कश्मीर घाटी में ऐसा क्या हुआ कि 2014 के बाद हालात तेज़ी से ख़राब होने लगे?

कश्मीर के मामले में मोदी सरकार ने न तो पहले की सरकारों की विफलताओं से कोई सबक लिया और न ही कामयाबियों से.

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People look out from a window as they watch a protest against the recent killings in Kashmir, on the outskirts of Srinagar
(फोटो: रॉयटर्स)

कश्मीर के मामले में मोदी सरकार ने न तो पहले की सरकारों की विफलताओं से कोई सबक लिया और न ही कामयाबियों से.

फोटो: रॉयटर्स
फोटो: रॉयटर्स

श्रीनगर संसदीय उपचुनाव से महज सप्ताह भर पहले जम्मू इलाक़े से कश्मीर घाटी जाने के लिए देश की सबसे लंबी चनैनी-नाशरी सुरंग आवागमन के लिए खोली गई. छह साल से इस पर काम चल रहा था. उस दिन टीवी चैनलों पर सुरंग उद्घाटन की रंगारंग ख़बर देखते-सुनते हुए मेरे दिमाग में बार-बार एक सवाल उठ रहा था. संसदीय उपचुनाव से ऐन पहले यह सुरंग आवागमन के लिए खोली गई. पर कश्मीर घाटी को शेष भारत से जोड़ने वाली एक और सुरंग है, जो कभी खुलती है, कभी बंद रहती है.

इसे स्थायी तौर पर कब खोला जाएगा और कौन खोलेगा? यह दूसरी सुरंग सियासत की है, जिसे लेकर बरसों से एक सा सिलसिला है. कभी वह खुलती है तो कभी बंद होती है. उस दिन मेरे मन में सवाल उठता रहा, भारत से घाटी को जोड़ने वाली यह अंधेरी बंद सुरंग पूरी तरह कब रौशन होगी, कश्मीर में वह माहौल कब आएगा, जब न सुरक्षाबलों पर पत्थर चलेंगे और न आठ साल से अट्ठाइस साल के युवकों पर पैलेट गनें बरसेंगी!

कश्मीर के लिए 2002 से 2012 का दौर काफी महत्वपूर्ण रहा. इससे पहले जहां होटलों के कमरों में महज दो-तीन फ़ीसदी लोग ही आकर ठहरते थे, वहां होटलों में कमरा पाने के लिए पर्यटक इंतजार करते दिखने लगे. श्रीनगर की डल के शिकारे और हाउसबोट सन सत्तर और अस्सी के दशक की तरह गुलज़ार होने लगे.

करोलबाग के व्यापारी भी अपने परिजनों के साथ सोनमर्ग पार कर करगिल जाने लगे. बीच-बीच में वहां के युवक सड़कों पर उतरकर गुस्सा ज़ाहिर करते पर मतदान के लिए वे लंबी-लबी लाइनों में भी खड़े होते. एनडीए-2 की शुरुआत हुई तो कश्मीर के कई अलगाववादी नेताओं ने भी प्रचंड बहुमत से आई सरकार का यह कहते हुए स्वागत किया कि सरकार अब कश्मीर पर बड़े फ़ैसले लेने में समर्थ होगी. हुर्रियत नेता मीर वाइज़ उमर फ़ारूक़ ने नये प्रधानमंत्री मोदी को बधाई संदेश भी दिया.

दिल्ली में मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के कुछ ही महीने बाद कश्मीर विधानसभा चुनाव हुए तो लोगों ने 65 फ़ीसदी मतदान किया. लेकिन इस वर्ष 9 अप्रैल को श्रीनगर संसदीय सीट का उपचुनाव हुआ तो 8 लोगों की मौत, 200 से ज़्यादा नागरिकों और 100 जवानों के घायल होने के बीच सिर्फ़ 7 फ़ीसद मतदान! 38 मतदान केंद्रों पर हुए पुनर्मतदान में तो महज 2 फ़ीसद लोग वोट देने आए. नाज़ुक हालात देखकर 12 अप्रैल को होने वाला अनंतनाग संसदीय उपचुनाव स्थगित कर दिया गया, जहां मुख्यमंत्री महबूबा के छोटे भाई सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रत्य़ाशी हैं.

