हंसो-हंसो, वज़ीर-ए-आज़म, खूब हंसो…

बीते दिनों आईआईटी रूड़की के एक कार्यक्रम में डिस्लेक्सिया को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हंसी राष्ट्रीय रोष का सबब बनी.

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Kigali: Prime Minister Narendra Modi addresses the Indian community people during a reception at Kigali, in Rwanda on Monday, July 23, 2018. (PIB Photo via PTI) (PTI7_24_2018_000020B)
Kigali: Prime Minister Narendra Modi addresses the Indian community people during a reception at Kigali, in Rwanda on Monday, July 23, 2018. (PIB Photo via PTI) (PTI7_24_2018_000020B)

बीते दिनों आईआईटी रूड़की के एक कार्यक्रम में डिस्लेक्सिया को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हंसी राष्ट्रीय रोष का सबब बनी.

Kigali: Prime Minister Narendra Modi addresses the Indian community people during a reception at Kigali, in Rwanda on Monday, July 23, 2018. (PIB Photo via PTI) (PTI7_24_2018_000020B)
नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हंसो

ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे

और ऐसे मौकों पर हंसो

जो कि अनिवार्य हों

जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार

जहां कोई कुछ कर नहीं सकता

उस ग़रीब के सिवाय

और वह भी अकसर हंसता है…

रघुवीर सहाय की कविता ‘हंसो हंसो जल्दी हंसो’ का अंश

हंसने की कई किस्में होती हैं. एक किस्म की हंसी में हम अपने पर हंसते हैं. अपनी बेवकूफियों, कमज़ोरियों पर ठहाका लगाते हैं. ऐसी निर्मल हंसी से मनुष्य घृणा, ईर्ष्या, अहंकार, हिंसा और द्वेष से परे हो जाता है.

कार्लाइल कहते हैं, ‘जो अच्छी तरह दिल खोलकर एक बार भी हंस चुका है, वह कभी ऐसा दुराचारी नहीं हो सकता, जो कभी सुधर ही न सके.’

दूसरे किस्म की हंसी होती है जब मनुष्य संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता पर हंसता है, जिसे अस्तित्वगत हंसी कहा जाता है.

तीसरे किस्म की हंसी होती है जब हम दूसरों पर हंसते हैं. यह हंसने की सबसे निकृष्ट श्रेणी मानी जाती है जब, हम दूसरे की बेवकूफी या कमज़ोरी को अपना निशाना बनाते हैं. गहराई से पड़ताल करें तो ऐसी हंसी में थोड़ी हिंसा निहित होती है, प्रतिशोध का पुट भी होता है.

आईआईटी रूड़की के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक ऐसी ही हंसी राष्ट्रीय रोष का सबब बनी है, जब डिसलेक्सिया/अपपठन/वाकविकार- अक्षरों एवं अक्षरों के विन्यास एवं ध्वनियों से उनके मिलान में अक्षम या कठिनाई से होने वाला एक डिसऑर्डर, जिससे दुनिया के तमाम बच्चे प्रभावित होते हैं- को दूर करने को लेकर किसी छात्रा द्वारा लिए गए प्रोजेक्ट की चर्चा के दौरान उस छात्रा की बातचीत को बीच में काटते हुए उन्होंने पूछा था कि क्या इस प्रोजेक्ट से 40-50 साल के बच्चों की भी मदद हो सकती है.

इसके बाद वह हंस दिए थे और जब छात्रा ने कहा कि ‘हां’ तो प्रधानमंत्री ने कहा, ‘फिर ऐसे बच्चे की मां भी बहुत खुश होगी.’ डिसलेक्सिया को लेकर उनकी इस हंसी को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी पर उनकी अप्रत्यक्ष टिप्पणी के तौर पर समझा गया था.

यह तो स्पष्ट ही था कि टीवी पर ‘लाइव’ चल रहे इस प्रोग्राम में प्रधानमंत्री मोदी के इस आचरण की व्यापक भर्त्सना हुई, न केवल मीडिया के एक हिस्से में प्रधानमंत्री की ‘असंवेदनशीलता’ को निशाना बनाया गया बल्कि विपक्षी पार्टियों ने भी उनसे इस आचरण के लिए माफी मांगने के लिए कहा.

‘द वायर’ पर अपने प्रोग्राम में पत्रकार आरफ़ा ख़ानम शेरवानी ने इस बात के भी सबूत पेश किए कि किस तरह 2014 के चुनावों की तैयारी के दौरान भी सभाओं में विशेष रूप से सक्षम (डिफेरेंटली एबल) के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग उनके द्वारा किया गया था.

