कैसे तबाह होती है एक समृद्ध जीवनशैली

कंपनी के ख़िलाफ़ संघर्ष हारने के बाद और प्लांट लगने के बाद कुछ लोगों को ऐसा लगने लगा कि उनका ईश्वर, उनके देवता कमजोर हैं. बाहर से आए लोगों का भगवान ज्यादा शक्तिशाली है. अगर वे उनके भगवान को पूजने लगे तो उनकी तरह ही मजबूत हो जाएंगे.

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कुचईपदर गांव की महिलाएं और तुलसी पूजन के लिए लाए गए पौधे. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)

ओडिशा के कुचईपदर गांव में उत्कल एल्युमिना प्लांट लगने के बाद पहली बार स्त्रियों के साथ बलात्कार की घटना सामने आई. इस आदिवासी इलाके में चोरी, छिनैती जैसी घटनाएं बढ़ीं. स्त्रियां अकेली नदी में नहाने से डरने लगीं. दिनदहाड़े स्त्रियों और बच्चियों को उठा ले जाने, उन पर बुरी नज़र डालने, उनसे छेड़खानी करने का डर चारों ओर फैलने लगा. गांव में गायत्री पूजा होने लगी और लोगों में आदिवासी संस्कृति को लेकर हीनता पैदा हुई.

कुचईपदर गांव की महिलाएं और तुलसी पूजन के लिए लाए गए पौधे. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)
कुचईपदर गांव की महिलाएं और तुलसी पूजन के लिए लाए गए पौधे. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)

आदिवासियों का कंपनियों के विरोध का एक लंबा इतिहास रहा है. राज्य और मीडिया अक्सर आदिवासियों की छवि देश में विकास विरोधी या नक्सलवादी होने से ही जोड़कर रखने की कोशिश करते हैं.

लोग सवाल उठाते हैं कि क्या आदिवासी विकास विरोधी हैं?

लेकिन तब क्या होता है जब किसी आदिवासी इलाके में लंबे संघर्ष और विरोध के बाद भी कंपनियां खुद को जबरन स्थापित कर लेती हैं? क्या सचमुच आदिवासियों या आदिवासी इलाकों का विकास हो जाता है?

यह जानने के लिए उन इलाकों को देखना जरूरी है जहां लोगों के लंबे विरोध के बाद भी कंपनियों ने खुद को स्थापित कर लिया है. विकास के जिन वादों के साथ राज्य सरकार पुलिस फोर्स के सहयोग से कंपनियों को आदिवासी इलाकों में स्थापित करने में पूरी ताकत लगाती है, लोगों को जेलों में भरती है, जन आंदोलनों को तोड़ती है, इसके बाद उन इलाकों और वहां के जनजीवन का क्या होता है?

ओडिशा के रयागढ़ा जिले के काशीपुर प्रखंड का कुचईपदर गांव इन सवालों का जवाब देता है.

कुचईपदर गांव के भगवान मांझी 1996 से ही इलाके के 24 गांवों द्वारा प्रकृति को बचाने के लिए बनाए गए ‘प्राकृतिक संपदा सुरक्षा परिषद’ के संयोजक हैं. वे 1992 से ही कंपनी द्वारा बॉक्साइट माइनिंग और बॉक्साइट रिफाइनरी प्लांट लगाने की योजना के खिलाफ कंपनी के विरोध में हुए जन आंदोलन से जुड़े थे.

वे कहते हैं, ‘1992 से लोगों के लंबे विरोध के कारण टाटा, बिरला को वापस जाना पड़ा था. इसके बाद उत्कल एल्युमिना (हिंडाल्को और कनाडा की कंपनी द्वारा संयुक्त रूप से संचालित) कंपनी आई. लोगों ने उसके ख़िलाफ़ भी संघर्ष किया. लेकिन बाद में राज्य सरकार ने इसके लिए रास्ता तैयार कर दिया. उन्होंने कंपनी के पक्ष में जनमत कराया. जनमत के दौरान अधिकांश बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने कंपनी का पक्ष लिया. पुलिस छावनी बैठाई गई. गांव के लोगों को पैसों के बल पर खरीदा जाने लगा. युवाओं को पैसे और नौकरियों का लालच दिया गया. उन पर अपने माता-पिता को समझाने के लिए दबाव बनाया गया. घर-घर में भाई-भाई के बीच, पिता-बेटों के बीच, चाचा-भतीजों के बीच पारिवारिक संघर्ष होने लगे.’