आख़िर यह सब क्यों और कैसे हुआ?

सन 2014 में जब भाजपा की अगुवाई में मोदी सरकार ने कार्यभार ग्रहण किया, उस वक्त कश्मीर काफ़ी हद तक सामान्य और सहज माहौल की तरफ़ वापस हो रहा था. आतंकी हमलों मे भारी कमी दर्ज हो रही थी. श्रीनगर सहित घाटी के शहरों में शाम और रात की ज़िंदगी वापस आ चुकी थी.

घाटी में 2014 से 2016 के बीच सबकुछ सहज नहीं रहा. कभी एनआईटी, कभी मशरत आलम गिरफ़्तारी-रिहाई प्रकरण, कभी कश्मीरी झंडे का सवाल, कभी कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से कॉलोनी बनाने की चर्चा तो कभी कश्मीर से बाहर के शिक्षण संस्थानों में क्रिकेट देखते या गोश्त पकाते कश्मीरी युवकों पर जानलेवा हमले. घाटी में कोई नयी राजनीतिक पहल नहीं. पाकिस्तान से संवाद न करने की हठ. पर इस असहजता की कहानियां हमारे राष्ट्रीय मीडिया, खासकर टीवी चैनलों से ग़ायब थीं.

वहां सिर्फ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का शौर्य-गान चल रहा था. हमारे ज़्यादातर अख़बारों और न्यूज़ चैनलों के लिए दिल्ली और घाटी के बीच राजनीतिक संवाद का थमना कोई मसला ही नहीं बना! हिंदी-अंग्रेज़ी चैनलों की सायंकालीन ‘चिल्ला-चिल्ली’ में ‘कश्मीर का सच’ रोज़-ब-रोज़ दबता-छुपता रहा. कश्मीर पर नकली बहसें चलाई जाती रहीं.

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 24 अप्रैल को नई दिल्ली में मुलाक़ात करते हुए. (फोटो: पीआईबी)
जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 24 अप्रैल को नई दिल्ली में मुलाक़ात करते हुए. (फोटो: पीआईबी)

मीडिया समाजशास्त्र में दुनिया के तमाम बड़े विशेषज्ञ कहते हैं कि लोकतंत्र में सूचना के स्वतंत्र प्रवाह से समाज जागरूक होता है और अपने मसलों को लेकर सियासत व सरकार पर लोकतांत्रिक दबाव बना पाता है. क्या हमारे राष्ट्रीय मीडिया ने ऐसा कुछ किया?

अगर 2014 से अब तक के घटनाक्रमों के कवरेज को देखें तो गहरी निराशा होती है. इस दरम्यान हमारे-मीडिया के बड़े हिस्से में यह एक ताक़तवर आवाज़ उभरती रही कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, वह सब पाकिस्तान के चलते. अन्यथा, वहां सबकुछ ठीक है. जुलाई, 2016 के बाद से अब तक के घटनाक्रमों के बारे में मीडिया की इस आम धारणा और रुख़ के चलते मोदी-राज के दरम्यान कश्मीर घाटी में घरेलू स्तर पर मिलिटेंसी के नये उभार की वास्तविकता पर पर्दा-सा पड़ गया.

सच तो यह है कि इस दरम्यान मिलिटेंसी को जितना घाटी में ‘जन-समर्थन’ मिलता नज़र आया, उतना तो सन 91 से 97 के सबसे बुरे दिनों में भी नहीं देखा गया. पर ‘देशभक्ति’ और ‘भगवा राष्ट्रवाद’ के रंग में रंगे हमारे राष्ट्रीय मीडिया के बड़े हिस्से के लिए यह एक ऐसा सच था, जिसे दिखाने या बताने में उसे कतई कोई दिलचस्पी नहीं थी.

चैनलों के ज़रिये झूठ का गुब्बारा फुलाया जाता रहा. पर वह कब तक फूलता? अंततः उसे फटना ही था. और 9 अप्रैल को श्रीनगर संसदीय उपचुनाव के मतदान के वक्त वह फट गया, जब यह तथ्य पूरी दुनिया के सामने आ गया कि जिस श्रीनगर में महज पौने तीन साल पहले 65 फ़ीसदी मतदान हो रहा था, वहां अप्रैल, 2017 के चुनाव में मतदान का औसत हो गया 7 फ़ीसद. 38 सीटों के पुनर्मतदान में महज 2 फ़ीसद.