अब जैसा कि आलम है अपने पद की गरिमा के प्रतिकूल प्रधानमंत्री के इस आचरण के बावजूद न उनकी तरफ से इस मामले में अभी तक खेद प्रकट किया गया है और न ही उनके अनुयायियों ने इसकी गंभीरता को समझा है क्योंकि जैसा कि डिसलेक्सिया से जूझ रहे कार्यकर्ता बताते हैं कि कथित तौर पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर सस्ती टिप्पणी वाली इस कवायद ने देश के उन करोड़ों बच्चों, उनके माता-पिताओं, अध्यापकों एवं थेरेपिस्टों का संघर्ष कई साल पीछे चला गया है.

निश्चित तौर पर संविधान की कसम खाकर अपने पद पर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा- ऐसा कोई भी आचरण बेहद निंदनीय है और विशेष रूप से सक्षम किसी व्यक्ति का ऐसा भद्दा मज़ाक 2016 में बने राइटस ऑफ पर्सन्स विथ डिसएबिलिटीज़ ऐक्ट की धारा 92 ए का साफ़-साफ़ उल्लंघन भी है.

इस क़ानून के मुताबिक, ‘जो कोई सचेतन तौर पर विशेष रूप से सक्षम व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान पर अपमानित करेगा या डराएगा तो उसे कम से कम छह माह की सज़ा हो सकती है जिसे पांच साल और जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है.’

मामला महज़ यहीं पर नहीं रुका विशेष रूप से सक्षम लोगों के अधिकारों के लिए लंबे समय से संघर्षरत एक राष्ट्रीय मंच की तरफ से इस व्यवहार के लिए प्रधानमंत्री से माफी की मांग करते हुए यह भी कहा गया कि प्रधानमंत्री का यह व्यवहार एक तरह से डिसलेक्सिया से पीड़ित लोगों का मज़ाक उड़ाने जैसा था और चूंकि इस घटना ने उन्हीं की सरकार द्वारा बनाए क़ानून का उल्लंघन किया है इसे लेकर सख़्त संदेश दिए जाने की ज़रूरत है.

उपरोक्त राष्ट्रीय मंच ‘नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर राइट्स ऑफ डिसएबल्ड’ की तरफ से कहा गया कि उसने अपनी राज्य इकाइयों को आदेश दिया है कि वह स्वतंत्र रूप से या विशेष रूप से सक्षम लोगों के लिए संघर्षरत अन्य संगठनों की तरफ से प्रदर्शनों का आयोजन करे, ताकि किसी भी बड़े पद पर बैठा व्यक्ति ऐसा कोई भी व्यवहार आईंदा न करें.

ब्रिटिश डिसलेक्सिया एसोसिएशन की वाइस प्रेसिडेंट एंजेला फासेट ने कभी बताया था, ‘भारत में शिक्षा और अकादमिक परफॉर्मंस परिवार के लिए बड़ा मामला होता है, ऐसी पृष्ठभूमि में अगर डिसलेक्सिया के बारे में माता-पिता समझ नहीं सके या अध्यापकों को भी रेखांकित करने का मौका नहीं मिला तो वह बच्चे के लिए बेहद यातनापूर्ण होता है. लोग यही समझते हैं कि बच्चा मेहनत नहीं कर रहा है.’

विडंबना यही है कि भारत में सीखने में अक्षमता या कठिनाई को भी मानसिक बीमारी के दायरे में डाला जाता है- जो अपने आप में बिल्कुल ग़लत है- जो एक तरह से इस मसले पर लांछना को बढ़ावा देता है.

याद रहे डिसलेक्सिया- जिसके बारे में हम लंबे वक्त़ तक अनभिज्ञ रहे हैं और जिसको दूर करने के लिए किए जा रहे प्रोजेक्ट ने मोदी को हंसने का एक बहाना दे दिया- दरअसल सीखने में कठिनाई की आम दिक्कत है जो पढ़ने, लिखने और स्पेलिंग लिखने में बाधा पहुंचाती है.

गौरतलब है कि सीखने की इस विशिष्ट कठिनाई से बुद्धिमत्ता/प्रतिभा पर कोई असर नहीं होता- के बारे में ख़ुद भारत सरकार की तरफ से इंगित किया गया है कि दुनिया भर में 5 से 20 फीसदी बच्चे इससे प्रभावित होते हैं, जबकि भारत में यह प्रतिशत लगभग 15 है और अगर हम वर्ष 2013 में मान्यता प्राप्त स्कूलों में दाख़िला लिए लगभग 22 करोड़ 90 लाख छात्रों की संख्या को देखें तो अकेले भारत में ऐसे बच्चों की संख्या साढ़े तीन करोड़ तक पहुंचती है.

अभी ज्यादा वक्त़ नहीं हुआ है जब ऐसी किसी स्थिति के बारे में जनमानस में जागरूकता आई है. विडंबना ही है कि इस स्थिति की व्यापकता के बावजूद भारत में इसे लेकर जागरूकता लाने का श्रेय एक तरह से बॉलीवुड की एक फिल्म ‘तारे ज़मीं पर’ को जाता है.