उन्होंने बताया, ‘कई गांव के लोग सुविधाओं के लालच में संघर्ष से पीछे हट गए. जन आंदोलन बिखरने लगे. विरोध करने वाला हर आदमी पुलिस द्वारा उठा लिया जाता और जेल में डाल दिया जाता. जेल से निकलने के बाद लोग टूट चुके घर परिवार को फिर से संभालने में ही फंस गए. अंत में मुट्ठीभर लोग ही बचे जो कंपनी के ख़िलाफ़ खड़े थे. आख़िरकार 2004 में उत्कल एल्युमिना ने अपना पावर प्लांट कुचईपदर में लगा लिया.’

कैसे तबाह होती है कोई जीवनशैली

कुचईपदर गांव ने सैकड़ों सालों से कभी चोरी, डकैती, बलात्कार जैसी घटना नहीं देखा था. लोग शांति और सौहार्द्र से आपस में मिल-जुलकर रहते थे. गांव के अधिकांश लोग खेती करते थे. स्त्रियां अकेली जंगलों, पहाड़ों, नदियों में बिना डरे जाती थीं. वे खेतों में अकेली धान काटने निकल जाती थी.

यहां लोग प्रकृति को पूजते थे. हर पर्व-त्योहार में लोग धूमधाम से नाचते-गाते थे. किसी के घर कोई बड़ा दुख आ पड़े तो सारे लोग गिले-शिकवे मिटाकर उनके साथ नजर आते थे. कोई बड़ी ख़ुशी हो तो पूरा गांव एक दूसरे के साथ खड़ा होता था. गांव के घरों में कभी ताला लगाने की संस्कृति नहीं रही. लोगों के बीच भरोसा था.

कुचईपदर गांव में लगा उत्कल एल्युमिना का प्लांट. (फोटो: जसिंता केरकेट्टा)

उत्कल एल्युमिना पावर प्लांट लगने के बाद पहली बार गांव की स्त्रियों के साथ बलात्कार की घटना सामने आई. इलाके में चोरी, छिनैती, बलात्कार जैसी घटनाएं बढ़ीं. गांव के लोग अकेले अपने खेतों में जाने से डरने लगे. स्त्रियां अकेली नदी में नहाने से डरने लगीं. दिनदहाड़े स्त्रियों और बच्चियों को उठा ले जाने, उन पर बुरी नज़र डालने, उनसे छेड़खानी करने का डर चारों ओर फैलने लगा.

अब वे समूह में नदी जाती हैं. यहां तक कि खेतों में अपनी फसल काटने के लिए भी समूह में निकलती हैं. लोग समूह में जंगल जाते हैं. समूह में घर से निकलते हैं. अपने घरों में ताले डालने की आदत ने जन्म लिया है. पूरी जीवनशैली बदल गई है. पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा. आतंक का एक माहौल तैयार हुआ है.

कैसे धीरे-धीरे टूटती है संस्कृति

कुचईपदर गांव के लोग मूलत: प्रकृति पूजक हैं. हमेशा से पहाड़ों, जंगलों, झरनों को पूजने की संस्कृति रही है. जितने पहाड़, जितनी नदियां, जितने झरने होते हैं आदिवासियों के उतने देवता होते हैं. लोग सभी को पूजते हैं. उनके नाम पर उत्सव मानते हैं. इस उत्सव में हमेशा पूरा गांव शामिल रहता था.

कंपनी के ख़िलाफ़ संघर्ष हारने के बाद और प्लांट लगने के बाद कुछ लोगों को ऐसा लगने लगा कि उनका ईश्वर, उनके देवता कमजोर हैं. बाहर से आए लोगों का भगवान ज्यादा शक्तिशाली है. अगर वे उनके भगवान को पूजने लगे तो उनकी तरह ही मजबूत हो जाएंगे.