हमारे मीडिया के बड़े हिस्से में कश्मीरी युवाओं की ‘पत्थरबाज़ी’ (जिसका निश्चय ही कोई समर्थन नहीं कर सकता!) को पाकिस्तान से जोड़कर देखा गया. माना गया कि हर पत्थर के लिए पाकिस्तान ने नोट या रुपये तय कर रखे हैं.

बाद के दिनों में केंद्रीय मंत्रियों की तरफ़ से टीवी चैनलों पर बयान आते रहे कि नोटबंदी के कारण पत्थरबाज़ी बंद हो गई थी. नोटबंदी से नोट बांटने वालों के लिए संकट पैदा हो गया. पर अक्टूबर, 2016 में पत्थरबाज़ी का स्थगन नोटबंदी के ऐलान से लगभग दो सप्ताह पहले हो चुका था. इस आसान से तथ्य की भी मीडिया ने अनदेखी की.

मीडिया ने जिस तरह ‘पत्थरबाज़ी’ पर रोष प्रकट किया, उस तीखेपन के साथ ‘पैलेटबाज़ी’ पर नहीं! घाटी में पहली बार 2016 के तीन-चार महीने तक इज़रायल-आयातित पैलेट-गन्स का लगातार इस्तेमाल किया गया. सैकड़ों युवक इससे प्रभावित हुए. कई तो हमेशा के लिए अपाहिज हो गए. दिल्ली स्थित एम्स के डाक्टरों की विशेषज्ञ टीम तक ने सरकार से इस बात की सिफ़ारिश की थी कि पैलेट गन्स का हरगिज़ इस्तेमाल नहीं किया जाय. पर इस्तेमाल तब भी जारी रहा.

जब वैश्विक स्तर पर यह मामला उठने लगा तब जाकर पैलेट गन्स का इस्तेमाल रोका गया. इस घटनाक्रम से कश्मीर घाटी में ‘भारत-विरोधी भावनाओं’ के भड़कने का मौक़ा मिला. बताते हैं कि पत्थरबाज़ी से निपटने के लिए अब गृह मंत्रालय ने पैलेट गन्स को रोकते हुए प्लास्टिक की गोलियां इस्तेमाल करने की सिफ़ारिश की है.

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सोशल मीडिया के दौर में कश्मीर के घटनाक्रमों के कवरेज के कुछ बड़े अच्छे तो कुछ बहुत बुरे आयाम सामने आ रहे हैं. सेना के किसी अधिकारी के आदेश पर एक सैन्य जीप के बोनट पर बांधकर एक स्थानीय नागरिक को पूरे इलाक़े में घुमाया गया. उसे सेना ने अपने ‘सुरक्षा कवच’ के रूप में इस्तेमाल किया, साथ ही पत्थरबाज़ी करने वाले युवकों को कथित संदेश भी दिया कि जो पत्थरबाज़ी करेगा, उसे इसी तरह जीप में बांधकर घुमाया जाएगा!

साफ़ लगता है कि इस तस्वीर को किसी स्थानीय नागरिक ने अपने कैमरे में उतारी और सोशल मीडिया के ज़रिये प्रसारित किया. लेकिन एक और भी तस्वीर जमकर प्रसारित हुई. इसमें कुछ कश्मीरी बच्चे/युवक सैनिकों पर ‘थप्पड़बाज़ी’ कर रहे हैं और वे सैनिक बिल्कुल ‘गांधीवादी’ बन जाते हैं. हाथ में बंदूक होने के बावजूद बच्चों का थप्पड़ झेल लेते हैं! इस तस्वीर को दिल्ली स्थित चैनलों ने सुबह से रात, कई दिनों दिखाया.

