जीएसटी की शुरुआत करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (फोटो: पीटीआई)

न्यूज़ीलैंड में जीएसटी 1986 में 10 फीसदी था, पहले 12.5 फीसदी बढ़ा और फिर 15 फीसदी हो गया. ऑस्ट्रेलिया में सन 2000 से 10 फीसदी है और वहां खूब बहस चल रही है कि इसे बढ़ाकर 15 फीसदी या उससे भी अधिक 19 फीसदी की जाए.

ब्रिटेन ने हाल ही में जीएसटी की दर बढ़ाकर 20 फीसदी कर दी है. 30 मुल्कों का एक संगठन है ऑर्गेनाईजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी). पिछले पांच सालों में 30 में से 20 सदस्य देशों ने अपने यहां जीएसटी की दरें बढ़ाईं हैं.

ओईसीडी के अनुसार 21 देशों ने 2009 से 2011 के बीच जीएसटी रेट को बढ़ाकर 17.6 से 19.1 किया है, जबकि जीएसटी की मूल अवधारणा यह है कि सब पर टैक्स लगे. सब पर कम टैक्स लगे. मगर बाद में धीरे-धीरे उपभोक्ताओं से वसूली होने लगती है.

इसीलिए भारत में कांग्रेस कह रही है कि 18 फीसदी अधिकतम टैक्स का प्रावधान संविधान में जोड़ा जाए. मोदी सरकार इसलिए जोड़ने से मुकर रही है कि दुनिया में जहां भी जीएसटी लागू हुआ है वहां कुछ साल के बाद जीएसटी बढ़ाने की नौबत आई है.

जीएसटी बढ़ाने की नौबत क्यों आती है? जो मुझे समझ आया वो इसलिए क्योंकि जीएसटी के नाम पर कॉरपोरेट टैक्स कम किया जाता है. अमीर लोगों के इनकम टैक्स कम होते हैं. सरकार को कम राजस्व मिलता है. इसे छिपाने के लिए सरकार बताने लगती है कि कुल राजस्व में जीएसटी की भागीदारी बहुत कम है.

इसलिए जीएसटी की दर बढ़ाई जा रही है. ऑस्ट्रेलिया में जीएसटी से कुल राजस्व का 23 फीसदी टैक्स ही आता है. एक जगह पढ़ा कि ऑस्ट्रेलिया के कुल राजस्व में जीएसटी का हिस्सा 12.1 फीसदी है. जापान में 19.5 फीसदी है.

ऑस्ट्रेलिया में सरकार ने दावा किया है कि कर वसूली कम होने से पिछले दस साल में शिक्षा और स्वास्थ्य में 80 अरब ऑस्ट्रेलियन डॉलर की कटौती की गई है. अगर जीएसटी से राजस्व ज़्यादा आता तो शिक्षा और स्वास्थ्य में कटौती क्यों करनी पड़ी?

भारत में भी राजस्व के बढ़ने का दावा किया जा रहा है. कहीं भी नौकरी बढ़ने का ज़िक्र तक नहीं मिला. ऑस्ट्रेलिया,ब्रिटेन और न्यूज़ीलैंड के बारे में मैंने पढ़ा कि वहां पर जीएसटी लागू होने के साथ साथ इनकम टैक्स में भी कमी की गई है ताकि सामान्य आयकरदाता चीज़ों के दाम बढ़ने का झटका बर्दाश्त कर सके.

भारत में आयकर में कटौती की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है. उल्टा वित्त मंत्री पिछले दो बजट से कॉरपोरेट टैक्स घटाने का ही ऐलान किये जा रहे हैं. तो क्या ये जीएसटी बड़े कॉरपोरेट और उच्च वर्गों को लाभ पहुंचाने के लिए आ रहा है.

ऑस्ट्रेलिया में एक अध्ययन यह भी हुआ कि जीएसटी लागू होने से वहां के छोटे उद्योगों पर क्या असर पड़ा है. पाया गया है कि शुरूआती दौर में जीएसटी लागू कराने के लिए सॉफ्टवेयर, कंप्यूटर, खाता-बही विशेषज्ञ रखने, फॉर्म भरने में लगे कई घंटे इत्यादि इन सब पर खर्चा काफी बढ़ गया लेकिन बाद में उन्हें लाभ हुआ है.

ज़ाहिर है जीएसटी से बिजनेस की प्रक्रिया सरल होती है. यह बिजनेस के लिए ज़रूरी है. मगर इससे आम आदमी का जीवन आसान नहीं होता है. ग़रीबी दूर नहीं होती है. बल्कि इन सबके नाम पर बड़े बिजनेस को बड़ा पैकेज मिलता है.

आज के फाइनेंशियल एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट छपी है कि जीएसटी के आने से भारत के बड़े उद्योगों को सबसे अधिक लाभ होगा. जब सदन में बहस होती है तब यह क्यों नहीं कहा जाता है कि बड़े उद्योगों को काफी फायदा होगा. क्यों कहा जाता है कि जीएसटी ग़रीबों के लिए है. आम बिजनेसमैन के लिए है.

हर जगह यह बात आई कि जीएसटी से ग़रीबों पर मार पड़ती है. न्यूज़ीलैंड ने इसका उपाय यह निकाला है कि वो ग़रीबों को कई तरह की आर्थिक मदद देता है. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिये.

भारत में भी इसकी वकालत हो रही है. मगर आप देखेंगे कि कई जगहों पर इस इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम के नाम पर बड़ी संख्या में ग़रीबों को अलग भी किया जा रहा है.

न्यूज़ीलैंड में जीएसटी को समझने वालों का कहना है कि इसकी कामयाबी तभी है जब राजनीतिक दबाव में किसी आइटम को जीएसटी से बाहर नहीं किया जाए.जब हर चीज़ पर टैक्स लगायेंगे तभी ज़्यादा राजस्व आएगा.

ऑस्ट्रेलिया की आर्थिक पत्रकार जेसिका इर्विन ने लेख लिखा है जो इंटरनेट पर मौजूद है. उन्हीं के लेख में पिटर डेविडसन नाम के टैक्स एक्सपर्ट का कहना है कि जैसे ही आप इनकम टैक्स से जीएसटी की तरफ कदम बढ़ाते हैं, समाज में असामनता बढ़ने लगती है. न्यूज़ीलैंड में तीस वर्षों में आर्थिक असामनता बढ़ी है. मतलब ग़रीबों की संख्या बढ़ी है और ग़रीबों की ग़रीबी बढ़ी है. जीएसटी से ग्रोथ रेट बढ़ने की कोई स्पष्ट आधार तो नहीं मिलता मगर यह ज़रूर पता चलता है कि इससे असामनता बढ़ती है.

ज़्यादा सवालों के साथ देखने-परखने से नए सिस्टम के प्रति विश्वास भी बढ़ सकता है और आशंका भी. एक नागरिक के लिए ज़रूरी है कि ऐतिहासिकता का आवरण लिए आ रही नई व्यवस्था की व्यावहारिकता को परखता रहे. इसी में सबकी भलाई है.

(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)

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