ध्यान रहे कि वर्तमान सरकार के गठन के महज़ एक साल बाद ही विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में डिसलेक्सिया के लिए आकलन उपकरण/एसेसमेंट टूल्स और सीखने की इस विशिष्ट डिसऑर्डर के बारे में एक किताब का विमोचन भी किया था. इसी बहाने दिल्ली उच्च अदालत (5 सितंबर 2012) के उस फैसले की भी चर्चा हुई थी जिसने सभी सरकारी, निजी और पब्लिक स्कूलों को यह निर्देश दिया था कि वह विभिन्न किस्म की सीखने की कठिनाइयों से जूझ रहे बच्चों की शिक्षा को सुगम बनाने के लिए अपने आप को उपकरणों से, विशेष अध्यापकों से लैस करे.

अंत में, डिसलेक्सिया को लेकर ज़िम्मेदार पद पर बैठे लोगों का ऐसा आचरण पूरे समाज के विकलांगता के प्रश्न के प्रति बेरुख़ी भरे रुख़ से भी समझा जा सकता है.

मिसाल के तौर अपने एक महत्वपूर्ण आलेख ‘अंडरएस्टिमेटिंग डिसएबिलिटी’ में जनाब विवेक देब्रॉय- जो ‘नीति आयोग’ के सदस्य हैं- ने इसी बात की ताईद करते हुए लिखा कि ‘विशेष रूप से सक्षम लोगों को हम न ठीक से परिभाषित कर रहे हैं और न उस सच्चाई को ठीक से ग्रहण कर रहे हैं.’

शारीरिक अक्षमता को नापने में बरते जा रहे एक किस्म के ‘मनमानेपन’ की चर्चा करते हुए वह बताते हैं कि वर्ष 1872 से 1931 के बीच जनगणना के दौरान शारीरिक अक्षमता को लेकर महज़ एक प्रश्न पूछा गया, 1941 से 1971 के दरमियान ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछा गया, जिस प्रश्न को 1981 में पूछा गया, उसे 1991 में फिर हटा दिया गया.

उनके मुताबिक रेखांकित करने वाली बात है कि शारीरिक अक्षमता को लेकर 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना भी मुमकिन नहीं है क्योंकि शारीरिक अक्षमता की परिभाषा एक जैसी नहीं है क्योंकि 2001 में पांच किस्म की शारीरिक अक्षमता को लेकर सवाल पूछे गए जबकि 2011 में आठ किस्म की शारीरिक अक्षमता को लेकर.

चाहे रोज़गार में उनके प्रतिशत की ग़ैर-जानकारी का मामला हो या उनकी वास्तविक संख्या को लेकर हमारी गैर-जानकारी हों, या उन्हें मज़ाक के केंद्र में रखना हो, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों हैं. इसकी कई स्तर पर व्याख्या मुमकिन है.

दरअसल जब तक शारीरिक अक्षमता को चिकित्सकीय निगाहों से देखा जाता रहेगा, शरीर की ख़ास स्थिति को ‘ऐबनॉर्मल’ अर्थात ‘असामान्य’ कहा जाता रहेगा, तब तक इसी किस्म के आकलन तक हम पहुंचेंगे.

इस संदर्भ में विशेष चुनौतियों वाले व्यक्तियों के प्रश्न पर 1978 में प्रकाशित अपनी चर्चित किताब ‘हैंडिकैपिंग अमेरिका’ में विकलांगों के अधिकारों के लिए संघर्षरत फ्रैंक बोवे जो बात कहते हैं, वह गौरतलब है.

उनका कहना है कि असली मुद्दा शारीरिक अक्षमता के प्रति- फिर चाहे वह दृष्टिजनित हो या चलनजनित- सामाजिक प्रतिक्रिया का है. अगर कोई समुदाय भौतिक, स्थापत्यशास्त्राय, यातायात संबंधी तथा अन्य बाधाओं को बनाए रखता है तो वह समाज उन कठिनाइयों का निर्माण कर रहा है जो विशेष रूप से सक्षम व्यक्ति को उत्पीड़ित करते हैं.

दूसरी तरफ, अगर कोई समुदाय इन बाधाओं को हटाता है तो विशेष रूप से सक्षम व्यक्ति अधिक ऊचे स्तर पर काम कर सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो शारीरिक अक्षमता सामाजिक तौर पर निर्मित होती है.

इस गहरे एहसास के बाद कहें या अन्य वजहों से कहें अधिकतर विकसित देशों में शारीरिक अक्षमता को नापने का पैमाना ‘सामाजिक कारणों’ की तरफ बढ़ा है, जिसमें उन संस्थागत एवं सामाजिक प्रणालियों को रेखांकित किया जाता है, जो एक तरह से सामान्य जीवन जीने में बाधा बनती हैं.

(लेखक वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक और अनुवादक हैं.)

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