किसी ने यह सवाल उठाने का ‘जोख़िम’ नहीं उठाया कि यह तस्वीर किसने खींची होगी? निश्चय ही उन कश्मीरी बच्चों ने तो नहीं खींची होगी! फिर सेना की तरफ़ से किसी अधिकृत व्यक्ति या निजी हैसियत में यह तस्वीर क्यों खींची और क्यों प्रसारित किया? क्या इससे कश्मीर में सैन्य बलों का मानवीय चेहरा उभरता है? क्या इसे कश्मीरी अवाम भी मंज़ूर करेगी? इस तरह की तस्वीरों को योजनाबद्ध ढंग से प्रसारित कर सम्बद्ध एजेंसियां क्या हासिल करना चाहती हैं? पर मुख्यधारा मीडिया में ये सवाल नहीं उठे.

मुख्यधारा मीडिया, ख़ासकर हिंदी-अंग्रेज़ी के न्यूज़ चैनलों ने यह सवाल करना भी मुनासिब नहीं समझा कि कश्मीर घाटी में ऐसा क्या और क्यों हुआ कि 2014 के बाद हालात तेज़ी से ख़राब होने लगे? मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल के दौरान तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद कश्मीर में विश्वास बहाली और शांति स्थापना की कोशिशों को बल मिला था.

निश्चय ही वाजपेयी काल में भी कुछ सकारात्मक कदम उठाए गए. उनके दौर में जो बड़ी चूक हुई, वो थी आगरा शिखर वार्ता का विफल होना और जम्मू-कश्मीर विधानसभा से पारित स्वायत्तता प्रस्ताव को पूरी तरह ख़ारिज करना. लेकिन वाजपेयी को तुरंत एहसास हुआ कि कश्मीर बुनियादी तौर पर राजनीतिक मसला है.

फोटो: पीटीआई
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वाजपेयी के कार्यकाल में सरकार ने अलगाववादियों से सीधी बातचीत की. ट्रैक-2 के लिए उन्होंने पूर्व संपादक आरके मिश्रा सहित कई लोगों को अनुबंधित किया. उन दिनों रॉ के पूर्व चीफ़ एएस दुलत कश्मीर मामलों में सरकार के सलाहकार थे.

मनमोहन सिंह की सरकार आर्थिक राजनीतिक मामलों में चाहे जितनी कमज़ोर और विफल सरकार रही हो, उसने कश्मीर मामले को उसकी पूरी जटिलता में समझने की कोशिश की. उनके दौर में कश्मीर पर पांच वर्किंग ग्रुप और फिर पडगांवकर कमेटी का गठन हुआ. यह अलग बात है कि इन कार्य समूहों और पडगांवकर कमेटी की सिफ़ारिशों को लागू करने में मनमोहन सरकार कामयाब नहीं हुई. लेकिन मोदी सरकार ने तो पहले की दोनों सरकारों के जो सकारात्मक क़दम थे, उन्हें भी निरस्त कर दिया.

नई सरकार ने न तो पहले की दोनों सरकारों की विफलताओं से कोई सबक लिया और न ही कामयाबियों से. भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा जब एक टीम के साथ कश्मीर के दौरे पर गए तो उन्हें और उनकी टीम की पड़ताल को शायद ही किसी ने गंभीरता से लिया! केंद्र सरकार के किसी नुमाइंदे ने उनकी टीम से बात तक नहीं की. क्या मुख्यधारा मीडिया के कितने मंचों से किसी भी तरह के संवाद और वार्ता से परहेज करने के मौजूदा सरकारी रवैये पर सवाल उठाए गए?

सच तो ये है कि कथित राष्ट्रीय मीडिया, ज़्यादातर बड़े अख़बारों और चैनलों के पास श्रीनगर में नियमित ढंग से कवर करने वाले न्यूज़ ब्यूरो ही नहीं हैं. अंशकालिक संवाददाताओं की ओर भेजी गईं कुछ बडे़ मामलों की ख़बरें, ख़ासकर गोलीबारी, आतंकी हमले या किसी चर्चित कश्मीरी के मारे जाने की ख़बरें ही दिल्ली में प्रकाशित या प्रसारित हो पाती हैं. इससे ज़मीनी स्तर की बेहद ज़रूरी कहानियां समाज, सियासत दानों और योजनाकारों तक नहीं पहुंच पातीं. इस तरह कश्मीर के साथ मीडिया के बडे़ हिस्से की तरफ से न्याय नहीं हो पाता.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)