कुछ लोग जो शहर जाकर लौटे, वे अपने साथ तुलसी के पौधे लाए और अपने घरों में लगाना शुरू किया. कुछ स्त्रियां गायत्री पूजा करने लगींं और देखते ही देखते दूसरी स्त्रियां भी ऐसा ही करने लगी. अब गांव में अधिकांश लोग गायत्री पूजा करते हैं. लोगों में आदिवासी आस्था और आदिवासी संस्कृति को लेकर हीनता पैदा हुई.

किस तरह का विकास चाहते हैं लोग

श्रीगुड़ा गांव के मनोहर मांझी पूछते हैं कि कोई कंपनी और सरकार कभी अच्छी खेती, सिंचाई की व्यवस्था, पहाड़ों के पानी के संरक्षण आदि की बात क्यों नहीं सोच पातीं? वे किस जनता के विकास की बात करती हैं? क्या हम इस देश की जनता नहीं हैं? यदि हैं तो हमारी जरूरतों के अनुरूप वे हमारा विकास क्यों नहीं चाहती?

जहां भी कोई कंपनी जाती है वह सरकार को जनता के ख़िलाफ़ खड़ा करती है. सरकार उसके लिए रास्ता बनाने, विरोध करने वालों को जेल में भरने के लिए पुलिस फोर्स उतारती है. कंपनी अपने साथ भाड़े के गुंडे-दलाल लेकर आती है. पर्यावरण के नियमों को ताख पर रखते हुए जल, जंगल, जमीन, नदी सबको बर्बाद करती है. लोगों का जीवन एक बारगी पूरी तरह बदल जाता है.

बागरीझोला गांव के नाथो जानी कहते हैं, ‘उत्कल एल्युमिना का प्लांट लगने के बाद 23 किलोमीटर से पहाड़ काटकर बॉक्साइट लाया जा रहा है. 105 गांव प्रभावित हैं. 85 गांव पहाड़ के सीधे उस इलाके में पड़ते है जहां खनन हो रहा है. उनको बिना वहां से विस्थापित किए ही खनन किया जा रहा. यह सोचकर कि पहाड़ कटेगा, स्थिति बुरी होगी तो लोग खुद-ब-खुद भागेंगे. जब से प्लांट लगा है तब से अच्छी खेती नहीं हो रही. खेत प्रदूषित हो गए हैं. पूरा इलाका प्रदूषित है. अब पहले की तरह माहौल नहीं रहा. हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारी ऐसी दुर्दशा होगी.’

सबकुछ उजाड़कर चले जाएंगे वे

कुचईपदर गांव के महाराज मांझी कहते हैं, ‘संघर्ष के दिनों में जो लोग कंपनी के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे थे, उनका संघर्ष तोड़ने के लिए कंपनी उन्हें घर बैठे 1800 रुपये हर महीने देती थी. अलग-अलग गांवों को पैसे बांटे जाते थे. ऐसे में आंदोलन कमजोर होता गया. लोगों को पैसे के बल पर अंदर से तोड़ दिया गया. गांव के कुछ युवाओं को कंपनी में कॉन्ट्रैक्ट पर काम मिला. लेकिन सभी जानते हैं खनन का काम ख़त्म होते ही उनकी नौकरियां भी समाप्त हो जाएंगी. तब युवाओं के हाथ से खेती करने, अनाज उपजाने का हुनर ख़तम हो जाएगा और वे मजदूरी के लिए बाहर जाएंगे.’

वे आगे कहते हैं, ‘पहले गांव के कामों के लिए लोग गांव में ही मिल जाते थे. अब कोई नहीं मिलता. एक दिन सब कुछ उजाड़कर वे उस जगह को वीरान छोड़ जाएंगे. तब कौन इस जगह की सुंदरता लौटाएगा? कौन फिर से पहले सा हमारा जीवन हमें लौटा सकता है?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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